अनिल बिहारी श्रीवास्तव मूलतः जबलपुर मध्यप्रदेश के रहने वाले, इन दिनों विगत कई वर्षों से भोपाल में रह रहे हैं. प्रख्यात समाचार एजेंसी ई एम एस में स्थापना से लेकर वर्षों तक पत्रकारिता की धार तेज़ करते रहे. दैनिक भास्कर के औरंगाबाद, सतना संस्करण में सम्पादक रहे अनिल बिहारी श्रीवास्तव देश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में लेखन करते हुए http://www.hanumatjyotish.com वेब पोर्टल का संचालन भी करते हैं. अब से तेजसमाचार डॉट कोम के पाठकों के लिए अनिल बिहारी श्रीवास्तव का नियमित बेबाक लेखन..
भारतीय जनता पार्टी के महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने आरोप लगाया है कि पश्चिम बंगाल में पंचायत समिति के चुनाव जीतने वाले भाजपा के छह हजार सदस्यों में से लगभग तीन हजार को उनकी सुरक्षा के लिए अन्य स्थानों पर भेजना पड़ा है। भाजपा के इन विजेता सदस्यों को सत्ताधारी तृणमूल कांगे्रस की ओर से लगातार धमकियां मिल रहीं थीं। ये लोग डेढ़ माह पश्चात पंचायत समिति के सदस्य के रूप में अपना कार्यकाल शुरू होने पर ही लौटेंगे। विजयवर्गीय का कहना है कि पंचायत चुनावों में विजयी उसके सदस्यों को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की ओर से लगातार धमकियां मिल रहीं थीं। उनसे कहा जा रहा था कि या तो वे पंचायत समिति के सदस्य पद से इस्तीफा दें या फिर तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो जाएं। पश्चिम बंगाल में त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों के परिणाम आने के बाद माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी आरोप लगा चुके हैं कि ममता बनर्जी लोकतंत्र पर दोमुंही बातें करतीं हैं। येचुरी की यह प्रतिक्रिया कर्नाटक विधानसभा में बहुमत नहीं जुटा पाने पर मुख्यमंत्री पद से भाजपा के येदियुरप्पा के इस्तीफे के बाद आई ममता बनर्जी की टिप्पणी के जवाब में थी। येदियुरप्पा के इस्तीफे के बाद जनतादल(सेकुलर)के एचडी कुमारस्वामी को जिन भाजपा-विरोधी नेताओं ने देशभर से बधाई संदेश भेजे, उनमें पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री सबसे आगे थीं। ममता बनर्जी ने कांग्रेस-जनतादल(सेकुलर)के जुगाड़ू गठबंधन को लोकतंत्र की जीत निरूपित किया था। यहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उस आरोप का उल्लेख करना उचित होगा जिसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि पश्चिम बंगाल में हुए त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों में नामांकन दाखित करने की तारीख से लेकर मतदान तक लोकतंत्र का गला घोंटा जाता रहा।
