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यात्रा संस्मरण – “इत दिया जले उत जिया…”

Tez Samachar by Tez Samachar
June 2, 2018
in Featured, विविधा
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यात्रा संस्मरण – “इत दिया जले उत जिया…”

गीतिका वेदिका , लेखिका, साहित्यकार व अभिनेत्री हैं ! वह विगत दिनों ओरछा में  हुए भारतीय फिल्म महोत्सव ओरछा 2018 की संयोजिका व उद्घोषिका भी थीं ! गीतिका वेदिका मुक्त लेखन के माध्यम से संस्मरण, समाज के अनछुए बिन्दुओं पर कलम का प्रहार करती हैं ! तेजसमाचार.कॉम के पाठकों के लिए उनका विविधा लेखन !! 

स्मृतियाँ स्वयं को इतना कुरेदें कि उनका साक्षात्कार स्वमेव ही पन्नों पर टंकित होने लगे तब उनका निजता में स्थान समझ लेना चाहिए।

स्मृतियाँ लिख के रखना भला किसे अच्छा लगता होगा? उन लेखकों को, जो प्रसिद्धि और यशोगान के लोलुप हैं? अथवा वे सम्वेदनशील लेखक जो विगत लिख के उसका आगत बदलना चाहते हैं? अथवा नवाचारों में आने वाले तथाकथित विभिन्न विमर्शों में प्रतिभाग में अपना नाम सर्वमान्य कराने के लिये?

बहरहाल; सच जो भी हो, मैं विमर्श या बहस (अलग-अलग अर्थों में) नहीं कर सकती। मैं तो वह कविहृदय हूँ जो गीत रचना चाहता है। ऐसा गीत रचना जो कि समाज में देखी-सीखी भावनाओं और मन की भावनाओं को स्थायी के साथ टाँका लगा के स्वरबद्व, लयबद्धता के साथ प्रवाह और गेयता के साथ पिरो कर गुनगुनाए जाते रहें…!

मैं प्रसन्न थी; दो वर्ष पूर्व सन २०१६ में प्रकाशित मेरा प्रथम काव्यसंग्रह “अधूरी देह” जो भारत का प्रथम किन्नर-गीत सँग्रह बना। “अधूरी देह” किन्नर समर्पित गीतों/नवगीतों का संग्रह, सरदार पटेल विवि आणंद, गुजरात में राष्ट्रीय सेमिनार में भारत की कुल आठ किन्नर-आधारित पुस्तकों में एकमात्र गीत की पुस्तक शामिल होने के गौरव से गौरवान्वित हो उठी थी।

मैं ललितपुर उत्तरप्रदेश के रेलवेस्टेशन से गन्तव्य आणंद की ओर जाने वाली लौहपथगामिनी साबरमती की यात्री थी। साबरमती शब्द से देश के दो बडे नाम जुड़े हैं। एक तो बापू दूसरे लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल, जिनके नाम के विश्वविद्यालय की मैं कल अतिथि व प्रमुख वक्ता होने जा रही थी। साबरमती नाम सुनने में जितना महान लगता है उतनी ही दुर्दशा रेल की उस बोगी की थी, जिसकी यात्रा की साक्षी मैं हो रही थी। बाथरूम में पानी नहीं था। जहाँ-तहाँ गंदगी थी। कचरे को कचरा-पेटी में विसर्जित न करके जो भी यात्री जहाँ था वहीं सरका दे रहा था। स्यात ये जन निम्न-मध्यमवर्गीयजन थे। क्योंकि मुझे लगता है कि भारत में जितना जागरूक वर्ग मध्यमवर्ग माना जाता है उतना न तो उच्चवर्ग न ही निम्न। बाकी अपने-अपने पैरोकार तो अपनों के ही पक्ष में कहेंगे ही, ख़ैर…!

