जलगांव (विपुल पंजाबी ) – पूरे खानदेश में रथ निकालने की पुरातन परम्पराएँ मोजूद हैं । जलगाँव धुलिया नंदुरबार जिलों की विभिन्न तहसीलों यां गाँव में आज भी यह रथोत्सव परंपरा आस्था के साथ चलाई जा रही है । इनमे कही भगवान् बाला जी, कहीं भगवान् राम तो कहीं अन्य देवी देवताओं के समर्पण में रथ निकाले जाते हैं । जलगांव नगरी के ग्रामदेवता एवं वारकरी संप्रदाय की १४३ वर्षों की परंपरा माने जानेवाले रथोत्सव के अवसर पर दीपावली के बाद जलगांव शहर में प्रभू श्रीराम के रथ की बडी शोभायात्रा निकाली जाती है । जलगांव के इस पुरातन रथ उत्सव को देखने के लिए जिले के विभिन्न इलाकों के अलावा समीपवर्ती धुलिया, मलकापुर, ब-हाणपुर आदि जिलों से भी लोगों का आगमन होता है । रथोत्सव के अंतर्गत सुबह ४ बजे काकड आरती के साथ प्रभु श्रीराम की उत्सव मूर्ति का महा अभिषेक किया जाता है । इस दौरान ग्राम देवता माने जाने वाले राम मंदिर के विद्यमान गादीपति मंगेश महाराज जोशी द्वारा प्रथम गादीपति सद्गुरु अप्पा महाराज की समाधी स्थल पर जाकर प्रतिमा को माल्यार्पण व पूजन किया जाता है । गोपालपुरा स्थित बाबजी महाराज की समाधी पर भी पुष्पार्पण के उपरान्त ही रथोत्सव की पारंपारिक शुरुवात मानी जाती है। प्रभु श्री राम के महाअभिषेक के साथ महाआरती, भजन आदि होने के बाद अन्य अनुष्ठानों को पूरा करते हुए सुबह लगभग ११ बजे पुराने जलगांव परिसर में स्थित श्रीराम मंदिर संस्थान में वारकरी संप्रदाय के संत व अप्पामहाराज के पाचवे वंशज मंगेश महाराज जोशी द्वारा रथोत्सव की प्रक्रिया प्रारंभ रथ को शहर में घुमाने के लिये रवाना किया जाता है । इस दौरान मंगेश महाराज के हांथों श्री राम रथोत्सव को खीचनेवाले, सेवाधारी आदि का पारंपारिक तरिके से टोपी, तौलिया देकर सम्मान भी कियाजाता है । रथ पर गरुड, मारुती, अर्जुन व अश्व की दो मूर्तिया स्थापित करते हुये पुष्पों से सजा कर एक बडे यादगार रथोत्सव की शुरुवात की जाती है ।
पूजन आदि के बाद प्रारंभ किये गये रथ के आगे पारंपारिक वादययंत्र, आधुनिक संगीत यंत्र, सद्गुरु कुवर महाराज भजनी मंडल रावेर, वारकरी संप्रदाय भजनी मंडल बावडदा, श्री गुरुदत्त भजनी मंडल पाथरी, श्री राम भजनी मंडल बुलढाणा, श्रीमती मंडाबाई भजनी मंडल, श्री विठ्ठल भजनी मंडल आसोदा, श्री राम भजनी मंडल मेहरूण आदि के कार्यकर्ताओं द्वारा अपने-अपने स्वरलय में भजन प्रस्तुत किये जाते हैं । यह भजनमय वातावरण रथ की समाप्ती तक जारी रहता है। रथ के आगे बैलगाडी पर वारकरी संप्रदाय की छवी स्थापित कर निकाली जाती है । इस भव्य शोभायात्रा में श्रीसंत मुक्ताबाई की पादुकाओं से सुशोभित पालकी भी मौजुदरहती है । जिसके उपरांत फुलो से सजाया गया पुरातन परंपरा का रथ मौजुद रहता है ।
