महिला शिक्षण को प्रारंभ कर पहले महिला विश्वविद्यालय की स्थापना करने वाले भारतरत्न महर्षी धोंडो केशव कर्वे की आज 159 वीं जयंती है. महिला मूल्यों को स्थापित करने वाले महर्षी धोंडो केशव कर्वे ने जो सामाजिक चेतना के कार्य किये उन्हें स्मरण करते हुए उनका अनुसरण करना ही उनके प्रति सच्ची आस्था होगी. विधवा विवाह का आदर्श स्थापित कर महर्षी कर्वे ने समाज में फैली कुरीतियों को ख़त्म करने का सकारात्मक प्रयास किया. यह सब उन्होंने तब किया जब समाज में कुरीतियों का कोढ़ व्याप्त था. मानवता पर समाजवाद हावी था. इन सबके लिए उनके 104 वर्ष आयू के भी कम पड गए. वर्ष 1858 में 18 अप्रैल को रत्नागिरी जिले के खेड तहसील के शेरावाली गाँव में एम् निम्न वर्गीय परिवार में हुआ था. महर्षी कर्वे ने प्राम्भिक शिक्षण के लिए दूर गाँव तक पैदल मशक्कत करते हुए अपना बचपन पार किया. वर्ष 1881 में मैट्रिक परीक्षा पूर्ण करने के बाद वह मुंबई के एल्फिन्स्टन कॉलेज में पढने आ गए. जहाँ पर उन्होंने गणित में स्नातक होते हुए अपने जीवन की शुरुवात की. मात्र चौदह वर्ष की आयू में ही महर्षी कर्वे का विवाह आठ वर्ष की राधा बाई के साथ कर दिया गया. महर्षी कर्वे को स्नेह व आदर के साथ अण्णासाहेब पुकारा जाता था. वर्ष 1891में राधाबाई की मृत्यू हो गई, इसी दौरान अण्णासाहेब ने पूना के फर्ग्युसन कॉलेज में गणित पढ़ाना प्रारंभ कर दिया . उन दिनों लोकमान्य टिलक फर्ग्युसन महाविद्यालय में गणित पढाया करते थे, किन्तु राजनेतिक व्यस्तता के कारण लोकमान्य टिलक अध्यापन के लिए अधिक समय नहीं दे पाते थे. जिसके कारण गणित विभाग के प्रमुख गोपाल कृष्ण गोखले ने महर्षी कर्वे को गणित अध्यापन के लिए नियुक किया. यहाँ पर महर्षी कर्वे ने वर्ष 1914 तक अध्यापन कार्य किया. इस बीच सामाजिक कुरीतियों से रोजाना हो रहे साक्षात्कार के चलते अण्णासाहेब ने अपने दायित्व के निर्वाह का संकल्प लिया और वर्ष 1907 में उन्होंने पूना के निकट हिन्ग्न्या गाँव की एक झोपडी में लड़कियों के लिए एक पाठशाला प्रारभ की.
जब अण्णासाहेब 45 वर्ष के थे उस समय 27 वर्ष की आयू में ही उनकी पत्नी राधाबाई का निधन हुआ था. उछोटी उम्र में लड़कियों के विवाह होने पर यदि पति की मृत्यू होती थी तो लड़की को विधवा जीवन यापन करना पड़ता था. जबकि पत्नी की मृत्यू के बाद प्रौढ पुरुष को कम उम्र की लड़की के साथ दुबारा विवाह करने की कुरीति मोजूद थी. इसी प्रथा का विरोध करते हुए अण्णासाहेब ने पंडिता रमाबाई के शारदा सदन में पढने वाली गोदुबाई विधवा लड़की के साथ विवाह किया. अण्णासाहेब का यह निर्णय समाज को मंजूर नहीं था. जब वह अपने पैत्रिक गाँव मुरुड लौटे तो उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया. किन्तु अण्णासाहेब ने हार नहीं मानी, उन्हें अपनी पत्नी गोदुबाई का पूरा समर्थन प्राप्त हुआ. गोदुबाई आगे चलकर आनंदी कर्वे के रूप में प्रख्यात हुईं. अपने बहिष्कार को अनुभव मानते हुए अण्णासाहेब ने 21 मई 1894 को पुनर्विवाहितों का एक पारिवारिक सम्मलेन आयोजित किया. यही पर लोगों से मिले प्रतिसाद के चलते अण्णासाहेब ने “विधवा विवाह प्रतिबंध निवारक” मंडल की स्थापना की.
विधवा-विवाह का विरोध करने वाली ताकतों पर लगाम कसने के लिए महर्षी कर्वे ने सतत कार्य ज़ारी रखा और वर्ष 1896 में उन्होंने 6 विधवा महिलाओं के साथ मिलकर ‘अनाथ बालिकाश्रम‘ की स्थापना की. रावबहादूर गणेश गोविंद गोखले ने इस प्रभावी कार्य के लिए हिंगने गाँव में 6 एकड़ ज़मीं व 750 रूपए संस्था निर्माण के लिए दिए. इन सब प्रयासों में झोपडी में प्रारंभ की गई पाठशाला एक बड़ा स्वरुप लेते हुए स्त्रीशिक्षण संस्था के रूप में निर्मित हुई. वर्ष 1907 में हिंगने गाँव ( विद्यमान में कर्वे नगर ) महिला विद्यालय की स्थापना हुई. अण्णासाहेब की विधवा रिश्तेदार पार्वतीबाई आठवले इस विद्यालय की पहली छात्रा थीं. विधवा आश्रम व विद्यालय के लिए लगने वाले मनुष्य बल प्रशिक्षण के लिए वर्ष 1910 में निष्काम कर्म मठ की स्थापना की. इन सभी सामाजिक कार्यों को एकत्रित करते हुए अण्णासाहेब ने ‘हिंगणे स्त्री शिक्षण संस्था’ और बाद में `महर्षी कर्वे स्त्री शिक्षण संस्था’ नामकरण किया. वर्ष 1996 में `महर्षी कर्वे स्त्री शिक्षण संस्था’ को 100 वर्ष पूरे हो गए. पैसे के अभाव में संस्था चलाने के लिए बहुत वर्ष तक अण्णासाहेब को हिंगने गाँव से फर्ग्युसन कॉलेज तक पैदल चलना पड़ा, इतना ही नहीं संस्था के लिए सहयोग राशि मांगने पर भी उनको अनेकों बार अपमानित होना पडा. लेकिन महर्षी कर्वे ने अपनी जिद्द नहीं छोड़ी. जापान के महिला विश्वविद्यालय में जाने के बाद महर्षी कर्वे ने पूना में पहली महिला विश्विद्यालय की स्थापना की. बाद में विठ्ठलदास ठाकरसी ने विश्वविद्यालय के लिए 15 लाख रूपए की सहायता दी. इस सहायता के एवज़ में विश्वविद्यालय का श्रीमती नाथीबाई दामोदर ठाकरसी महिला विद्यापीठ’ (एसएनडीटी) कर दिया गया. अनेकों विश्विद्यालयों ने महर्षी कर्वे को डी. लिट् की उपाधि दी . बर्लिन में अल्बर्ट आइनस्टाइन के साथ मुलाकात कर अनुभव लिए. वर्ष 1958 में महर्षी कर्वे को देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा गया. पूना में ही 9 नवम्बर 1962 में 104 वर्ष की आयू में महर्षी कर्वे का निधन हो गया.