सहनशक्ति भर हर भारतीय सहता ही है, सो यह सहिष्णुता की परंपरा मैनें भी निभाई, किन्तु जब सहन करना सीमा से परे हो गया तब मैनें ट्वीटर पर शिकायतनामा दर्ज़ किया। ट्वीटर सोशल मीडिया की एक त्वरित एक्शन लेने वाली एक ऐसी क्रांतिकारी पहल है जो हमारी पीढ़ी के सामने ही बदलाव के हैरतीकरण से सामान्यीकरण तक की शानदार व सफल यात्रा कर चुकी है। ट्विटर के समकालीन अंतर्जाल पर नवाचारों की श्रंखला भी है जिसने मन की बात को साझा करने के लिए आभासी रूप में मित्र और अनुसरणकर्ता दिए हैं। जिन के अपने-अपने लाभ-हानि और तमाम वैचारिक पहलुओं पर चर्चा फिर कभी होगी…!

बहरहाल, ट्विटर पर रेलवे की शिकायती अर्ज़ी को तुरंत संज्ञान में लिया गया। पिछले स्टेशन उज्जैन पर की गई आपत्ति का रतलाम जंक्शन पर निवारण किया गया। जिसमें विभिन्न चरणों की प्रक्रिया के पश्चात सम्बंधित ऑफिसर मेरी बोगी में आये। मैं अपरबर्थ में थी। बड़े ही सम्मान से उन्होंने मुझे सम्बोधित करते हुए मेरे सामने बाथरूम की सफाई, बोगी का कचरा-निस्तारण, पानी आदि समस्याएं निपटाईं। मैनें प्रतिवेदन में ‘रेलवे-सेवाओं पर विश्वास बढ़ा’ दर्ज़ किया और आगे की सुखद यात्रा के लिए अपनी सीट पर चली गयी। मैं ब्रह्ममुहूर्त में जागी हुई थी, मुझे अध्ययन भी करना था। और अगले ब्रह्ममुहूर्त ढाई बजे ‘गन्तव्य-पहुंच’ निर्धारित हुआ। जब तक आराम और अध्ययन ही मेरी यात्रा के समय-मापक थे। मैं अपनी सीट पर जा कर बिखरे दस्तावेज़ समेटने लगी तथा शेष कार्य करने लगी। थोड़ी ही देर में नीचे वाली सीटों से आवाजें आने लगीं। जिनमें कमोबेश मेरा ही ज़िक्र था।

महिलाएँ मेरी शिक़ायत को मेरा उथलापन, मेरी उग्रता और नासमझी समझ रहीं थीं-

“आजकल की लड़कियों में बिल्कुल सहनशक्ति नहीं रही।”

-“और नहीं तो क्या? अरे! कुछ घण्टों की यात्रा, और इसने गंदगी की शिकायत कर दी।”

-“कर्मचारियों को परेशान कर दिया। बिचारे दिल्ली से चले आये।”

-“सब सिस्टम इस मूए फोन ने खराब किया है। जब से ये इस पीढ़ी के हाथ आया है ना, कभी इसकी शिक़ायत कभी उसकी शिक़ायत।”

-“अरे बेटियाँ तो बेटियाँ बहुएँ भी खूब बोलने लगीं हैं। इनको भी मायका चाहिये ससुराल में।” और भी बहुत कुछ… मुझे इनकी कुनूर-मुनुर सुन के कभी तरस आता तो कभी हँसी किंतु क्रोध नहीं आया। यही सन्तोष की बात थी कि ये महिलाएँ अपनी बात अभिव्यक्त करके मुझ तक अप्रत्यक्ष रूप से पहुँचा तो रही हैं। शाम लगभग समाप्त हो चुकी थी। मैं भोजनादि से फुर्सत हो कर उनींदी हो रही थी। महिलाओं की चर्चाएँ भी मुझ से हटकर अपनी अपनी बहुओं की आदतों व शौक़ के इर्दगिर्द होने लगी।

