मुंबई (आशीष शुक्ला). अभिनेत्री नंदिता दास ने निर्देशन के क्षेत्र में कदम रखते हुए एक लघू फिल्म का निर्देशन किया है. नंदिता दास की 5 मिनट 42 सेकंड की फिल्म ‘डिफेन्स ऑफ़ फ्रीडम’ ऊर्दू लेखक शहादत हसन मंटो पर आधारित है. फिल्म में मंटो का किरदार नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने निभाया है. मंटो के किरदार ने एक बार फिर लोगों को मंटो की बेबाकी और अक्खडपन से रू-ब-रू कराया.
फिल्म को देखते ही पता चलता है कि नवाज़ ने फिल्म के किरदार को निभाया ही नहीं बल्कि उसे पूरी ताकत से जीया है. मंटो के किरदार की बारीकियों और संजीदगी को नवाज़ ने अपने अभिनय से जीवंत कर दिया है.
यह फिल्म एक क्लास रूम में फिल्माई गयी है, जहां उर्दू के मशहूर कलमकार शहादत हसन मंटो (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) क्लास में बैठे स्टूडेंट्स से अपने बारे में, अपनी लिखी कहानियों के बारे में, अपनी कहानियों के किरदारों में बारे में बता रहे हैं. इस फिल्म का केंद्र बिंदू मंटो द्वारा लिखी गई कहानियां, कहानियों के सब्जेक्ट और उस दौर में उनकी कहानियों पर उठे विवाद को केंद्रित करता है. जहां मंटो अपनी कहानियों और किरदारों को समाज का एक हिस्सा बताते है, जिसे लोग अश्लील और भद्दी रचनाएं कहते है.
इस पूरी फिल्म में मंटो साहित्य और उसके सब्जेक्ट की आज़ादी को लेकर खुले और दृढ अंदाज़ में बात करते नजर आते है. जो बात जैसी है उसे, उसी रूप में लिखे और कहे जाने पर जोर देते है. जो की हर मायने में दर्शक को सार्थक मालूम होती है. सफ़ेद ढीला कुर्ता और बड़ा काला चस्मा पहने अभिव्यक्ति की आज़ादी और समाज की कड़वी सच्चाई को बयां करते हुए नवाज़ बेहद ही प्रभावशाली लगते है.
नंदिता दास ने इस फिल्म को जितने बेहतरीन तरीके से लिखा है, उतने ही खूबसूरत और सादगी से परोसा भी है. फिल्म का विषय गंभीर होते हुए भी इसे बड़े ही सजहता से आक्रामक अंदाज़ में प्रस्तुत किया गया है. फिल्म के डायलॉग और भाषा दोनों ही बहुत उम्दा है. नवाज़ द्वारा बोले गए डायलॉग अंदर तक रोमांचित करते है. जिन्हें सुनकर आप अनायास ही वाह कह जाते है. फिल्म का अंत ‘बोल की लब आजाद है तेरे’ के सीन से होती है जो आपको एक बार फिर सोचने पर मजबूर करती है. कुल 6 मिनट की यह फिल्म शुरू से अंत तक रफ़्तार में चलती है जो दर्शक को बांधे रखती है. निश्चित ही नंदिता मंटो के बेपरवाह अंदाज़ और तरक्की पसंद सोच को कैमरे में कैद करने में कामयाब हुईं है.