नई दिल्ली (तेज समाचार डेस्क). जब कोई व्यक्ति न्याय की उम्मीद लेकर अदालत आता है और अगर उसे समय पर न्याय न मिले, तो क्या वह न्याय मांगने के लिए भगवान के पास जाएगा. पेंडिंग केसेस का राक्षस न्याय व्यवस्था में सबसे बड़ी बाधा है. इन केसेस को निपटाने के लिए लगनेवाला समय और पैसे की बर्बादी को रोकने के लिए सरकार भी बराबर की जिम्मेदार है. उसे यह जिम्मेदारी स्वीकार कर उपाय ढूंढने चाहिए. जनहित याचिकाएं यानी पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन-PIL की संख्या बाढ़ की तरह बढ़ती जा रही है, जो शीघ्र न्याय में रुकावट बन गई है. इन्हें निबटाने हेतु भी टाइम फ्रेम बनाया जाना चाहिए. कई बार PIL व्यवसायिक व राजनैतिक संकेतों या शॉर्ट कट से प्रसिद्धि पाने या अपने किसी एजेंडा के तहत् दाखिल की जाती हैं, जो उचित नहीं है. यह चेतावनी भरा स्पष्ट बयान सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने ‘टाइमली एंड एफेक्टिव जस्टिस’ विषयक व्याख्यान के दौरान दिया.
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया दीपक मिश्रा ने ‘समय पर तथा प्रभावी न्याय’ या ‘टाइमली एंड इफेक्टिव जस्टिस’ विषय पर अपने व्याख्यान में बेंजामिन फ्रैंकलिन के मशहूर उदाहरण (क्वोट) को अघृत किया कि किस तरह सिर्फ घोड़े की नाल की कील (हॉर्स शू नेल) नहीं होने से युद्ध नहीं लड़ा जा सका और साम्राज्य गंवा दिया गया. सुप्रीम कोर्ट के सभी मुख्य न्यायाधीशों ने न्यायपालिका के कैप्टन के रूप में तेजी से न्याय को हकीकत बनाने के लिए प्रयास किए हैं, लेकिन यह अभी भी वास्तविकाता से दूर है.
– थके हुए जज लड़ रहे लड़ाई
मुकदमों के तेजी से निपटारे को गड़बड़ा देने वाली व्यावहारिक कीलें (नेल्स) मशहूर व जानीपहचानी हैं. ये न्यायपालिका में सालों से लंबित नियुक्तियां, इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी तथा हर साल न्याय व्यवस्था में मुकदमों की बाढ़ हैं. पिछले दो दशकों के दौरान हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों तथा मुख्यमंत्रियों की सालाना बैठकों में ‘कील’ (नेल्स) को ठीक करने के लिए बहुत से कदमों पर चर्चा की गई. किन्हीं कारणों से कुछ कीलों को नहीं गाड़ा जा सका. लंबित मुकदमों के राक्षस ने मरने से इनकार कर दिया. थके हुए जज भयानक लड़ाई लड़ रहे हैं.
– 30 प्रतिशत से ज्यादा पद रिक्त
देश की त्रिस्तरीय न्याय व्यवस्था में जजों की रिक्तियां 30% से ज्यादा बनी हुई हैं. न्यायिक अधिकारियों की विशाल रिक्तियों पर टिप्पणी करते हुए देश के अगले चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा कि पीड़ादायक धीमी भर्ती प्रक्रिया को तेज किया जा सकता है. बशर्ते आपके पास सही जगहों पर सही व्यक्ति हों. उन्होंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि पुड्डुचेरी में सही व्यक्ति होने से अधीनस्थ न्यायालयों में जजों की भर्ती 99 दिनों में पूरी हो गई, जबकि दिल्ली में इस कार्य में 762 दिन तथा जम्मू-कश्मीर में 900 दिन लगे.
इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल ज्यूडिशियल एप्वाइंटमेंट्स कमीशन को खारिज करते हुए अक्टूबर 2015 में केंद्र से कहा था कि वह जजों की नियुक्ति के लिए मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर ( MOP) तैयार करे. इसके बाद करीब 3 साल बीत चुके हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस तथा 4 अन्य सीनियर जज एवं कानून मंत्री चेझ के क्लॉज तैयार के लिए सहमति नहीं बना सके, 6 अनुभवी और पेशेवर ‘ब्रेन्स’ इसमें विफल रहे. संभवत: MOP को तैयार करने जजों की नियुक्ति में हो रही देरी के चलते ही जस्टिस कुरियन जोसेफ को यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा कि संवैधानिक अदालतों तथा अधीनस्थ अदालतों के जजों के रिटायर होने की उम्र बढ़ाकर 70 वर्ष कर दी जानी चाहिए. इस आइडिया में दम तो है, लेकिन सामने मौजूद बड़े मुद्दे का यह समाधान नहीं है.
