देश के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बने गुजरात विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस में अभी से ऐसे हालात बनने लगे हैं, जिनके कारण कांग्रेस के समक्ष एक तरफ कुआ तो एक तरफ खाई जैसी परिस्थितियां निर्मित होती दिखाई दे रही हैं. कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में गहरा प्रभाव रखने वाले अहमद पटेल के सामने पहले से भी ज्यादा चुनौती पैदा होती जा रही हैं. अभी हाल ही में अहमद पटेल से जुडे एक व्यावसायिक स्थल से आतंकवादियों की गिरफ्तारी उनको कठघरे में खड़ा करती हुई दिखाई दे रही है. इससे जहां कांग्रेस को पटखनी देने के लिए भाजपा को प्रभावशाली मुद्दा मिला है, वहीं कांग्रेस बैकफुट की ओर जाती हुई दिखाई दे रही है. कांग्रेस की सबसे बड़ी दुविधा यही है कि अगर वह अहमद पटेल से दूर रहने का प्रयास करती है तो स्वाभाविक रुप से कांग्रेस को मुसलमान वर्ग से नाराजी भी झेलनी पड़ सकती है, जो कांग्रेस कतई नहीं चाहती. अगर अहमद पटेल का समर्थन करती है तो फिर कांग्रेस से वह वर्ग दूर जा सकता है, जिसके लिए उसने लम्बे समय से रणनीति का उपयोग किया. कहने का तात्पर्य स्पष्ट है कि पटेल वर्ग को अपने पाले में करने के लिए कांग्रेस ने राजनीतिक चाल चली, उसमें कांग्रेस को उस समय सफलता मिलती हुई भी दिखाई दे रही थी, जब हार्दिक पटेल कांग्रेस नेता राहुल गांधी के संकेत पर कांग्रेस का समर्थन करते हुए दिखाई दिए. हालांकि हार्दिक पटेल जिस मुद्दे पर गुजरात में उभरे हैं, उस मुद्दे पर अडिग रहना उनकी राजनीतिक मजबूरी है. इसलिए हार्दिक पटेल ने अब कांग्रेस के सामने यक्ष स्थिति पैदा कर दी है. हार्दिक पटेल ने कांग्रेस से सवाल किया है कि पटेल आरक्षण पर कांग्रेस अपना रुख स्पष्ट करे.
राजनीतिक हालातों के विश्लेषण करने पर ऐसा भी लगता है कि हार्दिक का यह बयान भी पूरी तरह से कांग्रेस को फायदा पहुंचाने का एक कदम है. क्योंकि कांग्रेस पटेल वर्ग को आरक्षण देने की घोषणा कर सकती है. राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिए कांग्रेस का यह कदम अब उजागर होने लगा है. जनता भी इस बात को समझने लगी है कि कांग्रेस अपने राजनीतिक उत्थान के लिए कैसी भी राजनीति कर सकती है. समाज में विघटन पैदा करने वाली कांग्रेस ने राज भी इसी पद्धति को आधार बनाकर ही किया है. आज भी कांग्रेस उसी राह का अनुसरण कर रही है. समाज में फूट डालने की मानसिकता से किया गया प्रचार चुनाव में सफलता तो दिला सकता है, लेकिन देश को मजबूत नहीं बना सकता. इसलिए कांग्रेस के बारे में यह आसानी से कहा जा सकता है कि वह केवल सत्ता प्राप्त करने के लिए ही राजनीति करती रही है, आज भी वही कर रही है. देश की समृद्धि से उसे कोई मतलब नहीं है.
गुजरात चुनाव में जिस प्रकार से राजनीतिक प्रचार किया जा रहा है, उससे यह भी लगने लगा है कि भाजपा में किसी भी प्रकार की घबराहट नहीं है, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के हालात इसके विपरीत दिखाई दे रहे हैं. उसमें घबराहट भी है और अपना अस्तित्व बचाए रखने के सशंकित जिजीविसा भी है. ऐसे में कांग्रेस किस परिणति को प्राप्त होगी, यह कहना फिलहाल मुश्किल जरुर है, लेकिन उसके अपने कार्यकर्ता इस बात के लिए आशान्वित भी नहीं हैं कि गुजरात में कांग्रेस की सरकार ही बनेगी. कांग्रेस के कार्यकर्ता और राजनीतिक विश्लेषक भी यह बात स्वीकार करने लगे हैं कि कांग्रेस की स्थिति में सुधार अवश्य हो सकता है, परंतु सरकार नहीं बन सकती. वर्तमान में कांग्रेस के समक्ष चुनौतियां ज्यादा हैं और प्रभावी भी हैं. क्योंकि गुजरात के पूर्व चुनावों में कांग्रेस के लिए चुनौती के रुप में राज्य का मुख्यमंत्री था, आज एक प्रधानमंत्री है. इससे स्पष्ट है कि अब गुजरात में चुनौती ज्यादा बड़ी है. राज्य का कोई व्यक्ति आज देश का प्रधानमंत्री है, यह भाजपा के लिए सकारात्मक कहा जा सकता है और भाजपा को इसी का राजनीतिक लाभ मिलेगा, यह तय है. राजनीतिक स्थितियां जो तस्वीर प्रदर्शित कर रही हैं, वह यह स्पष्ट कर रही हैं कि राज्य ही नहीं पूरे देश में आज नरेन्द्र मोदी सबसे बड़े राजनेता के रुप में स्थापित हुए हैं. ऐसी स्थिति में कांग्रेस का उनसे मुकाबला करना टेड़ी खीर ही प्रमाणित हो रहा है. कांग्रेस के नेता भले ही कुछ भी कहें, लेकिन वास्तविकता यही है कि गुजरात में भाजपा के सामने खड़े होने के लिए कांग्रेस को बहुत परिश्रम करना पड़ेगा.
