जम्मू कश्मीर की सत्ता जाते ही, महबूबा मुफ्ती के स्वर भी बदलने लगे हैं। उन्होंने अभी हाल ही में कहा है कि उनकी पार्टी को तोडऩे के प्रयास किए गए तो कश्मीर में 1990 जैसे हालात बन जाएंगे, इस बयान से ऐसा ही लगता है कि जैसे 1990 के हालात के लिए पीडीपी ही जिम्मेदार है, वह जानती है कि ऐसे हालात कैसे बनाए जाते हैं। मेहबूबा मुफ्ती का आतंकवादियों के प्रति उनका नरम रवैया किसी से छिपा नहीं रहा है। अब तो उन्होंने आतंकी पैदा करने की धमकी देकर अपने अंदर आतंकियों व पाकिस्तान के प्रति छिपे प्रेम को सरेआम उजागर कर दिया है। उन्होंने यह कहकर आतंकियों की पैरवी की है कि यदि उनकी पार्टी में तोडफ़ोड़ की गई तो सलाउद्दीन व यासिन मलिक जैसे आतंकवादी पैदा होंगे। आतंकी पैदा करने की बात करके महबूबा मुफ्ती देश को क्या संदेश देना चाहती हैं। महबूबा मुफ्ती को यह समझना चाहिए कि उनकी पार्टी के अंदर जो भी चल रहा है, वह उन्हीं के कर्मों का फल है। वह खुद तो अपना घर संभाल नहीं पा रही है और दूसरों पर इसका दोषारोपण मढ़ कर अपनी नाकामियों को छिपाने में लगी हुई है।
पीडीपी की वास्तविकता यह है कि यह पार्टी केवल एक परिवार की पार्टी बनकर रह गई है। इसमें आम कार्यकर्ताओं के बारे में सौतेला जैसा व्यवहार किया जाता है। चाहे पार्टी में कोई पद देने की बात हो या फिर सत्ता की मलाई खाने की बात हो, महबूबा ने दोनों में अपने परिवार के लोगों को महत्व दिया। ऐसे में पार्टी में बगावत होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसका भाजपा पर दोष मढऩा किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार जम्मू कश्मीर में दूसरी पार्टी नेशनल कांफें्रस की बात की जाए तो कमोवेश उसके हालात भी लगभग पीडीपी जैसे ही हैं, उसके नेता भी केवल अपने परिवार पर केन्द्रित करके पूरी पार्टी का संचालन करते दिखाई देते हैं। इन्होंने भी अपने बयानों के माध्यम से अलगाववदी नेताओं का समर्थन करने जैसे बयान दिए हैं।
जम्मू कश्मीर में चुनाव के बाद जब पीडीपी के साथ भाजपा ने गठबंधन कर सरकार बनाई, तब महबूबा को भाजपा ने कश्मीर की जनता के हितों को ध्यान में रखकर उसका समर्थन किया, लेकिन महबूबा का रवैया नहीं बदला। महबूबा मुफ्ती ने कश्मीरी हिन्दुओंं को घाटी में बसाने के लिए भी कोई कदम नहीं उठाए। भारतीय जनता पार्टी का कश्मीरी हिन्दुओं के बारे में प्रारंभ से ही यह उद्देश्य रहा है कि कैसे भी करके उनकी वापसी के बारे में सोचा जाए, लेकिन महबूबा शुरु से ही इस तिकड़म में लगी रहीं कि विस्थापित कश्मीरी पंडितों का मुद्दा ही न उठ पाए। उल्लेखनीय है कि कश्मीर में अलगाववादी आतंकियों के बढ़ते प्रभाव और उन्हें मिले राजनीतिक संरक्षण के चलते कश्मीरी हिन्दुओं को वहां से विस्थापित होना पड़ा।
पूरा देश इस बात का गवाह है कि महबूबा मुफ्ती के मुख्यमंत्रित्व वाले कार्यकाल में किस तरह से रमजान के दिनों में आंतकवादियों और पत्थरबाजों ने वहां तांडव किया। बेगुनाह लोगों का कत्ल किया गया, पत्रकारों की हत्या हुई। इसे या तो राज्य सरकार की नाकामी कहा जा सकता है या आतंकियों को ऐसा करने के लिए राजनीतिक संरक्षण माना जा सकता है। यह बात सही है कि महबूबा की सरकार ने आतंकियों के विरोध में वैसे कदम नहीं उठाए जैसे उठाने चाहिए। यानी उनकी सरकार का आतंकियों के बारे में हमेशा नरम रवैया ही रहा। अपनी जिम्मेदारी का ठीक से निर्वहन नहीं करना ही सरकार की बहुत बड़ी विफलता ही था, ऐसे में भाजपा ने समर्थन वापस लिया तो यह कदम न्याय संगत ही कहा जाना चाहिए। लेकिन अब महबूबा ने अपना असली रुप दिखा दिया है, उनका भाजपा के प्रति दोस्ताना रवैया कम, आतंकियों के प्रति उदारता ज्यादा दिखाई। इससे जम्मू कश्मीर के हालात और बिगड़ते जा रहे हैं।