– गंगासफाई को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया
एनडीए सरकार का गंगा को साफ करने का बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया दावा भी ज्यादा कागजों में ही है. क्या कोर्ट के इस मामले में इतना समय एवं प्रयास बर्बाद करना चाहिए? यह सीधे तौर पर कार्यपालिका की जिम्मेदारी है, क्या कोर्ट ने कार्यपालिका को नींद से जगाया है तथा अधिकारियों को परिणाम हासिल करने के लिए व्यक्तिगत तौर पर जिम्मेदार नहीं ठहराया है. इसके बजाय कोर्ट लगातार आदेश जारी कर रहा है और केस से जुड़ा हुआ है. प्रक्रिया में ये लड़ाई बाहरी तौर पर प्रभावी है. सुप्रीम कोर्ट हाईकोर्टों को लगातार संकेत देता रहा है कि न्यापालिका, विधायिका तथा कार्यपालिका को विभाजित करने वाली संवैधानिक रेखा का उल्लंघन गलती नहीं है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि खाद्यान्न के अधिकार, स्वच्छ हवा के अधिकार के क्रियान्वयन तथा पिछड़े वर्गों के कानूनी व वैद्य बकाया को सुनिश्चित करने में सुप्रीम कोर्ट की पथ प्रदर्शक की भूमिका रही है, लेकिन PIL की बढ़ती संख्या और उनकी निरर्थकता से 2010 में सुप्रीम कोर्ट चिंतित हो गया था. तब बलवंत सिंह चौफाल केस में कोर्ट ने कहा था कि जनहित याचिका का दुरुपयोग न्यायिक प्रक्रिया के लिए गंभीर चिंता का विषय है. सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टों में मुकदमों की बाढ़ है तथा एरियर्स का बोझ और आ गया है. निरर्थक या प्रायोजित याचिकाएं देखने में जनहित की लगती है, लेकिन वे अदालतों को उनके समय व ध्यान से भटकाती हैं, जिस समय व ध्यान को उन्हें वास्तविक कारणों पर देना चाहिए.
– जनहित याचिकाओं के कारण निपटारे में देरी
एक बड़ी अव्यवस्थित बाधा जिसके कारण सुप्रीम कोर्ट में मुकदमों के निपटारे में देरी होती है, वह है जनहित याचिकाओं (PIL) के निपटारे का टाइम फ्रेम नहीं होना. कुछ PIL 30 सालों से ज्यादा समय से पड़े हुए हैं. इसका श्रेय सतत ‘परमादेश के सिद्धांत को जाता है, जो बंधुआ मुक्ति मोर्चा फैसले तथा विनीत नारायण फैसले से उभरकर आया. इस सिद्धांत के तहत PIL सुप्रीम कोर्ट में हमेशा जीवित रहती हैं, वह दशकों तक कोर्ट के अंदर और बाहर बड़ी मात्रा में ऊष्मा पैदा करती रहती है. इसके बावजूद अधिकांश PIL के मामलों में जमीनी स्तर पर समस्या का कोई निदान नहीं होता है. सुप्रीम कोर्ट ने एमसी मेहता द्वारा दायर गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की PIL को उत्साह से लिया तथा 12 जनवरी 1988 को अपना पहला फैसला दिया. इसके बाद दशकों तक कोर्ट ने गंगा एक्शन प्लान का क्रियान्वयन किया, लेकिन आज तक गंगा नदी के जल की गुणवत्ता में शायद ही कोई सुधार हुआ हो.
– नियुक्ति प्रक्रिया काफी लंबी
हाईकोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति प्रक्रिया निराशाजनक रूप से लंबी है, यह स्थिति सुप्रीम कोर्ट द्वारा बार-बार दिए गए फैसलों के बाद भी बनी हुई है. सुप्रीम कोर्ट ने कई बार कहा है कि किसी भी जज के रिटायर होने से 3 महीने पहले खाली जगह को भरने की प्रक्रिया शुरू की जाए.
– गंगा व यमुना सफाई के लिए प्रयास
गंगा सफाई का अनुभव यमुना नदी की सफाई के सुप्रीम कोर्ट के प्रयास के समान ही है. यमुना नदी की सफाई का कार्य वर्ष 2000 में शुरू हुआ और अब तक उसका कोई नतीजा नहीं निकला. इसी तरह नदियों को जोड़ने (2002 से 2012 तक सुप्रीम कोर्ट की निगरानी), ताजमहल के संरक्षण (1996 में शुरू हुआ तथा अब तक जारी) तथा अनधिकृत / गैरकानूनी कंस्ट्रक्शन के खिलाफ तोडू अभियान (डिमोलिशन ड्राइव) (2006 में शुरू हुआ और जारी है) भी गंगा सफाई के अनुभव से मिलते जुलते हैं. PIL के निबटारे में आने वाले लगातार परमादेश की अव्यवस्थित ‘कील’ (नेल) ने कानूनी लड़ाई की प्रणाली को अस्त-व्यस्त कर दिया है, ऐसा प्रतीत होता है. लंबित मुकदमों के राक्षस से लड़ने के लिए समय-समय पर देश के मुख्य न्यायाधीशों के मार्गदर्शन में ये आदेश आए.