यात्रा आधी से अधिक तय हो चुकी थी। मैं अधनींदी सी उठी तो देखा कि गाड़ी गोधराकांड की भूमि पर खड़ी है। अगला दिन आ चुका था। तारीख़ बदले हुए पन्द्रह मिनिट हो चुके थे। मेरी ‘गन्तव्य-पहुंच’ ढाई बजे निर्धारित थी। अफ़रातफ़री देख ज्ञात हुआ कि ट्रेन कुछ कारणों से विलम्बित हो जाने के कारण सुबह छह बजे आणंद पहुंचेगी। मैंने ट्रेन का लाइव स्टेटस देखा। वाकई ट्रेन विलम्बित हो चुकी थी। नयी तकनीकों के ईजाद होने से आगामी समयसारणी ज्ञात हो जाने से व्यर्थ की अफ़रातफ़री से बच जाना भी कितना सुखद होता है? अपनी ट्रेन की सटीक स्थिति कि इस समय ट्रेन कहाँ खड़ी है? किन दो स्टेशनों के बीच है? यह सब पूछने के लिए न किसी टीटी से पूछने की जरूरत रह् गयी थी न खिड़की से झाँक के बाहर के लोगों अथवा कुली आदि से पूछने की जरूरत। जीपीएस ट्रैकर और नेविगेशन सिस्टम ने यह जानकारी कितनी आसान कर दी है? यह सब तो वाकई सकारात्मक परिणाम थे जो एकमात्र हमारी पीढ़ी के सामने हुए हैं। अलबत्ता कई बार यह बात मुझे चिंतित भी कर जाती है कि इस तकनीकी के अति-नवीनीकरण ने हमारा आम बोलचाल भी बन्द करवा कर हमें नितांत अंतर्मुखी बना दिया। हम अपने-अपने चलभाष को स्क्रॉल करते हुए स्वयं में इतने सिमट गये कि आसपास की दुनिया हमें नज़र ही नहीं आती। यहाँ तक कि पहले हम रास्ता पूछने के लिये राहगीरों से नमस्ते, प्रणाम, राम-राम करके बड़े ही आत्मीयता से ‘यह पथ किस ओर जाता है भाई जी/ काका जी?” पूछ लिया करते थे, वह सब कुछ लगता है अनन्त में विलीन हो गया कभी नहीं लौटने के लिए।

क्या ऐसे मशीनी निर्भरताओं पर एक दिन हमारी सम्वेदनाएँ भी विलीन हो जाएंगी? तब कौन मेरे गीत गायेगा? क्या मैं उस आगम-पथरीले-युग की स्वयं में खोई हुई पीढ़ी के हेतु अपनी सम्वेदनाएँ गीतरूप में ढाल रही हूँ? जहाँ आँसू नहीं, आह नहीं ना ही भावविचार, होंगे तो मात्र प्रश्न और उनका उत्तर देती मशीनें…!”

-“चल दी भैया गाड़ी चल दी! चलो बढ़िया”

-“भैया फरवरी में भी कितनी गर्मी हो जाती है चलती गाड़ी रुक जाए तो!”

…शोर मुझे मेरे कल्पनालोक से धरातल पर धड़क-धड़क चल रही ट्रेन में उतार लाया। ट्रेन धीरे-धीरे गति पकड़ने लगी थी। नयी तारीख़ के ढाई बजे चुके थे। यह वही समय था जबकि मुझे गन्तव्य पर पहुंच जाना चाहिए था। मेरे मेजबान की ओर से मेरी गाड़ी विलम्बित होने और सुबह छह बजे मुझे निश्चिंत हो कर स्टेशन पर मिल जाने का सन्देश आ चुका था। किन्तु अब नींद नहीं थी। मैं कूपे में अपरबर्थ पर लेटी रही। सामने ‘साइड सीट’ पर एक जोड़ा अपने तीन वर्ष के बच्चे के साथ बैठा खेल कर रहा था। मेरे बगल वाले कूपे में समांतर वाली सीट पर एक माता अपने तक़रीबन आठ मास के शिशु को स्तनपान कराते हुए बड़े मोहक रूप से अपने सामने की सीट पर लेटे हुए व्यक्ति को देख रही थी, वही जो मेरे समांतर सीट पर अधलेटा था, जो कदाचित उसका पति और उस शिशु का पिता हो; मैं आत्ममुग्ध थी किस तरह से प्रेम प्रणय बन कर दैहिक मर्यादाएं पार कर सन्तति बन के जन्म लेता है और अपना एक अलग विश्व रचता है। जो कभी इस विश्व में साझा करता है और कभी अपने विश्व में ही अथाह अकल्पनीय सुखदाम रूप से जीता है।

