अनिल बिहारी श्रीवास्तव मूलतः जबलपुर मध्यप्रदेश के रहने वाले, इन दिनों विगत कई वर्षों से भोपाल में रह रहे हैं. प्रख्यात समाचार एजेंसी ई एम एस में स्थापना से लेकर वर्षों तक पत्रकारिता की धार तेज़ करते रहे. दैनिक भास्कर के औरंगाबाद, सतना संस्करण में सम्पादक रहे अनिल बिहारी श्रीवास्तव देश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में लेखन करते हुए http://www.hanumatjyotish.com वेब पोर्टल का संचालन भी करते हैं. अब से तेजसमाचार डॉट कोम के पाठकों के लिए अनिल बिहारी श्रीवास्तव का नियमित बेबाक लेखन..
बचपन में एक लघु कथा सुनी थी। दो दोस्तों की उस कहानी में एक पात्र धीर-गंभीर, योग्य और चतुर बताया गया था। दूसरा ईष्र्यालु, अल्प शिक्षित और मंदबुद्धि था। दूसरा पहले से हर बात में प्रतिस्पर्धा करता था। विचित्र बात यह रही कि दोनों की मृत्यु एक ही दिन हुई और दोनों को एक साथ यमराज के समक्ष पेश किया गया। दोनों के किन्हीं एक-एक पुण्य कर्म के लिए यमराज ने उनसे जानना चाहा कि उन्हें पुरस्कार में क्या चाहिए? ईष्र्यालु प्रवृत्ति के दूसरे मित्र ने सोचा कि कहीं पहला वाला कुछ अधिक न मांग ले अत: वह तपाक से बोल पड़ा, उसका मित्र जो मांगे उसका दोगुना मुझे दे दिया जाए। पहला वाला मुस्कराया उसने यमराज से पूरी विनम्रतापूर्वक निवेदन किया कि मेरी एक आंख फुड़वा दें। यमराज भी मुस्करा दिए। उन्होंने आदेश दिया कि पहले वाले कि एक आंख और दूसरे वाले की दोनों आंखें फोड़ दीं जाएं। लघुकथा का सार यही है ईष्र्या भरी प्रतिस्पर्धा से दूर रहने में ही भलाई है। अपनी योग्यता और मेहनत से ऊपर उठने का प्रयास करना चाहिए। ईष्र्या और जुगाड़ से आगे निकलने की कोशिश में नुकसान की आशंका होती है।
अब मुद्दे की बात पर आ जाना चाहिए। कर्नाटक में भाजपा को सरकार बनाने से रोकने में सफल हो जाने पर कांगे्रस फूली नहीं समा रही है। 19 मई को नई दिल्ली में प्रेस वालों को सम्बोधित करते समय कांग्रेस अध्यक्ष के चेहरे पर जो खुशी फूट रही थी उस पर किस समझदार व्यक्ति ने गौर नहीं किया होगा? कर्नाटक और दिल्ली में कांग्रेस कार्यकर्ता मिठाइयां बांटते देखे गए। आतिशबाजी की जा रही थी। सवाल किया जाना चाहिए कि यह उत्सव किस बात के लिए आयोजित किया जा रहा है। क्या कर्नाटक में कांग्रेस ने प्रचण्ड बहुमत हासिल कर सत्ता में वापसी की है? कर्नाटक में कांग्रेस ने जुगाड़ की राजनीति के बूते एक बार फिर सत्ता से चिपके रहने का प्रबंध किया है। वहां जनादेश किसी राजनीतिक दल के पक्ष में नहीं आया है। सच तो यह है कि कर्नाटक के मतदाताओं ने कांग्रेस को सिरे से खारिज किया है।
कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के कामकाज के तरीके और सियासी तिकड़मबाजी को लेकर मतदाताओं में नाराजगी थी। वोट शेयर बढऩे के नाम पर कांग्रेसी भले ही अपनी पीठ थपथपा रहे हों किन्तु इस हकीकत पर वे कैसे पर्दा डाल सकेंगे कि कर्नाटक में स्वयं सिद्धारमैया चुनावों में दुर्गति से बाल-बाल बचे हैं। चामुण्डेश्वरी सीट पर वह 36 हजार मतों से पटखनी खा गए तथा एक अन्य सीट पर वह लगभग 1600 वोटों से ही विजय प्राप्त कर सके। जीत का यह अंतर उन्हेंं सीना चौड़ा करके घूमने की इजाजत नहीं देता। बस, उनकी लाज बच गई। सिद्धारमैया और कांग्रेस के तमाम टोटके कर्नाटक के मतदाताओं को प्रभावित नहीं कर सके। कर्नाटक में कांग्रेस की ऐसी दशा के लिए सिद्धारमैया अकेले को क्यों कोसा जाए? इसके लिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी बराबर से जिम्मेदार हैं। चुनाव प्रचार अभियान के दौरान राहुल की बड़ी-बड़ी बातों, वादों