प्रधानमंत्री की इस टिप्पणी के राजनीतिक मायने निकालने से बचते हुए निष्पक्ष भाव से विचार करने की जरूरत है। इससे उनके कथन की सच्चाई का अहसास अवश्य होगा। मोदी ने पंचायत चुनावों के दौरान जो हुआ उसे लोकतंत्र के लिए घातक बताया। उनके कहने का आशय यह था कि चुनाव प्रक्रिया में शामिल होने से विरोधियों को रोकना एक खतरनाक प्रवृत्ति के पनपने का संकेत है। नामांकन के दौर में भाजपा, माकपा, कांगे्रस और अन्य दलों के लोगों को चुनाव लडऩे से रोकने के लिए तृणमूल कांग्रेस के समर्थक और कार्यकर्ता गुण्डई पर उतारू थे। उस अराजक माहौल में प्रशासन और पुलिस के लोग कहां दुम दबाये बैठे थे? जाहिर है कि ये दोनों मशीनरियां सत्ताधारी दल के गुलामों की तरह काम कर रहीं थीं। पश्चिम बंगाल में जिस नए तरीके की चुनावी हिंसा या गुण्डागर्दी के आरोप लगे हैं उन्हें मनगढ़ंत नहीं कहा जा सकता। नामांकन के दौर में आईं मीडिया रिपोर्टें आरोपों की पुष्टि के लिए पर्याप्त थीं। तृणमूल कांग्रेस के समर्थक खुले आम गुण्डागर्दी करते हुए विरोधी राजनीतिक दलों के समर्थकों का आतंकित कर रहे थे। भाजपा, वामदलों और कांग्रेस के उम्मीदवारों को नामांकन भरने से रोका जा रहा था। भाजपा के सैंकड़ों उम्मीदवार नामांकन दाखिल करने के बाद अपने घर-बार छोडक़र सुरक्षित स्थानों पर चले गए थे। पंचायत चुनावों के लिए मतदान से पहले एक बात स्पष्ट रूप से महसूस होती रही कि भद्रलोक में दक्षिण पंथ की ओर झुकाव बढ़ रहा है। वामदलों विशेषकर माकपा और उसके साथ-साथ कांग्रेस को निष्प्रभावी करने के बाद भी तृणमूल कांग्रेस का असुरक्षा भाव बढ़ा है। भाजपा के प्रति बढ़ रहे झुकाव से तृणमूल कांगे्रस में चिन्ता है। वह भाजपा को भविष्य में एक बड़ी चुनौती के रूप में देखने लगी है। दरअसल, तृणमूल की बढ़ती सारी व्यग्रता की वजह भाजपा ही है।
लोकतंत्र के प्रति तृणमूल कांगे्रस की नियत पर संदेह निराधार नहीं है। कुल 58,792 पंचायत सीटों में से एक-तिहाई सीटों पर किसी भी विपक्षी दल के प्रत्याशी की ओर से नामांकन दाखिल नहीं किया गया। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अदालत के आदेश के कारण इन सीटों के परिणाम घोषित नही किए जा सके हैं। आरोप है कि इन सीटों पर चुनाव के लिए भारतीय जनता पार्टी, वामदल, कांग्रेस और अन्य के उम्मीदवार हिंसा और अलोकतांत्रिक तरीके से विरोध के कारण नामांकन पत्र दाखिल नहीं कर सके थे। जिन पंचायत क्षेत्रों में 14 मई को मतदान हुआ वहां भी तृणमूल कांगे्रस की लोकप्रियता से अधिक उसके समर्थकों के आतंक का अहसास होता है? ऐसे क्षेत्रों में 76 प्रतिशत सीटें तृणमूल कांग्रेस के खाते में चलीं गईं। तृणमूल कांगे्रस ने ग्राम पंचायत की 66 प्रतिशत, पंचायत समितियों की 80 प्रतिशत और जिला पंचायत की 87 प्रतिशत सीटों पर कब्जा कर लिया। 14 मई को हुए मतदान को शांतिपूर्ण और निष्पक्ष नहीं कहा जा रहा है। चुनावी हिंसा में 50 मोैतें हुईं हैं। सरकारी मशीनरी का जमकर दुरुपयोग किया गया। आरोपों को तृणमूल किस मुंह से नकार सकती है? मोदी, येचुरी और विजयवर्गीय द्वारा लगाए गए आरोपों के जवाब में तृणमूल कांग्रेस के पास कोई पुख्ता तर्क नहीं है। ममता बनर्जी का मौन बता रहा है कि तृणमूल की पोल-खुलने के साथ उनका तरकश भी खाली हो चुका है। ऐसी स्थिति में कल्पना करें कि यदि एक-तिहाई सीटों के लिए नए सिरे से चुनाव प्रक्रिया शुरू करने का आदेश आ जाता है तब क्या होगा?