जामनेर (तेज समाचार डेस्क). देशभर मे मॉब लिंचिंग और दलित उत्पीडन की लगातार हो रही घटनाओं को लेकर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने वाला विपक्ष की लोकतंत्र को खतरा बताने वाली जनसंवेदना और उस पर सरकार के दाइत्व, इन दोनों बिंदुओं पर बना संभ्रम इस उदाहरण से सामने आता दिखायी पडा. जब वाकडी दलित कांड की आवाज नागपुर मानसून सत्र में कहीं भी सुनाई नहीं दी. वैसे समाज ने आंदोलनों के जरिए सूबे में सड़कों पर उतरकर घटना के विरोध में रोष व्यक्त करने में कोई कसर नहीं रखी. लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि लोकतंत्र के मंदिर में किसी भी जनप्रतिनिधि ने वाकड़ी अत्याचार पर संजीदगी व्यक्त करना उचित नहीं समझा. न कोई लक्ष्यवेधी, न ही ध्यानाकर्षण. फिर स्थगन प्रस्ताव तो काफी दूर की बात है. इनमें से किसी भी संवैधानिक आयुध के प्रयोग की आवश्यकता किसी भी पार्टी के जनप्रतिनिधि को जरूरी नहीं लगी.
राष्ट्रवादी कांग्रेस के स्थानीय नेताओं से मिली जानकारी के मुताबिक बताया गया कि इस विषय पर चर्चा का प्रस्ताव शीर्ष नेतृत्व द्वारा सदन के समक्ष रखा तो गया था, लेकिन सरकार ने इस को तरजीह नहीं दी. बाद में इस मामले पर अगर कोई लिखित जवाब सरकार की ओर से दिया भी गया होगा, तो वह सार्वजनिक नहीं हो सका है. 10 जून 2018 को सवर्णों द्वारा निजी बावड़ी में तैरने पर अनूसूचित जाति के नाबालिगों को निर्वस्त्र कर की गयी पिटायी वाली वारदात के वीडियो वायरल के बाद पीडितों की सांत्वना और मदद के लिए गांव में नेताओं की बाढ़ सी आ गयी थी. दौरान मीडिया साक्षात्कारों में बावडी के कथित पंचनामे को लेकर कठघरे में खडी की गयी पुलिस को बगैर जांच के क्लीन चिट मिल गयी.
राहुल गांधी ने भी ट्विटर पर इस मामले की निंदा और सरकार की आलोचना करने का मौका नहीं गवाया. मामला कोर्ट मे न्यायलंबित है. सरकार ने पीड़ितों के पुनर्वास के लिए कुछ प्रयास करने की जहमत उठायी तो है, पर कार्यवाही बेहद धीमी है. सरकारी फ़ाइलों में रजिस्टर्ड हजारों एनजीओ में से किसी एक ने भी अपने मानवीय संवेदनाओं का अब तक परिचय नहीं दिया है. आज पीड़ित परिवारों की सुध लेने वाला कोई नहीं हैं. कल तक उनकी सुरक्षा में तैनात पुलिस दस्ता हटा लिया गया है. कहीं न कहीं निर्भयता तो है पर अभय नहीं.
प्रकरण की कवरेज करते तेज समाचार ने मामले की गुंज मानसून सत्र में सुनाई पड़ने की संभावना की खबर को प्रमुखता से प्रकाशित किया था, बावजूद इसके आखिर ऐसा क्या हुआ कि सदन के मानसून सत्र में इन गरीब पीडितों की आवाज उठाने के लिए किसी भी विधायक ने और न ही सत्तापक्ष ने वह दमखम नहीं दिखाया, जो सांत्वना दौरों में उनके पार्टी नेताओं के चेहरों पर झलक रहा था. क्या पीड़ितों के प्रति नेताओं की आस्था केवल हमेशा की तरह पोलिटिकल स्टंट था? जमूरियत के इतिहास में ऐसे कई किस्से और अनुभव है जो लोकतंत्र के विडंबन से लदे पड़े है, जिनमें किसी भी प्रकार के उत्पीडन को लेकर राजनीति तो जमकर होती है, पर पीड़ितों को उनका खोया सम्मान शायद ही कभी मिल पाया हो. अभी तो उत्पीडन की घटनाएं ऐसा अजिब राजनीतिक ट्रेंड बन चुकी है, जो केवल नेताओं की इमेज चमकाने के लिए महत्वपूर्ण साबित हो रही है. चाहे सत्तापक्ष हो या फिर विपक्ष, ऐसा कटाक्ष बुद्धिजीवियों में किया जाने लगा है.