रविवार की सुबह एक विनोदप्रिय मित्र मिल गए। छूटते ही बोले, बता सकते हैं कि सन् 2018 को किस बात के लिए याद रखा जाएगा? सामान्य ज्ञान के मामले में उनके सामने जीरो न साबित हूॅं बस इसी से मैंने दो-चार प्रसंग, घटनाओं का उल्लेख कर दिया। वह बोले-नहीं जी, आप अखबार बगैरह नहीं पढ़ते क्या? अरे भाई सन् 2018 का भारतीय लोकतंत्र और राजनीति में बड़ा महत्व हो गया है। सन् 2018 को इस बात के लिए याद रखा जाना तय है कि इसी साल 20 जुलाई को भारतीय लोकतंत्र के मंदिर यानी लोकसभा में देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल के अध्यक्ष, सांसद राहुल गांधी अपनी सीट से उठ कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास गए और उनके गले पड़ गए(गले लग गए)। मेरे मित्र यहीं नहीं रुके। वह आगे बोले-राहुल गांधी इसके बाद सीना चौड़ा किए वापस लौटे और अपनी सीट पर बैठते ही बगल में बैठे सांसद की ओर देखते हुए आंख मारी। बताइए, सदन में कार्रवाई के दौरान प्रधानमंत्री से गले मिलना और लौट कर ऑंख मारना क्या अभूतपूर्व घटना नहीं हैं? मेरी चुप्पी देख वह आगे बोले, यह अलग बात है कि लोकसभाध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने तत्काल ही राहुल गांधी के व्यवहार पर अप्रसन्नता व्यक्त कर दी। लोकसभाध्यक्ष ने कहा कि सदन में जब वह बैठे हैं तो वह नरेंद्र मोदी नहीं देश के प्रधानमंत्री हैं। आपको (कांग्रेस) भले यह पसंद हो लेकिन मुझे नहीं। खासतौर से गले मिलने के बाद उन्होंने(राहुल गांधी) जो इशारा किया। सदन की मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए।
मोदी सरकार के विरूद्ध विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव, उस पर चर्चा, चर्चा के कुछ दृश्य और अविश्वास प्रस्ताव के गिरने जैसे विषयों पर दो दिनों के दौरान काफी कुछ कहा और लिखा जा चुका है। सत्तापक्ष और विपक्ष के नेताओं और प्रवक्ताओं ने टिप्पणियां की और उनके बयान आए। खबरिया टी.वी. चैनलों में लंबी बहस चलीं, उनमें भाग लेने वाले कुछ लोगों की बातें आधारहीन या कहें अपरिपक्वों जैसी रहीं। उस दिन राहुल गांधी के संसद में भाषण और भाषण के दौरान उनकी बॉडी लैंग्वेज की तारीफ हो रही थी। कुछ लोगों की नजर में सदन में चर्चा के दौरान राहुल का मोदी के पास जाना और उनसे गले मिलना हमारे संसदीय इतिहास में एक अभूतपूर्व उदाहरण है लेकिन उसके बाद राहुल की ऑंख जो गलती कर बैठी उसने सारे किए-कराए पर पानी फेर दिया। चर्चा में छा जाने की खुशफहमी और अंदर की खुशी को फूटकर सामने आने से रोक पाने मेें कांग्रेस अध्यक्ष की असमर्थता ने पांसा पलट दिया। उनकी एक ऑंख की बेसब्री ने निश्छल प्रेम का मुखौटा पलभर में ही उतार फेंका। यह कहने में संकोच नहीं है कि राहुल का उस दिन का भाषण उनके पिछले भाषणों से बेहतर था। भाषण के दौरान उनकी बॉडी लैंग्वेज भी ठीक-ठाक थी। लेकिन, भाषण के बाद उनका प्रधानमंत्री के पास जाना और उनसे गले मिलना संसद की मर्यादा के अनुकूल नहीं था। इसके लिए उनका नहीं बल्कि उनके उन पटकथा लेखकों का दोष मानेंं जिन्हें भरोसा था कि ऐसा करके कांग्रेस अध्यक्ष छा जाएंगे। वह यह भूल गए थे कि ऐसा व्यवहार संसद की मर्यादा के अनुकूल नहीं होता है। उस पर उनकी ऑंखों की छोटी सी मस्ती ने सब गुड़-गोबर कर दिया। और फिर इसके बाद क्या हुुआ? जवाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चिर-परिचित अंदाज में जो आक्रामकता दिखाई उसे टी.वी.स्क्रीन्स पर करोड़ों लोग ने देखा है। क्या प्रधानमंत्री के जवाब के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष के चेहरे के भाव उनकी मानसिक दशा का वर्णन स्वयं नहीं कर रहे थे? राहुल गांधी के भाषण में कुछ बातें संदर्भ और प्रमाण रहित थीें किंतु भाषण-शैली औसत बुद्धि इंसान को भरमा सकने में सक्षम थी। राहुल का पटकथा लेखक भी आम कांग्रेसी से कुछ अधिक चतुर समझ में आ रहा है। उसने सोचा होगा कि राहुल से मोदी को गले लगवा कर प्रेम और सद्भाव के सच्चे प्रतीक के रूप में उनकी छवि आम लोगों के हृदय में स्थापित कराई जा सकती है। न तो राहुल के भाषण लेखक और न ही पटकथा लेखक ने कल्पना की होगी कि उनका हीरो अभिनय में ऐसा डूबेेगा कि सुध-बुध ही खो बैठेगा। उसे फ्रेम के अंदर या बाहर का बोध ही नहीं रहेगा। यदि राहुल गांधी के व्यवहार को बचकाना