बहरहाल भाजपा व कांग्रेस दोनों के लिए यह चुनाव प्रतिष्ठा का सवाल है. यह कहना भी गलत नहीं होगा कि दोनों पार्टियों में गुजरात चुनावों का माहौल लोकसभा चुनावों जैसा है. 1995 से निरंतर सत्ता में रही भाजपा अपने इस गढ़ को केवल बरकरार ही रखना नहीं चाहती, बल्कि इन चुनावों से नोटबंदी व जीएसटी जैसे मुद्दों पर जनता की मोहर लगवाने के मूड में है. दोनों राजनीतिक पार्टियां इस घमासान में एड़ी-चोटी का जोर लगाएंगी. पिछले 22 सालों से 60 सीटों तक सीमित रही कांग्रेस अपनी नजर इस बार पटेल और पाटीदार समाज पर टिकाए हुए है. गुजरात विधानसभा के पहले के चुनावों के राजनीतिक प्रचार पर ध्यान दिया जाए तो यही सामने आता है कि विपक्षी राजनीतिक दलों ने सांप्रदायिकता को अपना प्रमुख चुनावी हथियार बनाया था. दूसरी ओर भाजपा विकास, विकास और केवल विकास की ही बात करती रही. अब कांग्रेस से अपने पुराने मुद्दों से बहुत दूरी बना ली है. उसे समझ में आने लगा है कि गुजरात की जनता सांप्रदायिकता फैलाने वाले दलों के साथ नहीं है, वह पूरी तरह से विकास करने वाले दल भाजपा के साथ है. इसी कारण से भाजपा गुजरात में अभी तक सत्ता में है. गुजरात चुनावों में इस बार सबसे खास बात यह भी है कि राज्य में मुख्यमंत्री रह चुके नरेद्र मोदी पहली बार प्रधानमंत्री के रुप में चुनाव प्रचार कर रहे हैं, जो भाजपा के लिए सकारात्मक है.
अच्छी बात यह है कि गुजरात चुनावों में चाहे विरोधी दलों की बयानबाजी हो या फिर भाजपा नेताओं के बयान, सभी अब विकास की बात करने के लिए ही राजनीति करते दिखाई दे रहे हैं. पिछले चुनाव में कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने नरेन्द्र मोदी को मौत का सौदागर तक बता दिया, लेकिन इसका परिणाम यही निकला कि भाजपा को गुजरात की सत्ता प्राप्त हो गई और कांग्रेस विपक्ष में ही रही. अब कांग्रेस को भी लगने लगा है कि इस प्रकार के मुद्दों से कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिलने वाला है. इसलिए उसने भी आज भाजपा की तरह विकास की बात करनी प्रारंभ कर दी है. यानी गुजरात में अब विकास ही राजनीतिक मुद्दा है. कांग्रेस भले ही अपने राजनीतिक लाभ के लिए विकास की बात कर रही हो, लेकिन यह भी सच है कि कांग्रेस विकास से कोसों दूर है. हम जानते हैं कि कांग्रेस के एक बड़े नेता ने विकास को पागल की संज्ञा दे दी. यानी कांग्रेस मानती है कि देश में जहां भी विकास होगा, वह केवल पागलपन के अलावा कुछ भी नहीं है. इससे यह आसानी से समझ में आ जाता है कि कांग्रेस की राजनीति में स्थिरता नाम की कोई बात नहीं है. वह विकास की राजनीति भी कर रही है और विकास को पागल भी बता रही है. अब देखना यही होगा कि गुजरात में कांग्रेस भाजपा को पराजित करने के लिए किस प्रकार की योजनाएं बनाती है.
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)