इलाहाबाद (तेज समाचार प्रतिनिधि). वर्ष 2007 में गोरखपुर में हुए साम्प्रदायिक दंगे में उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी आरोपी है. इस मुकदमे को चलाने के लिए सरकार की मंजूरी जरूरी होती है. लेकिन यूपी सरकार ने सीएम योगी आदित्यनाथ समेत सभी आरोपियों के खिलाफ मुकदमा चलाए जाने की मंजूरी दिए जाने से इंकार कर दिया है.
यूपी सरकार ने मुकदमा चलाने की मंजूरी वाली अर्जी को तीन मई को ही खारिज कर दिया था. इतना ही नहीं इस मामले की जांच कर रही यूपी सरकार की जांच एजेंसी सीबीसीआईडी ने इस मामले में अब चार्जशीट के बजाय फाइनल रिपोर्ट लगाने का एलान किया है. यानी सीबीसीआईडी ने अपनी जांच में सीएम योगी समेत सभी आरोपियों को क्लीन चिट दे दी है. मुक़दमे की मंजूरी की मांग ठुकराए जाने और सीबीसीआईडी जांच में एफआर लगाए जाने की जानकारी यूपी के चीफ सेक्रेट्री राहुल भटनागर और गृह विभाग के प्रिंसिपल सेक्रेट्री देवाशीष पांडा ने आज खुद इलाहाबाद हाईकोर्ट में दी. हाईकोर्ट ने चीफ सेक्रेट्री को आज इसी मामले में कोर्ट में तलब किया था.
हालांकि मामले की सुनवाई कर रही जस्टिस रमेश सिन्हा और जस्टिस यूसी श्रीवास्तव की डिवीजन बेंच ने यूपी सरकार के इस फैसले पर सवाल उठाए और टिप्पणी की कि क्या सरकार ने मुकदमा चलाए जाने की मंजूरी ठुकराने का फैसला अपने मुखिया को बचाने व उन्हें खुश करने के लिए लिया है.
अदालत की इस टिप्पणी पर यूपी के एडवोकेट जनरल ने कोर्ट को बताया कि दरअसल सरकार ने मुक़दमे की मंजूरी दिए जाने की मांग फॉरेंसिक जांच की रिपोर्ट के आधार पर लिया है. फॉरेंसिक जांच में किसी भी आरोपी के खिलाफ कोई सबूत नहीं पाए गए. शिकायतकर्ताओं की तरफ से भी सरकार के इन दोनों फैसलों का विरोध जताया गया और अदालत से दखल देने की मांग की गई.
शिकायतकर्ताओं की तरफ से भी अदालत में यह कहा गया कि जब केस में खुद सीएम ही आरोपी है तो ऐसे में सरकार मुकदमा चलाने की मंजूरी कैसे देगी. अदालत ने शिकायतकर्ताओं को यह अनुमति दी कि वह इन दोनों फैसलों के खिलाफ और सीबीआई जांच की मांग को लेकर मुक़दमे में नई अप्लीकेशन दाखिल कर सकते हैं.
अदालत ने यह भी साफ़ किया कि नई अप्लीकेशन पर अदालत सुनवाई के बाद उचित फैसला लेगी. अदालत इस मामले में अब पांच जुलाई को सुनवाई करेगी.
गौरतलब है कि साल 2007 की 27 जनवरी को गोरखपुर में साम्प्रदायिक दंगा हुआ था. आरोप है कि दंगे में अल्पसंख्यक समुदाय के दो लोगों की मौत हुई थी, जबकि कई लोग घायल हुए थे. आरोप है कि दंगा तत्कालीन बीजेपी सांसद योगी आदित्यनाथ, विधायक राधा मोहन दास अग्रवाल और उस वक्त की मेयर अंजू चौधरी द्वारा रेलवे स्टेशन के पास भड़काऊ भाषण देने के बाद भड़का था.
विवाद मुहर्रम पर ताजिये के जुलूस के रास्तों को लेकर था. इस मामले में योगी आदित्यनाथ समेत बीजेपी के कई नेताओं के खिलाफ सीजेएम कोर्ट के आदेश पर एफआईआर दर्ज हुई थी. एफआईआर में कई दूसरी गंभीर धाराओं के साथ ही साम्प्रदायिक आधार पर समाज को बांटने की आईपीसी की धारा 153 A भी शामिल थी. क़ानून के मुताबिक़ 153 A के तहत दर्ज केस में केंद्र या राज्य सरकार की अनुमति के बाद ही अदालत में मुक़दमे की सुनवाई शुरू होती है.
योगी आदित्यनाथ समेत दूसरे बीजेपी नेताओं के खिलाफ एफआईआर दर्ज किये जाने का आदेश दिए जाने का केस गोरखपुर के पत्रकार परवेज परवाज और सामाजिक कार्यकर्ता असद हयात ने दाखिल किया था. केस दर्ज होने के बाद मामले की जांच सीबीसीआईडी को सौंपी गई थी. हालांकि एफआईआर दर्ज होने के आदेश और जांच पर आरोपी मेयर अंजू चौधरी ने सुप्रीम कोर्ट से काफी दिनों तक स्टे ले रखा था. 13 दिसंबर साल 2012 को सुप्रीम कोर्ट ने स्टे वापस ले लिया था. परवेज परवाज और असद हयात ने बाद में इस मामले की जांच सीबीसीआईडी के बजाय सीबीआई या दूसरी स्वतंत्र एजेंसी से कराए जाने की मांग को लेकर हाईकोर्ट में अर्जी दाखिल की थी.
अखिलेश सरकार ने मामले को लटकाते हुए योगी इस केस में योगी समेत बाकी आरोपियों के खिलाफ केस चलाए जाने की मंजूरी नहीं दी थी. इस बीच यूपी में सत्ता परिवर्तन हो गया और आरोपी योगी आदित्यनाथ सूबे के सीएम बन गए.
गृह मंत्रालय भी उन्ही के पास है. इस पर याचिकाकर्ताओं की तरफ से कहा गया कि आरोपी जब खुद ही सूबे के मुखिया है तो ऐसे में राज्य सरकार मुकदमा चलाने की मंजूरी कैसे देगी.