सुदर्शन चक्रधर महाराष्ट्र के मराठी दैनिक देशोंनती व हिंदी दैनिक राष्ट्र प्रकाश के यूनिट हेड, कार्यकारी सम्पादक हैं. हाल ही में उन्हें जीवन साधना गौरव पुरस्कार से सम्मानित किया गया. अपने बेबाक लेखन से सत्ता व विपक्ष के गलियारों में हलचल मचा देने वाले सुदर्शन चक्रधर अपनी सटीक बात के लिए पहचाने जाते हैं. उनके फेसबुक पेज से साभार !
क्या इस देश में किसान, इंसान, मुसलमान और दलित होना गुनाह है? अगर नहीं, तो इनकी हालत आज भी इतनी दयनीय क्यों है? अब तो इन सबके बीच किसी राजनीतिक पार्टी का कार्यकर्ता होना अभी मानो बहुत बड़ा अपराध हो गया है. तभी तो पश्चिम बंगाल में 21 वर्षीय एक दलित युवक की हत्या कर उसका शव पेड़ से लटका दिया गया. इसमें भी क्रूरता इतनी कि हत्यारों ने उसकी टी-शर्ट पर ही लिख दिया, – “भाजपा के लिए काम करने का अंजाम यही होगा! आज तेरी जान गई…!” इस हत्या का आरोप सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के दबंग कार्यकर्ताओं पर लगा है. 21 वर्षीय त्रिलोचन महतो के पिता हरिराम महतो पुरुलिया के दलित-किसान नेता हैं. उनका पूरा परिवार भाजपा समर्थक है. त्रिलोचन खुद बीए ऑनर्स का छात्र था और पंचायत चुनाव के दौरान काफी सक्रिय था. इसे तृणमूली हत्यारों ने दो बार देख लेने की धमकी भी दी थी. बंगाल पुलिस ने किसी को गिरफ्तार नहीं किया, इसलिए चार दिन बाद ऐसी ही एक और वारदात दोहराई गई.
पहली नजर में ऐसी घटनाएं राजनीतिक प्रतिशोध की लगती हैं. मगर हमने नहीं भूलना चाहिए कि यहां एक बेकसूर दलित युवक की हत्या हुई है, लेकिन इस पर तमाम ‘डिजाइनर पत्रकार’, अवार्ड वापसी गैंग और दलितों के तथाकथित मसीहा बने घूमते सफेदपोश (नेता) खामोश हैं, क्योंकि वह दलित युवक भाजपा से जुड़ा था और उसकी हत्या, विपक्ष की दबंग नेता ममता बनर्जी के राज में हुई है. जरा सोचिए कि यदि यही दलित-हत्या किसी बीजेपी शासित राज्य में हुई होती, तो अब तक कई ‘डिजाइनर पत्रकार’ छाती कूट-कूट कर आसमान सिर पर उठा लेते! …और राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल, मायावती, अखिलेश यादव जैसे नेता भाजपा सरकार की नाक में दम कर देते! देश भर में कैंडल मार्च निकाले जाते. जगह-जगह विरोध प्रदर्शन होता. मगर चूंकि उक्त दलित-हत्या, ममता बनर्जी के राज में हुई है, इसलिए सबके मुंह बंद हैं!
चूंकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी विपक्षी एकता विपक्ष की एकता के लिए अहम भूमिका निभा रही हैं, इसलिए उनके खिलाफ बोलने की हिम्मत विपक्ष का कोई नेता नहीं कर रहा है. मृतक त्रिलोचन महतो सिर्फ दलित ही नहीं, बल्कि किसान का बेटा भी था! मगर ममता सरकार के क्रूर खेल के सामने, क्या दलित और क्या किसान ! …सब बारह के भाव पिसे जा रहे हैं. ये वही ममता बनर्जी हैं, जिसने 2011 के राज्य विधानसभा चुनाव में ‘मां, माटी, और माणुस’ का नारा देकर बहुमत की सरकार बनाई थी. अब सात साल बाद यही ममता पूरी निर्ममता से बंगाल की माटी को लाल करके दिल्ली के ‘लाल किले’ का सपना देख रही हैं! बंगाल में हर चुनाव में हिंसा और डेढ़-दो दर्जन कार्यकर्ताओं की हत्या होना अब आम बात हो गई है. ममता राज ने खूनी खेल में लेफ्ट के क्रूर व निर्मम शासन को भी पीछे छोड़ दिया है. यहां पेड़ पर लोकतंत्र लटकाया जा रहा है …और समूचा विपक्ष चूड़ियां पहन कर खामोश है! सिर्फ किसी विचारधारा का समर्थक होने के कारण किसी निर्दोष दलित युवक की हत्या कर देना लोकतंत्र नहीं है. यह सर्वथा निंदनीय है.
अब कुछ चुभते हुए सवाल. गुजरात में निर्दोष दलितों की पिटाई होने पर अथवा हैदराबाद में दलित छात्र रोहित वेमुला द्वारा आत्महत्या करने पर या भीमा-कोरेगांव प्रकरण पर हायतौबा मचाने वाले लोग और नेता कहां हैं? क्या त्रिलोचन महतो उनकी नजर में दलित नहीं था? या उसे बीजेपी का समर्थक होने के कारण ‘असली दलित’ नहीं मान रहे ये सड़कों पर उतर कर टायर जलाने वाले? तोड़-फोड़ करने वाले? कहां गई अब मायावती की दहाड़? क्यों खामोश है प्रकाश आंबेडकर? रामविलास पासवान, रामदास आठवले और उदित राज की भी बोलती बंद क्यों है? अरे…! अब तो सामने आओ दलितों के नाम पर घड़ियाली आंसू बहाने वालों…! लेकिन हम जानते हैं कि अब कोई सामने नहीं आएगा. न कोई अवॉर्ड लौटाएगा, न कोई कैंडल मार्च निकालेगा. क्योंकि उस ममता बनर्जी से कौन पंगा लेगा, जो खुलेआम कहती है कि ‘जो हमसे टकराएगा, चूर-चूर हो जाएगा!’ इन चूड़ीधारियों के लिए विपक्ष की एकता का सवाल है, दलित और देश जाए भाड़ में! इन्हें क्या फर्क पड़ता है? तभी तो बिहार के राधोपुर में दलितों के 25 घर दबंग यादव लोग जला देते हैं… और सब आंखें मूंद लेते हैं! इन राजनेताओं के लिए दलित सिर्फ वोट बैंक है मित्रों, लेकिन नफरत की राजनीति अब चलने वाली नहीं है. कैराना के परिणाम ने भी यही साबित किया है!
(लेखक *दैनिक राष्ट्रप्रकाश* के कार्यकारी संपादक हैं / *संपर्क : 96899 26102*)