सुदर्शन चक्रधर महाराष्ट्र के मराठी दैनिक देशोंनती व हिंदी दैनिक राष्ट्र प्रकाश के यूनिट हेड, कार्यकारी सम्पादक हैं. हाल ही में उन्हें जीवन साधना गौरव पुरस्कार से सम्मानित किया गया. अपने बेबाक लेखन से सत्ता व विपक्ष के गलियारों में हलचल मचा देने वाले सुदर्शन चक्रधर अपनी सटीक बात के लिए पहचाने जाते हैं. उनके फेसबुक पेज से साभार !
नववर्ष की शुरुआत इतनी भयानक होगी, इसकी उम्मीद किसी को नहीं थी. जब समूची दुनिया 2018 में प्रवेश कर रही थी, तब हमारा प्रिय प्रदेश (महाराष्ट्र) 200 साल पीछे 1818 में पहुंच गया! सामाजिक मान्यताएं, पारंपरिक उत्सव और भीमा-कोरेगांव युद्ध का शौर्य दिवस, एक खास षडयंत्र के कारण हिंसा के चक्रव्यूह में फंस गया. एक बार फिर ‘वे अंग्रेज’ जीत गए, जो भारत में सफेदपोशों की शक्ल में जिन्दा हैं, …और हम ‘कठपुतलियां’ बन कर उनकी ‘फूट डालो राज करो’ की नीतियों पर नाचते-गाते शर्मिंदा हैं! कभी यह ‘हरे झंडे से भगवा झंडे’ को लड़ाते हैं, …तो कभी ‘नीले झंडे से भगवा झंडे’ को भिड़ाते हैं! जब तक हम ‘कठपुतलियों’ के खोल से बाहर नहीं आएंगे, ये सत्तालोभी सफेदपोश हमारा खून बहाने से बाज नहीं आएंगे!
इस देश की समस्या न दलित है, न मुसलमान है, न हिंदू! असली समस्या है सत्ताखोरी! सत्ता पाने, बचाने या टिकाने की जद्दोजहद में भारत के सत्तालोलुप ‘काले अंग्रेजों’ ने 200 साल बाद भी हिंदू और दलितों के बीच फूट डालने में सफलता पा ली. अब हम लोग इसी तरह लड़ते रहेंगे …और वे षड्यंत्रकारी हम पर राज करते रहेंगे. ‘नीला-हरा-भगवा’ करते-कराते इन्होंने बारूद के ढेर पर ला दिया है हमारे देश को! आखिर क्यों नहीं समझते हम लोग इनकी हकीकत? आखिर कब तक सड़कों पर टायर जलाते रहेंगे हम? कब तक मां-बहनों के साथ अपना काम-धाम छोड़कर उग्र प्रदर्शन और तोड़फोड़ करते रहेंगे? ऐसा करने से क्या ये षड्यंत्रकारी सुधर जाएंगे? क्या गारंटी है कि भविष्य में फिर ये सत्ताखोर किसी न किसी ‘गुरुजी’ को मोहरा बना कर ‘नीला-भगवा युद्ध’ नहीं करवाएंगे? मगर हां, अगर हमने किसी भी राजनेता के हाथों का खिलौना या ‘कठपुतली’ न बनने की कसम खा ली, तो फिर कोई ‘माई का लाल’ हमारे हाथों में पत्थर या झंडे थमाने की जुर्रत नहीं करेगा!
पूरे तीन-चार दिनों तक हमारा प्रिय महाराष्ट्र जाति की ज्वाला में जलता रहा. इस ज्वाला को अपने उग्र भाषणों का घी डालकर शोलों में तब्दील किया ‘मैदे के पोते’ जैसे राजनेताओं ने! जिन्हें 2019 का चुनाव लड़ना और जीतना है, उन्होंने 2018 के प्रारंभ में ही अपने-अपने वोट बैंक को मजबूत करने का घिनौना काम इस हिंसा को भड़काकर किया! यह सच है कि वर्षों के दमन और दंश का दर्द पूरी एकजुटता के साथ सड़कों पर झलक आया! किंतु इससे आम जन-जन का कितना नुकसान हुआ?…क्या यह सोचा किसी ने? सरकारी संपत्ति का जो नुकसान हुआ, उसकी मरम्मत या नवनिर्माण में अब हमारा और आपका ही पैसा (टैक्स) लगेगा! अर्थ यही कि हम ऐसी हिंसा और दंगे-फसाद करके अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मारते हैं!
अब एक कड़वा सच! पिछले माह जब विधानसभा चुनाव के नतीजे आए और ’56 इंची गुब्बारे’ की हवा निकल गई, तभी से यह लगने लगा था कि कुछ राज्यों में धार्मिक या जातीय हिंसा भड़कायी जाएगी. यह सब वोटों के ध्रुवीकरण के लिए ही होना है. आगे और देखिएगा… निकट भविष्य में भी पाटीदार, मराठा, जाट, गुर्जर, धनगर, दलित, आदिवासी, ओबीसी और यहां तक कि ब्राम्हण आंदोलन भी होंगे. ये सब 2019 का चुनावी बिगुल बजाएंगे. चुनावी राजनीति के शतरंज की बिसात बिछ चुकी है मित्रों! अब यह तो हमें तय करना है कि आपस में बंटे रहकर अपने भारतीयता के सामाजिक अस्तित्व पर संकट लाना है, अथवा एकता और भाईचारे के साथ रहकर कई वर्षों से चले आ रहे षड्यंत्रों को जड़-मूल से खत्म करना है! एक कटु सत्य यह भी है कि जब तक अपने देश में जाति व्यवस्था कायम रहेगी, तब तक ये तथाकथित कर्णधार, हमारे हाथों में ‘नीले-हरे-भगवे’ झंडे थमा कर अपने इशारों पर हमें लड़ाते-भिड़ाते रहेंगे! सोचना हमें ही हैं कि आखिर कब तक हम इनके हाथों की ‘कठपुतलियां’ बने रहेंगे? – सुदर्शन चक्रधर