राजनेता कहे जानेवालों ने प्रजातंत्र की परिभाषा की बदल दी है, जो कि अपनों ने बनाई, अपने लिए, अपनों के लिए, अपनों ने बनाई हुई सरकार. अर्थात सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय. किन्तु नीतियां केवल अपने एवं स्वजनों के लिए ही बनाई जाती रही है अब तक.
आज तक जितनी भी सरकारे बनी, उन सभी के समय काल में 40 प्रतिशत वरिष्ठ नागरिक रहे हैं, जिनके प्रयास, कार्य कुशलता और अनुभवों से ही आज तक वे जीवित है. आज के समय में वरिष्ठ नागरिकों की संख्या करीब 45 करोड़ है. जिसमें से 32 से 34 करोड़ सरकारी एवं गैर सरकारी पेन्शनधारी है, जो आराम से अपना जीवन यापन कर रहे हैं. किन्तु बचे हुए 11 से 13 करोड़, जिन्होंने स्वरोजगार अपनाकर अपने समय में देश के विकास में सभी प्रकार के टैक्स चुका कर अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है. राष्ट्र की अनुपम संपत्ति होने के बावजूद सभी सुविधाओं से वंचित है, क्यों?
राष्ट्र वृक्ष की भांति है, जिसकी जड़ें है वरिष्ठ नागरिक और युवा वृक्ष की डालियां-पत्तियां हैं. युवा हमारे प्रॉडक्ट है. इसलिए उनकी बराबरी वरिष्ठों से करना सर्वथा अनुचित है. उन्हीं के कारण इस हरे-भरे मजबूत पेड़ में पतझड़ आता है. सरकार की नीतियों के कारण पर्याप्त जल, वायु एवं प्रकार से वंचित होने पर वही वृक्ष क्षीण हो जाता है.
जब कभी कोई गंभीर समस्या आती है, तो सरकार सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की मदद लेती है, सीमा पार समस्या पर भी सेवानिवृत्त अधिकारियों को आमंत्रित करती हैं. उस समय भी भेदभाव देखने को मिलता है. वहां भी उन्हीं के गुट के लोगों को ही बुलाया जाता है. आज जितने भी विधायक, सांसद, मंत्री, उपमंत्री सभी वरिष्ठ नागरिक ही है. जब इनकी कार्यकुशलता एवं अनुभवों को लाभ लिया जा सकता है, तो क्या जिन्होंने अपनी कुशलता से स्वरोजगार अपनाया एवं देश की तरक्की में भरपूर योगदान दिया, तो क्या वे लोग अब कुछ भी करने के काबिल नहीं हैं? इच्छुक एवं कार्यक्षमता रखनेवाले वरिष्ठ आज भी अपना कर्तव्य बहुत अच्छे से निभा सकते हैं, जरूरत है सिर्फ उनकी उपयोगिता को भुनाने की.
चुनाव के दौरान तो अखबारों में सुर्खियां रहती है कि 90 वर्ष के व्यक्ति को भी खटियां पर लाद कर मतदान कराने के लिए कार्यकर्ता पहुंचाते हैं. उनकी तस्वीरें भी छपती है. पश्चात उस बुजुर्ग वरिष्ठ मतदाता की पूछ परख नहीं होती. किस हाल में है, कैसे गुजारा करता है, चिकित्सा मिलती है या नहीं. एक बार चुनाव संपन्न हुए, तो नेता और उनके कार्यकर्ता ऐसे गायब हो जाते हैं, जैसे गधे के सिर से सिंग. कहां है वह मूलमंत्र सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय. अपितु वह तो स्वजन हिताय, स्वजन सुखाय के रावण में परिवर्तित विलिन हो चुका है. अनेकों बार यह देखने में आया है कि हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री जी 70 से अधिक देशों की यात्रा कर चुके हैं. क्या उन्होंने कभी चाय की चुस्की पर उन देशों की वरिष्ठ नागरिक व्यवस्था, जीविका, चिकित्सा, मानसिकता जैसे विषयों पर चर्चा करना नहीं समझा? इसका मतलब यही निकलता है कि यह कोई समस्या ही नहीं है, जिसका हल निकाले.
अभी कुछ ही महीनों पहले हमारे रेल मंत्री ने तो यह दर्शाया है कि वरिष्ठ कोई आयवाली संपत्ति नहीं है, जिसका किराया युवाओं के सिर पर है.
एक बार एक अखबार ने अच्छी पहल की थी, जिससे कार्य करने के इच्छुक वरिष्ठ नागरिकों को कुछ कार्यभार देकर उनकी मदद की जाए. अखबार का विज्ञापन देख कर मैंने भी अपना Resume भेजा था, किन्तु अफलदायी रहा. उसी पेपर में कभी भी यह नहीं छापा गया, कि कितनों को कैसे मदद पहुंचाई गई. क्या वे सभी Resume अयोग्य थे? या उनका चयन करनेवाले अयोग्य थे?
– क्या होना चाहिए?
जिनते भी वरिष्ठ नागरिक कार्य करने के इच्छुक हो, उनकी सूचि अखबारों द्वारा एकत्रित करने पर एक व्यावसायिक ट्रिब्युनल द्वारा Classification की जानी चाहिए. जैसे इंजीनियर्स, टीचर्स, फार्मासिस्ट, एडमिनिस्ट्रेटर्स, लॉयर्स, सोशल सर्विसेस, रिटायर्ड ऑफिसर्स इन वेरियस फिल्ड्स.
उन्हें उनके क्षेत्र में प्राइवेट कंपनियों में रोजगार मिले, जिससे उनकी तनख्वाह 15 से 25 हजार रुपए प्रतिमाह हो, उसका 50 प्रतिशत सरकार अनुदान के रूप में वहन करे, जिसकी जानकारी केन्द्रीय सरकार को हो और वह अनुदान उस संस्था को 2 से 3 माह में प्राप्त हो जाने से उस संस्था के सभी कार्य सुचारू रूप से हो. यह अनुदान किसी भी केन्द्रशासित अफसर के कारण देर में पहुंचाने पर सुरक्षितता खतरे में पड़ सकती है. ऐसी अवस्था में अफसरशाही लेट लतीफी पर सख्त से सख्त कार्यवाही होना अनिवार्य हो. तभी यह देश कुछ हद तक सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय तक पहुंच सकता है.
हर सामाजिक समस्या का समाधान है और वह समाज ही दिखा सकता है. बशर्ते सरकार इस विषय पर कदम उठाए. फिर देखिए समाज कुशल, तो देश सकुशल और शक्तिशाली होता है.
– रमणलाल
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