देश में जबसे नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, तबसे राजनीति में एक परिवर्तन सा दिखाई दे रहा है. वह परिवर्तन किस प्रकार का है, वह तो हम आगे बात करेंगे, लेकिन उसका प्रभाव साढ़े तीन वर्ष बाद भी देश की राजनीति में दिखाई दे रहा है. उत्तरप्रदेश के लोकसभा के बाद विधानसभा और अब स्थानीय निकाय के चुनाव में भाजपा की अप्रत्याशित विजय ने यह तो प्रमाणित कर ही दिया है कि लोकसभा में उनकी विजय अल्पकालीन नहीं थी. उत्तरप्रदेश के स्थानीय निकाय के परिणामों ने यह भी साबित किया है कि भारतीय जनता पार्टी जमीनी स्तर पर जनता के दिलों को जीतने का काम किया है. अब तो यह भी कहा जाने लगा है कि भाजपा देश में एक मात्र राजनीतिक विकल्प के रुप में सामने आ रहा है. देश के अन्य राजनीतिक दलों के पास न तो जनता को प्रभावित करने वाली नीतियां हैं और न ही कोई स्पष्ट विचार संकल्पना. इसी के कारण ही विपक्षी राजनीतिक दल अपने प्रचार को केवल भाजपा के इर्द गिर्द ही रखते दिखाई दे रहे हैं.
वर्तमान में देखा जाए तो हर राजनीतिक दल का चुनाव प्रचार केवल भाजपा और नरेन्द्र मोदी पर ही केन्द्रित हो गया है. भारतीय जनता पार्टी के प्रचार में नरेन्द्र मोदी का नाम लिया जाता है तो विपक्षी दल भी विरोध के रुप में मोदी के नाम का सहारा लेते हैं. कुल मिलाकर देखा जाए तो आज भारतीय जनता पार्टी को जन जन तक पहुंचाने के लिए विपक्षी दलों का भी बहुत बड़ा योगदान है. विपक्षी राजनीतिक दलों ने नोटबंदी के मुद्दे पर उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान मुंह की खाने के बाद भी कोई सबक नहीं लिया. नोटबंदी पर जनता की मुहर लगने के बाद विपक्षी दलों ने किसी प्रकार का कोई मंथन ही नहीं किया.
इसी के कारण एक बार फिर उत्तरप्रदेश में भाजपा के साथ जनमत दिखाई दिया. उत्तरप्रदेश के नगरनिगमों की बात की जाए तो राजनीतिक तौर बहुजन समाज पार्टी लोकसभा की हार को भूलकर आगे बढ़ती हुई दिखाई दी है. भले ही उसे मात्र दो नगर निगम मिले हैं, लेकिन कई स्थानों पर वह दूसरे स्थान पर रही है. लेकिन कांगे्रस और समाजवादी पार्टी को एक भी नगर निगम नहीं मिलना यही संकेत करता है कि आज इन दोनों दलों को फिर से गंभीरता पूर्वक विचार मंथन करना होगा.
उत्तरप्रदेश के स्थानीय निकायों की जीत के साथ भाजपा का मनोबल तो बढ़ा ही है, साथ ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के राजनीतिक प्रभाव में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुई है. जहां पूर्व में योगी आदित्यनाथ के बारे में कुछ आशंकाएं जताई गर्इं, वह सब निरर्थक ही साबित होती हुई दिखाई दे रही है. इस चुनाव की सबसे खास बात यह भी है कि पूरे प्रदेश की कमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ही संभाली थी. इस चुनाव से यह भी प्रमाणित हुआ है कि भाजपा के पास चुनाव जिताने के लिए और भी चेहरे हैं, जबकि अन्य राजनीतिक दलों का अध्ययन किया जाए तो वह सभी भाजपा से काफी पीछे ही दिखाई देते हैं. उत्तरप्रदेश में राजनीतिक प्रभाव रखने वाले चार दल हैं. जिनमें भाजपा, कांगे्रस, सपा और बसपा हैं. भाजपा को छोड़कर सभी के पास प्रचार करने वाले प्रभावी नेताओं का अभाव ही दिखाई देता है.
कांगे्रस की खानदानी सीट का तमगा हासिल करने वाली सीट पर कांगे्रस चारों खाने चित हो गई. इससे यही संदेश जाता है कि अमेठी की जनता में कांगे्रस के प्रति लगाव लगभग समाप्त ही होता जा रहा है. यही हाल विधानसभा के चुनावों में भी दिखाई दिया. विधानसभा चुनावों में कांगे्रस को भारी पराजय का सामना करना पड़ा. अमेठी की जनता के इस प्रकार के व्यवहार को देखते हुए ऐसा भी लगने लगा है कि अबकी बार राहुल गांधी के सामने भी बहुत बड़ी चुनौती स्थापित हो सकती है.
उत्तरप्रदेश की जीत का संदेश गुजरात की जनता के पास भी गया होगा. इस चुनाव ने यह भी संकेत दिया है कि देश में भाजपा सरकार के पक्ष में वातावरण है और यह गुजरात में होगा. क्योंकि केन्द्र सरकार की योजनाएं केवल उत्तरप्रदेश के लिए ही नहीं थी, बल्कि गुजरात के लिए भी हैं. इसलिए स्वाभाविक रुप से यही कहना तर्कसंगत होगा कि गुजरात के चुनाव में विपक्षी दल कितना भी जोर लगा लें, भाजपा को पराजित करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी है. इसी प्रकार जिस प्रकार से अमेठी में कांगे्रस पराजित हुई है, उससे भी यही संदेश जाएगा कि राहुल गांधी अमेठी में कांगे्रस को जिता पाए तो गुजरात में कितना प्रभाव छोड़ पाएंगे. और फिर सबसे बड़ी बात यह भी है कि गुजरात में कांगे्रस के कार्यकर्ताओं के पास मनोबल की कमी है. उत्तरप्रदेश के परिणामों ने भी इस मनोबल को और कम किया होगा. जिसका सीधा प्रभाव कांगे्रस पर हो सकता है.
राजनीतिक दृष्टि से आंकलन किया जाए तो यह स्वाभाविक रुप से परिलक्षित होता है कि देश की राजनीति भाजपा का विजय रथ अभी भी सरपट दौड़ रहा है. और विपक्षी राजनीतिक दल सहारे की तलाश कर रहे हैं. उत्तरप्रदेश के स्थानीय निकाय परिणामों ने देश को बहुत बड़ा राजनीति संदेश दिया है. इसके अलावा गुजरात चुनाव में भी राजनीतिक चुनाव प्रचार का जो स्वरुप दिखाई दे रहा है, वह यह तो सिद्ध करता ही है कि आज पूरा देश राष्ट्रवादिता की तरफ अपने कदम बढ़ा चुका है. स्पष्ट रुप से कहा जाए तो हिन्दुत्व की चिन्ता सभी दल करने लगे हैं. जो कांगे्रस पहले हिन्दुत्व से दूर भागती थी, उसके नेता मंदिरों के चक्कर लगा रहे हैं. हालांकि यह केवल राजनीति भर ही है, लेकिन आज पूरी राजनीति धु्रवीकरण के मुहाने पर खड़ी होती दिखाई दे रही है.
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