इधर ‘साइड-सीट’ पर कागज की पुड़िया में से पिता एक निवाला बच्चे को देता, एक पत्नी को और एक स्वयं खाता। पत्नी अब तक नवेली दुल्हन सी शर्मा रही थी। जब पति निवाला उसके होंठ के पास ले जा कर शरारत से देर तक होंठ छूकर मुस्कुराता, पत्नी इतरा कर आँखें बड़ी कर भय जताती कि बच्चा देख न ले! जबकि उन्हें बाहर की दुनिया से कोई लेना-देना नहीं था। उन्हें प्रेम-प्रलाप में गये कुछ क्षण अधिक हो गए तो बच्चे ने माता में मग्न पिता को छोटी सी थपकी से मार दिया। अचानक उसकी माता ने भी अपने बच्चे का साथ देते हुए पति पर हल्की-हल्की थपकी दीं और हँसने लगी। प्रेमिल पति ने होशियारी से उसकी कलाई को पकड़ के चूम लिया। वह अचानक बाहरी दुनिया को देख कर भय और संकोच में आ गयी और बच्चे को गोदी में लेकर सामान्य होने का प्रयास करने लगी।

प्रेम सचमुच अद्भुत होता है, जो एक नीड़ होते हुए भी ब्रह्मांड हो जाता है और प्रेमी-जोड़े के साथ को शब्दातीत कर देता है।

मैं कल्पनालोक में प्रेमगीत के मुखड़ों-अंतरों के साथ बतिया रही थी। एक गीत इधर तो एक गीत इधर। शिशु की नवजात अवस्था से ही प्रतीत हो रहा था कि यह प्रेमीयुगल उस जोड़े की अपेक्षा नया है। अपने आँचल में आठ मास के शिशु को लिटाये उन्मुक्त स्तनपान करा रही अपने एक पैर से दूसरे पैर को सहला कर पायल से खेलती हुई नशीली मुस्कुराहट बिखेरते हुए कामेच्छा व्यक्त कर रही थी। निःसन्देह वह अधलेटा व्यक्ति जिसकी पीठ मेरे ओर थी, जिस कारण मैं उसके हावभाव देखने में असमर्थ थी, इस कारण समुचित प्रतिक्रिया के अभाव में मेरे एक गीत का स्थायी के बाद एक ही मुखड़ा रचा रह गया। दूध पीते हुए शिशु सो चुका था। स्त्री ने अचानक आँचल हटा दिया। मातृत्व को थपकी देकर सुलाकर कामेच्छा की हिलोर को जगाने लगी। साड़ी पैर से उठ के घुटनों तक आ गयी थी। सामने वाला व्यक्ति अपने माथे पर छलछलाये पसीने को पौंछने लगा। अचानक शिशु रोने लगा। स्त्री ने यदि उत्तेजना में उसे थामा नहीं होता तो सम्भवतः शिशु नीचे ही गिर जाता। स्त्री को सहसा अपने उघड़े वस्त्र और अधखुले अंगों का होश आया। उसने आनन-फानन अपने वस्त्र ठीक कर उघड़े शरीर को ढँका। ठीक उसी समय उसके भी समांतर वाली सीट (अगले कूपे की) से एक आदमी उठा और बच्चे के रोने का कारण पूछने लगा- “राजा बेटा क्यों रो रहा है? अम्मा के पास नहीं रहना है तो आजा बापू के पास आजा… ला दे इसे मुझे दे दे! और तू भी थोड़ा सा आराम कर ले…!”

और कहर-कहर के रोता हुआ बच्चा हाथों-हाथ इस सीट से उस सीट माता के आँचल से अपने पिता की छाया में जाकर पुनः गहरी नींद सो गया।

          – गीतिका वेदिका ( 9826079324 )

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