और मोदी विरोधी प्रलाप से राज्य का मतदाता अप्रभावित सा रहा। कांग्रेस की 44 सीटें कम हो जाना साधारण बात नहीं है। हैरानी तो कांग्रेसियों की सोच और नजरिये पर हो रही है। राज्य में दूसरे नंबर की पार्टी बन जाने पर भी चिन्ता और शर्म की पतली सी लकीर तक उनके चेहरे पर नहीं दिख रही। ऐसा पहली बार नहीं देखा जा रहा है। आंकड़े बताते हैं कि 2013 के बाद से अब तक कांग्रेस सवा दो दर्जन चुनावों में पराजय का सामना कर चुकी है। राहुल गांधी के खाते में यह एक कीर्तिमान ही होगा। बहुत से लोगों ने ढाई दिन की उठा-पटक के दौरान एक बात पर गौर किया होगा। कर्नाटक में पूरे चुनाव परिणाम आने के बाद शुरू हुई जोड़तोड़ के उस दौर को याद करें। 104 सीटें जीत कर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए लिए कांगे्रस और जनता दल-सेकुलर के दिग्गज गुंताड़े में लगे थे। उस दौरान कांगे्रस अध्यक्ष राहुल गांधी की चुप्पी का राज क्या है? लगभग ढाई दिनों तक राहुल गांधी टीवी स्क्रीन पर दिखाई नहीं दिए। ट्विटर से भी वह दूर रहे। ऐसे वैराग्यभाव का कारण क्या था? विश्लेषक का मानना है कि कांग्रेस अध्यक्ष किस मुंह से मीडिया का सामना करते। कर्नाटक विधानसभा चुनावों के प्रचार अभियान के दौरान राहुल और सिद्धारमैया दोनों ही भाजपा और जनता दल-सेकुलर पर बराबरी से हमले कर रहे थे। ये दोनों महानुभाव जनतादल-सेकुलर पर भाजपा की बी टीम बन जाने का आरोप लगा रहे थे।
कांग्रेस और जनतादल -सेकुलर के नेता एक-दूसरे को पानी पी-पी कर कोस रहे थे। कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री पद का आफर मिलते ही सारा कहा-सुना माफ हो गया। यही है हमारे राजनीतिक दलों की नैतिकता और लोकतंत्र के प्रति उनकी गहरी निष्ठा? राहुल गांधी के ढाई दिनों के उस मौन की वजह उनके अंदर की झिझक और असमंजस रहा होगा। निश्चित रूप से वह कांग्रेस और जनतादल-सेकुलर की चटमंगनी पट बेमेल ब्याह से उपजे अप्रिय सवालों से बच रहे होंगे। कांगे्रस में अनेक लोगों का मानना है कि प्रचार अभियान के दौरान राहुल गांधी को जनता दल-सेकुलर पर प्रत्यक्ष हमले से बचना था। यह काम उनके सिपहसालारों पर छोड़ा जाना था।
विश्वास मत के पहले ही मुख्यमंत्री पद से येदिदुरप्पा के इस्तीफे से कांग्रेस और जनतादल-सेकुलर का खुश होना समझ में आता है। लेकिन, उनके साथ तृणमूल कांगे्रस, तेलुगू देशम पार्टी, बसपा, सपा और कम्युनिस्टों के सामूहिक लोकतंत्र विजय-गान से साबित हो गया कि इनमें भाजपा को लेकर कितना खैाफ है। विभिन्न कोनों में सुसुप्तावस्था में पड़े सेकुलरिस्ट और डिजायनर पत्रकार चैतन्य हो उठे हैं। इन स्वयंभू विद्वानों से सवाल किया जाना चाहिए कि यहां लोकतंत्र की हार या जीत जैसी कोई बात कहां थी। खेल तो सत्ता के लिए संख्या बल के प्रबंध का था। हमारे लोकतंत्र में संख्याबल के आगे नैतिक बल पूर्व में भी अनेक अवसरों पर पराजित होता दिखाई दे चुका है। कर्नाटक में भाजपा को सत्ता में आने से रोक दिए जाने को लोकतंत्र की विजय निरूपित करने वाले अल्पबुद्धि विश£ेषकों से सवाल है कि अगर कांग्रेस और जनतादल-सेकुलर की लोकतंत्र के प्रति इतनी गहरी आस्था रही है तो उन्होंने अपने विधायकों को क्यों होटलों और रिसार्टों में बंधक सा बनाए रखा। उनके मोबाइल फोन क्यों छीन लिए गए थे। लोकतंत्र और नैतिकता की दुहाई देने वाली कांग्रेस ने विधायकों को स्वविवेक से फैसला लेने की छूट क्यों नही दी।