इस पारंपारिक रथ को श्रीराम मंदिर से निकालते हुए जलगाँव शहर के भोईटे गढी, कोल्हेवाडा, चौधरीवाडा, तेलीचौक, सुभाषचौक, पीपल्स बँक, शिवाजी रोड, घाणेकर चौक, गांधी मार्केट, श्री महालक्ष्मी मंदिर , अंबुराव कासार, श्री मरीमाता चौक, भीलपुरा मार्ग, बालाजी मंदिर होते हुए श्रीराम मंदिर संस्थान की और लाया जाता है । इस दौरान जगह-जगह पर पारंपारिक रांगोलिया बनाते हुये रथ का स्वागत किया जात है । रथ को आरती देते हुये पटाखों व आतिषबाजी से जल्लोष भी किया जाता है । जलगांव जिले में रथो की एक पारम्परिक परम्परा विश्वप्रसिद्ध जगन्नाथपुरी रथोत्सव के समान ही श्रद्धा का स्थान रखती है।
परंपराओं के आधार पर लोककथाओं के पात्र के रूप में भवानी देवी व भूर राक्षस के युद्ध संवाद को प्रस्तुत करने वाले स्वांग बडी संख्या में रथोत्सव में मौजूद रहते हैं । रथोत्सव के दौरान एक दिन पहले से कुल तीन दिन तक के लिये इन स्वांग धारी भवानी स्वरूप की बडी संख्या में प्रस्तुती रहती है। स्वांग की इस लोककला में सिर्फ पुरूष वर्ग अपनी मन्नत पुरी करने के लिए देवी मां भवानी का स्वांग यां स्वरूप लेकर अपने मुखमंडल पर सिंदूर लगाकर, दैत्य और मां भवानी के बीच होने वाले युद्ध का वर्णन करते है। इस लोककलात्मक नृत्य के दौरान डफ, संबल, ढोल, नगाडा आदि वाद्योंं के एक अनोखे ताल पर युद्ध नृत्य आरंभ करते है। जैसे जैसे वादयों का ताल अति शीध्रता से बजाया जाता है, वैसे ही देवी माँ के यह स्वांग संगीत के लय और ताल पर शरीर कि गतीविधीयां और भी तेज करते है। इस नृत्य को देखते समय दर्शकों के शरिर पर रोंगटे खडे हो जाते है। एक प्रचलित दंतकथा के अनुसार भगवान विष्णू को निद्रा अवस्था में देख भुर नामक राक्षस उन्हे मारने पहुँचा। किन्तू श्री विष्णू को इस स्थिती से उबारने के लिए आदि शक्ति ने स्वांग रचकर भुर दैत्य का वध किया था। उसी दंतकथा के आधार पर आज भी उसी स्वांग को रचकर स्थानीय कलाकार मन्नत मांगते है, ताकि वो भी श्री विष्णू को बचाने के पुण्य का आशिर्वाद प्राप्त कर सके। गौरतबल है कि इस सारे स्वांग उत्सव में मन्नत मानकर भिक्षा ग्रहण करने का कार्य सिर्फ पुरूष ही करते है। इस मन्नत के लिए पुरूष देवी मां भवानी जैसा पहनावा करतेह है।अपने सिर पर मयुर पंखो का अलग अलग प्रकारों का आकर्षक छत्र बनाकर पहनते है। बडी ही कार्यकुशलता से किया गया यह छत्र देखने में बडा ही सुंंदर लगता है। स्वांग अपने सिर पर यह छत्र पहनते से पुर्व बडी ही आत्मियता और भावपूर्ण श्रद्धा से इसकी पूजा अर्चना करते है। युद्ध के समय का माँ भवानी का रौद्ररूप दिखाने के लिए यह स्वांग अपने मुखमंडल पर सिंदुर लगाकर माँ भवानी का प्रतिकात्मक रौद्ररूप अपने इस नृत्य को माँ भवानी और राक्षस के बीच होने वाले युद्ध को नृत्यनाटिका के रूप में दिखाते है। इस नृत्यनाटिका के दौरान उन