विश£ेषक मानते हैं कि तृणमूल कांग्रेस की ऐसी व्यग्रता के पीछे 2019 की तैयारी की चिन्ता है। तृणमूल कांग्रेस को लग रहा है कि अगले साल दीदी के भाग्य से छींका टूट सकता है। वह मान बैठी है कि अगले लोकसभा चुनावों में भाजपा और उसके सहयोगी बहुमत हासिल नहीं कर पाएंगे। पश्चिम बंगाल में तृणमूल का एकछत्र राज होने पर ममता बनर्जी प्रधानमंत्री पद के लिए मजबूत दावेदारी कर सकती हैं। यहां एक अन्य पक्ष भी है। पश्चिम बंगाल की राजनीति की गहरी समझ रखने वाले मानते हैं कि ममता के लिए दिल्ली अभी दूर है। ऐसी धारण के पीछे कई वजहों का होना बताया जा रहा है। मसलन-ममता बनर्जी भले ही पश्चिम बंगाल में खासी प्रभावशाली राजनेता हैं लेकिन विपक्ष में ही कई लोग उन्हें तुनकमिजाज राजनेता मानते हैं। ममता बनर्जी के प्रधानमंत्री बनने के स्वप्न के साकार होने में सबसे बड़ी बाधा कांग्रेस और वामदलों की ओर से खड़ी होगी। तीसरा कारण, पश्चिम बंगाल में भाजपा का बढ़ता प्रभाव है। तृणमूल कांग्रेस समर्थकों की ओर से आजमाए गए तमाम अलोकतांत्रिक और काफी हद तक गैर कानूनी टोटकों के बावजूद भाजपा ग्राम पंचायत की 18 प्रतिशत, पंचायत समितियों की 12 प्रतिशत और जिला पंचायत की 3.5 प्रतिशत सीटें जीतने में कामयाब हो गई। भाजपा दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत बन कर उभरी है। भाजपा के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। यह बात भद्रलोक की राजनीति में एक नई करवट के संकेत दे रही है।
बंगाल की अपनी खास सांस्कृतिक पहचान, विशाल शिक्षित वर्ग और समृद्धि के कारण उन्नीसवीं शताब्दी में भद्रलोक शब्द का चलन शुरू हुआ था। शुरूआत में अगड़ी जातियों, बंगाल के कुलीन वर्ग के लिए इसका प्रयोग किया जाता था। कालान्तर में भद्रलोक समूचे बंगाल की पहचान सा बन गया। आजादी के बाद कुछेक बांग्ला विद्वानों ने भद्रलोक को पहुंचाए जा रहे नुकसान पर चिन्ता व्यक्त की थी। माना जाता है कि माकपा की अगुआई वाले वाममोर्चा के लगभग तीन दशक तक चले शासन के दौरान भद्रलोक छवि को सबसे अधिक नुकसान उठाना पड़ा। सुसमृद्ध, सुसभ्य, सुसंस्कृत, सुशिक्षित और सुविचारों तथा कला प्रेमियों की इस दुनिया में कई अप्रिय बदलाव वाममोर्चा के शासन काल में देखे गए। आज जो कुछ तृणमूल कांग्रेस के जमाने में पश्चिम बंगाल में दिखाई दे रहा है वही तो वाममोर्चा सत्ता के दौर में दिखाई देता था। सत्ताधीश भले बदल गए हों लेकिन राज करने वालों का चरित्र और प्रवृत्तियां पूर्ववत ही हैं। पहले वामपंथी दलों के लोग कानून का माखौल उड़ाते थे, वही काम तृणमूल के लोग करने लगे हैं। असहमत और विरोधियों के दमन का हथकंडा वामपंथियों से ही तृणमूल के लोगों ने सीखा है। राज्य का मुख्यमंत्री बनने की ममता बनर्जी की महत्वाकांक्षा जनता ने पूरी कर दी। भद्रलोक ने वामपंथियों की अभद्रता असहनीय हो जाने पर उपलब्ध बेहतर विकल्प के रूप में तृणमूल कांगे्रस को मौका दिया था। आज तृणमूल कांगे्रस वाममोर्चा के पदचिन्हों पर चल रही है। सम्भव है कि पश्चिम बंगाल के प्रबुद्ध मतदाता अगले विकल्प पर विचार करने पर विवश हों। निश्चित रूप से उनके समक्ष मजबूत विकल्प के रूप में भाजपा है।
अनिल बिहारी श्रीवास्तव,
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