नई दिल्ली (तेज समाचार प्रतिनिधि):सुप्रीम कोर्ट में तीन तलाक सेे संबंधित याचिकाओं की सुनवाई शुरू हो गई है. कोर्ट ने साफ कर दिया है कि वो सिर्फ तीन तलाक पर ही फैसला देगी, एक से अधिक शादियां पर नहीं. हालांकि कोर्ट ने ये जरूर कहा कि तीन तलाक पर सुनवाई के दौरान अगर जरूरत पड़ी तो निकाह हलाल पर भी चर्चा कर सकती है.मामले की सुनवाई पांच जजों की सदस्यता वाली संवैधानिक पीठ करेगी जिसकी अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) जेएस खेहर कर रहे हैैं. इस पीठ में सीजेआई खेहर के अलावा जस्टिस कुरियन जोसफ, आरएफ नरीमन, यूयू ललित और अब्दुल नजीर भी शामिल हैं.संवैधानिक पीठ जो तीन तलाक पर सुनवाई कर रही है इसमें शामिल पांचों जज सिख, ईसाई, पारसी, हिंदू और मुस्लिम समुदायों का प्रतिनिधित्व करते हैं.
यु हुयी मामले की शुरुआत
उत्तराखंड के काशीपुर की शायरा बानो ने पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दायर कर ट्रिपल तलाक और निकाह हलाला के चलन की संवैधानिकता को चुनौती दी थी। साथ ही, मुस्लिमों में प्रचलित बहुविवाह प्रथा को भी चुनौती दी। शायरा ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव के मुद्दे, एकतरफा तलाक और संविधान में गारंटी के बावजूद पहली शादी के रहते हुए शौहर के दूसरी शादी करने के मुद्दे पर विचार करने को कहा। अर्जी में कहा गया है कि तीन तलाक संविधान के अनुच्छेद 14 व 15 के तहत मिले मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। इसके बाद, एक के बाद एक कई अन्य याचिकाएं दायर की गईं। एक मामले में सुप्रीम कोर्ट की डबल बेंच ने भी खुद संज्ञान लेते हुए चीफ जस्टिस से आग्रह किया था कि वह स्पेशल बेंच का गठन करें, ताकि भेदभाव की शिकार मुस्लिम महिलाओं के मामलों को देखा जा सके। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के अटॉर्नी जनरल और नैशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी को जवाब दाखिल करने को कहा था।
ढूंढेगा इन सवालों के हल सुप्रीम कोर्ट
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से पूछा था कि क्या धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के तहत तलाक-ए-बिद्दत (एक बार में 3 तलाक कहना), हलाला और बहुविवाह की इजाजत दी जा सकती है ? समानता का अधिकार, गरिमा के साथ जीने का अधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में प्राथमिकता किसको दी जाए? क्या पर्सनल लॉ को संविधान के अनुच्छेद-13 के तहत कानून माना जाएगा या नहीं? क्या तलाक-ए-बिद्दत, निकाह हलाला और बहुविवाह उन अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत सही है, जिन पर भारत ने भी दस्तखत किए हैं? बता दें कि केंद्र सरकार के अलावा भी मामले से संबंधित कुछ पक्षों ने कोर्ट के सामने अपने सवाल रखे हैं, लेकिन ये सभी सवाल फिर से फ्रेम किए जाएंगे। अदालत वे सवाल खुद तय करेगी, जिस पर सुनवाई होगी। माना जा रहा है कि गुरुवार को होने वाली पहली सुनवाई में ये सवाल तय कर लिए जाएंगे।
केंद्र सरकार की राय
केंद्र सरकार ने अपने हलफनामे में कहा है कि ट्रिपल तलाक के प्रावधान को संविधान के तहत दिए गए समानता के अधिकार और भेदभाव के खिलाफ अधिकार की रोशनी में देखा जाना चाहिए। केंद्र ने कहा है कि लैंगिक समानता और महिलाओं के मान-सम्मान के साथ समझौता नहीं हो सकता। भारत जैसे सेक्युलर देश में महिलाओं को संविधान में जो अधिकार दिए गए हैं, उससे उन्हें वंचित नहीं किया जा सकता। मूल अधिकार के तहत संविधान के अनुच्छेद-14 में लैंगिक समानता की बात है। महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक तरीके से हशिए पर रखना संविधान के अनुच्छेद-15 के तहत गलत होगा। केंद्र का मानना है कि ट्रिपल तलाक और बहुविवाह धार्मिक स्वतंत्रता के तहत संरक्षित नहीं हैं।
समर्थन में क्या दलील
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा है कि ट्रिपल तलाक के खिलाफ दाखिल याचिकाएं खारिज की जानी चाहिए, क्योंकि इसमें जो सवाल उठाए गए हैं, वे न्यायिक समीक्षा के दायरे में नहीं आते। पर्सनल लॉ बोर्ड के मुताबिक, मुस्लिम पर्सनल लॉ को चुनौती नहीं दी जा सकती। पर्सनल लॉ को संविधान के अनुच्छेद-25, 26 और 29 के तहत संरक्षण मिला हुआ है। बोर्ड की तरफ से दाखिल हलफनामे में कहा गया है कि पर्सनल लॉ को सामाजिक बदलाव के नाम पर दोबारा नहीं लिखा जा सकता। बोर्ड का कहना है कि तलाक के मामले में पहले ही सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले आ चुके हैं।
हाई कोर्ट ने भी की है प्रतिकूल टिप्पणी
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 3 तलाक और फतवे को लेकर हाल ही में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की। तीन तलाक से जुड़े एक मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा कि पर्सनल लॉ के नाम पर मुस्लिम महिलाओं सहित किसी के भी मूल अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने कहा कि लिंग के आधार पर मूल अधिकारों और मानवाधिकारों का हनन नहीं किया जा सकता। हाई कोर्ट ने कहा कि मुस्लिम व्यक्ति इस तरीके से तलाक नहीं दे सकता, यह समानता के अधिकार के खिलाफ है। कोर्ट ने कहा कि पर्सनल लॉ सिर्फ संविधान के दायरे में लागू किए जा सकते हैं। ऐसा कोई फतवा मान्य नहीं है जो न्याय व्यवस्था के खिलाफ हो। कोई भी फतवा किसी के अधिकारों के विपरीत नहीं हो सकता।