स्वांगो के पैरों मे बंधे घुंगरू की छनक वादकों के बजते हुए ताल पर स्वांगो को जोशपुर्ण प्रेरणा प्रदान करते है। इस नृत्यनाटिका में स्वांग माँ भवानी के हाथों मे विराजे हुए शस्त्रों का प्रतिकात्मक रूप से उपयोग करते है। और उनकी पुरातन कथाओं व मान्यताओं के आधार पर विषम संख्या ही होती है। अर्थात जो पुरूष यह स्वांग रचकर मन्नत मांगने का कार्य करता है वह एक, तीन, पांच, सात वर्ष के क्रम में ही भिक्षा मांगकर स्वांग रचते हुए अपनी श्रद्धा पूरी करता है। रामायण की एक कथा के अनुसार भगवान विष्णू के राम अवतार में मयुर ने उन्हे एक कार्य सम्पन्न करने में मदद की थी। इसी कारण वश मयुर व्दारा किये गये कार्य का कर्ज चुकाने के लिए अपने आठवें अवतार ,कृष्ण अवतार में मयुर पंख अपने सिर पर धारण करते हुए एक अलग अंदाज में श्री कृष्ण भगवान ने अजरामर कर दिया।
जलगाँव के रथोत्सव की ख़ास बात यह है की रथोत्सव के दौरान अप्पा महाराज द्वारा प्रारंभ की गई हिंदु-मुस्लिम एकात्मता का भी दर्शन भी देखने को मिलत है । भीलपुरा चौकपर स्थित मुस्लिम संत लाल शा बाबा की मजार पर श्री राम मंदिर संस्थान रथोत्सव समिती की ओर से पुष्पचादर भी चढाई जाती है । बताया जाता है कि, उस काल में अप्पा महाराज व एक मुस्लिम संत लाल शा बाबा के बीच प्रगाढ मित्रता थी। आज भी लगभग १४२ वर्षो के बाद जब गादी परम्परा का यह रथ जलगांव की भीलपुरा चौक में स्थित संत लाल शा बाबा की मजार के आगे से गुजरता है तो परम्परा अनुसार यह रथ व इसके रोजाना निकलने वाले वाहनों को कु छ देर के लिए इस स्थान पर मौन रूप में रोक दिया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि इस वक्त अप्पा महाराज व संत लाल शा बाबा के बीच एक संवाद होता है और इसी संवाद को दोनों धर्मो के लेाग हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रतिक मानते हुए आदरभाव से नमन करते है। जलगांव के पूर्व उपनगराध्यक्ष स्वर्गीय नियाज अली द्वारा वर्ष १९७० में इस पारंपारिक रथोत्सव का स्वागत करने की परंपरा निर्माण की गई थी। नियाज अली द्वारा सामाजिक एकता के रुप में स्वागत के साथ लाल शा बाबा की समाधी के सामने आनेवाले रथ को पूरी श्रध्दा के साथ अपने समर्थकों व मुस्लिम समाज के अनुयायियों के द्वारा खीचा जाता था। आज उनकी इस परंपरा को नियाज अली के पुत्र व सुन्नी मस्जिद के अध्यक्ष अयाज अली द्वारा उसी श्रध्दा के साथ चलाया जा रहा है।
इसी तरह से धुलिया जिले के शिरपुर में भी बालाजी रथोत्सव की मान्यता होती है । यहाँ बता दें की शिरपुर शहर में दो प्रख्यात बालाजी मंदिर मोजूद हैं । स्थानीय मराठी भाषा में इन्हें वरचे गांव व खालचे गाँव का बालाजी मंदिर कहा जाता है । किसी शहर में दो बालाजी रथोत्सव मन्ये जाने वाला शिरपर शायद एक मात्र गाँव होगा ।