येदियुरप्पा के इस्तीफे के कुछ पल बाद ही राहुल गांधी प्रेस के समझ प्रकट हुए। वहां, उन्होंने जो कहा उसका विश£ेषण किया जाना चाहिए। कांगे्रस अध्यक्ष ने कहा कि कांग्रेस और विपक्षी दल अब भविष्य में, सम्भवत: 2019 के लोकसभा चुनावों में, भाजपा को रोकने और सत्ता से बाहर करने में सफल होंगे। राहुल के इस कथन से क्या निष्कर्ष निकाला जाए? क्या उन्होंने मान लिया है कि भाजपा का अकेले सामना करने की कुव्वत कांग्रेस में नहीं है? क्या नरेन्द्र मोदी के कद के सामने स्वयं के बौना होने की ग्रंथि उनमें विकसित हो गई है? और क्या वह क्षेत्रीय दलों के आगे घ़ुटने टेकने के लिए स्वयं को मानसिक रूप से तैयार करने लगे हैं? इन सवालों के जवाब यदि हां में हैं तब अगला प्रधानमंत्री बनने के उनके सपने का क्या होगा? जाहिर है कि कई राज्यों में मोदी और भाजपा का सामना करने के लिए राहुल गांधी को क्षेत्रीय क्षत्रपों से उन्हीं की शर्तों पर समझौता करना होगा। ऐसा होने पर संभव है कि उनकी हैसियत कथित गठबंधन में बी टीम के अगुआ से अधिक नहीं होगी। यह भी एक बड़ा सवाल है कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस क्या करेगी?
तृणमूल कांग्रेस की अगुआ और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह राहुल गांधी के नेतृत्व को स्वीकार कर लेंगी। केरल में वामपंथियों से कांग्रेस की सीधी टक्कर दशकों से चली आ रही है। उड़ीसा में बीजू जनता दल के साथ कांगे्रस के तालमेल के आसार नहीं हैं। महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार चुनावी राजनीति में शायद ही राहुल का साथ दें। वहां शिवसेना अगर कांगे्रस का साथ देती है तो वह अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारने वाली हरकत कर बैठेगी। दिल्ली में क्या राहुल गांधी आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन का स्वप्र देखने लगे हैं? उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा कांगे्रस के साथ सहयोग कर लें तब भी वे ऐसे किसी तालमेल में कांगे्रस को तीसरे या चौथे क्रम में रखेंगी। अब रही बात बिहार की, वहां लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल के साथ कांगे्रस की दोस्ती है लेकिन लालू को भ्रष्टाचार के मामलों में हुई सजा और लालू कुनबे पर लग रहे आरोपों को राज्य का मतदाता भूला नहीं है। बिहार में यह आम धारणा महसूस की जाती रही है कि राजद शासन काल में बिहार में पूरी व्यवस्था चौपट हो गई थी। इन तमाम तथ्यों पर विचार करने पर यही निचोड़ सामने आता है कि कांगे्रस भले ही सपने बड़े-बड़े देखती रहे लेकिन उसके लिए राह आसान नहीं होगी। मैदानी स्तर पर कांग्रेस को मजबूत करने पर ही राहुल भाजपा को कड़ी चुनौती देने के बारे में सोच सकते हैं। मौजूदा हालातों में तो कांगे्रस लघुकथा के ईष्र्यालु मित्र की तरह अपनी दोनों आंखें फुड़वाने पर तुली नजर आ रही है। संदेह नहीं कि मोदी आंधी से बौखलाए राजनीतिक दलों को उत्तरप्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव परिणामों और अब कर्नाटक में जनता दल-सेकुलर और कांगे्रस के बीच गठबंधन से भविष्य में भाजपा से मुकाबला करने के लिए दिशा दिखाई दी है। फिर भी यह मान लेना जल्दबाजी होगी कि 2019 भाजपा के लिए भारी साबित होने वाला है। विपक्ष के तमाम दुष्प्रचार के बाद भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता काफी हद तक जस की तस है। मतदाताओं का बड़ा वर्ग मोदी विरोधियों के भाव, खेल और तिकड़मों से भली-भांति परिचित है। मोदी की लोकप्रियता की पुष्टि हाल में कुछ प्रतिष्ठित मीडिया समूहों के सर्वे से हो चुकी है।
Gjb ki Lekhni h sir
सम्माननीय लेखक महोदय की ओर से तेजसमाचार.कॉम अपने सुबुद्ध पाठकों का आभार व्यक्त करता है. अपना स्नेह बनाये रखें.