उधर, केंद्र सरकार ने विकास के लिए जो पैकेज दिए उसे भी जम्मू कश्मीर की जनता की भलाई के लिए नहीं लगाया गया। वह केवल आतंकियों को सुरक्षित करने वाले एजेंडा पर ही काम करती हुई दिखाई दे रही थीं। कश्मीर में सेना पर हमला करने वाले पत्थरबाजों को बच्चा कहकर उन्हें माफ किया गया। एक तरह से कानून व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई थी। अब कह सकते हैं कि जब से वहां राज्यपाल शासन लागू हुआ है तब से हालातों में सुधार हैं। सारे पत्थरबाज किसी गुफा में छिप गए हैं। खूंखार आतंकवादी मारे जा रहे हैं। कई आतंकवादी जंगलों में छिप गए हैं। ऐसे में जिन राजनीतिक दलों का आतंकियों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन मिलता रहा है, उन्हें अब दर्द तो होगा ही। अब आतंकियों को किसी भी प्रकार का सरकारी संरक्षण नहीं मिल रहा, इसलिए महबूबा ने और आतंकी पैदा करने की बात कही है।
कश्मीर में राज्यपाल शासन लगने के बाद अब जब कश्मीर में शांति व्यवस्था कायम होने लगी है, आतंकवादियों का सफाया हो रहा है और इस सैन्य कार्रवाई से पाकिस्तान भी घबराया हुआ है, तब ऐसे में महबूबा मुफ्ती का बयान निश्चित ही जम्मू कश्मीर के वातावरण में जहर घोलने जैसा है। उनके इस बयान से जाहिर होता है कि वह जम्मू कश्मीर में शांति नहीं चाहती है। वे जिस सलाहुद्दीन व यासीन मलिक जैसे आतंकियों के पैदा करने की धमकी दे रही हैं, उनका इतिहास किसी से छिपा नहीं है। इन दोनों ने ही अलग अलग आतंकवादी संगठन बनाकर देश को नुकसान ही पहुंचाया। सैयद सलाहुद्दीन हिजबुल मुजाहिदीन का सरगना है। उसने 1990 में अपना नाम यूसुफ शाह से बदलकर सैयद सलाहुद्दीन कर लिया था। सलाहुद्दीन ने 1987 में विधानसभा चुनाव लड़ा, लेकिन हार गया। उसी के बाद से उसने हाथों में बंदूक थाम ली। वहीं, यासीन मलिक जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) का प्रमुख है। वह कश्मीर को भारत से अलग करने की वकालत करता रहा है। कश्मीर में शांति से रहने वालों का खून बहाने में इन दोनों ने ही कोई कसर नहीं छोड़ी। अब तो सलाहुद्दीन को अमेरिका द्वारा अंतरराष्ट्रीय आतंकी भी घोषित किया जा चुका है।
पीडीपी में जिस प्रकार के बगावत के सुर बढ़ रहे हैं, उसके मूल में महबूबा की नीतियां ही जिम्मेदार हैं। यह विद्रोही स्वर सरकार जाने के बाद से सुनाई दे रहे हैं, ऐसी बात नहीं है, लेकिन महबूबा पार्टी के घमासान को जिस प्रकार से मोड़ देने का प्रयास कर रही हैं, उससे ऐसा ही लगता है कि वर्तमान में वह बौखला रही हैं। हम जानते हैं कि जब भाजपा के साथ यहां सरकार थी, तब भी पीडीपी में बगावत के सुर सुनाई देते रहे हैं। अलबत्ता अब इतना जरूर हुआ कि भाजपा से समर्थन वापस लेने के बाद पीडीपी के असंतुष्ट विधायक खुल कर महबूबा के खिलाफ आ गए हैं और महबूबा इसका ठीकरा वह भाजपा पर फोड़कर अपना दामन बचाना चाहती हैं।