निरूपित किया जा रहा है तो इसमें गलत क्या है? देशवासी राहुल की ऑंखों की चंचलता देख कर हैरान हंै। जिस व्यक्ति को कुछ लोग देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखते हैं, उसे कैमरों ने संसद में अंाख मारते पकड़ लिया। क्या आप वाकई इस उम्र में भी अपरिपक्व ही हैं? इतिहास में झांके, बाबर और अकबर दोनों ही किशोरावस्था में बादशाह बन गए थे। पृथ्वीराज चौहान और महारानी लक्ष्मीबाई ने कम उम्र ही शासन की जिम्मेदारी नहीं संभाल ली थी? इस जमाने में ही 22-24 साल के युवा प्रशासनिक सेवाओं में आ जाते हैं। वे कम उम्र में कलेक्टर बन कर जिलों का प्रशासन संभाल लेते हैं? आप में ऐसी परिपक्वता कब दिखाई देगी? एक बुजुर्ग कहते थे, हर इंसान के अंदर एक बच्चा हमेशा रहता है। इसीलिए कई बार बड़े-बूढ़ों को भी बचकानी बातें या व्यवहार करते देखा जाता है। हालांकि ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक नहीं होती क्योंकि अधिकांश लोग अपने अंदर के बच्चे को असमय बाहर आने की इजाजत नहीं देते हैं।
सहज ही मन में एक सवाल आया है। क्या राहुल गांधी ने उस दिन पहली बार ऑंख मारी थी या उन्हें ऑंख मारने की आदत लग गई है? मीडिया की फाइलें पलटें तो एक-दो ऐसी और फोटो मिल जाएंगी जिसमें किसी बात पर मुग्ध होकर वह एक ऑंख दबाए हुए हैं। कुछ लोगों को बात-बात पर ऑंख मारने की आदत होती है। कुछ लोग बिना किसी इरादे के ऑंख मार बैठते हैं तो कुछ इरादतन ऐसा करते हैं। इरादतन ऑंख मारने वाले या तो सामने बैठे किसी व्यक्ति विशेष को अन्य के सामने मूर्ख साबित करने के लिए ऐसा करते हैं या उसका मजाक उड़ाया जा रहा होता है। कुछ बोले बगैर अपनी बात पहुंंचाने के लिए ऑंंखों का उपयोग किया जाता है। आज के जमाने में फ्लर्ट करने के लिए आंख मारना आम हो गया है। लोगों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि दुनिया के हर कोने में आपको ऐसे लोग मिल जाएंगे जिन्हें ऑंख मारने की आदत है। इसमें हर उम्र के लोग हैं। वैसे बात-बात पर ऑंख मारने की आदत को अच्छा नहीं माना जाता है। खासकर कर बड़ी उम्र के लोगों, सार्वजनिक जीवन में सक्रिय हस्तियों और उच्च पदों पर बैठे लोगों में ऐसी किसी आदत की अपेक्षा नहीं की जाती है। इसे अगंभीर आचरण कहा जाता है। कुछ चिकित्सक मानते हैं कि ऑंख मारने की आदत की शुरूआत में ही यदि सतर्क को जाया जाए तो जीवन में हास्यास्पद स्थितियों से बचा जा सकता है। उनके अनुसार इसके लिए किशोरावस्था से स्वयं के आचरण में गंभीरता और अनुशासन पर जोर दिया जाना चाहिए। कहा जाता है कि आंखों का नमी कम होने पर ऑंख फडक़ती है और इसी से ऑंख मारने की आदत पड़ जाती है। सन् 2018 को इस बात के लिए भी याद किया जा सकता है कि इसी साल दक्षिण भारत की एक अभिनेत्री प्रिया प्रकाश की ऑंख मारती मुद्राओं के वीडियो ने यूट्यूब के माध्यम से खूब धूम मचाई थी। लाखों लोगों ने वह वीडियो देखा। उसे लाइक करने वालों की संख्या लाखों में बताई जा रही है। देखते ही देखते प्रिया प्रकाश दुनिभाभर में जाना-पहचाना नाम बन गया।
फर्क देखिए। एक युवती फिल्में कहानी की मांग पर ऑंख मारती है तो उसकी अदा लाखों दिलों पर छा जाती है। कारण यह कि फिल्म कल्पना पर आधारित होती हैं। यहां पात्र और परिस्थिति को देखा जाता है। लेकिन एक गंभीर विषय पर चर्चा के दौरान कोई जिम्मेदार व्यक्ति आंख मारे तो उसका मतलब कुछ और ही होगा। राहुल गांधी के संदर्भ में यही सवाल तो उठ रहा है। लोग जानना चाह रहे हैं कि अपने सहयोगी की ओर देख कर आपने जो ऑंख दबाई थी उसका अभिप्राय आखिर क्या था? शायद वह अपने सहयोगी से बोल रहे हों कि देखा मोदी को गले लगा कर कैसा छक्का जड़ा है। राजनीतिक विश£ेषकों का मानना है कि कोई सोच भी नहीं सकता कि अपने भाषण और मोदी से गले मिल कर राहुल गांधी ने जो माहौल खड़ा कर दिया था उसकी हवा इतनी जल्द वह खुद निकाल देंगे। संसद में ऐसे गम्भीर माहौल में उन्होंने ऑंख मार कर एक बड़ा राजनीतिक अवसर गॅंवाया है। प्रिया प्रकाश को ऑंख मारने के सकारात्मक परिणाम मिले थे। राहुल ने ऑंख क्या मारी, आलोचनाओं का अंबार लग गया। अभिनेता और नेता में यही तो अंतर होता। राजनीति में अभिनय अधिक समय तक नहीें टिक पाता। जरा सी चूक कलई खोल कर रख देती है।
अनिल बिहारी श्रीवास्तव
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