लखनऊ. एक कहावत है कि जुल्म जब हद से आगे निकल जाता है, तो वह अपराध को जन्म देता है. इतिहास गवाह है कि चंबल की घाटी में जितने भी डाकुओं का आतंक रहा है, उनकी पृष्ठभूमि में उन पर हुए जुल्मों की दास्तां छिपी हुई थी. जुल्म भी ऐसे जिसके बारे में सुन कर मानवता शरमा जाए. जुल्म भी ऐसा, जिसकी सुनवाई कहीं नहीं हो सकती, क्योंकि जुल्म करनेवाला कोई और नहीं बल्कि समाज का रक्षक ही हो, तो एक आम आदमी क्या करें. एक ओर जहां देश की सरकार आदिवासियों के उत्थान के लिए दिन-रात काम कर रही हैं, वहीं छत्तीसगढ़ में पुलिस द्वारा ही वहां के आदिवासियों पर बेइंतेहा जुल्म ढाए जा रहे हैं. छत्तीसगढ़ सरकार में एक महिला अधिकारी प्रशासन से इतना तंग आ गईं कि उन्होंने एक फेसबुक पोस्ट लिख डाली. इस पोस्ट में उन्होंने शासन के काम करने के तरीकों पर सवाल उठाते हुए लिखा कि क्या वह आदिवासी लोगों के कथित उत्पीड़न की अनुमति देता है. हालांकि बाद में उन्होंने उस पोस्ट को डिलीट कर दिया, लेकिन इससे पहले यह पोस्ट वायरल हो गई और छत्तीसगढ़ पुलिस का काला चेहरा दुनिया के सामने बेनकाब हो गया.
हफिंगटन पोस्ट की ख़बर के अनुसार, सुकमा ज़िले में सीआरपीएफ के जवानों पर माओवादी हमले के मद्देनज़र उनकी टिप्पणी सोशल मीडिया पर व्यापक रूप से साझा की गई थी. जेल विभाग ने उसके आरोपों के आधार पर एक जांच का आदेश दिया है.
वर्षा डोंगरे रायपुर के केंद्रीय कारागार में डिप्टी जेलर के पद पर तैनात हैं. उन्होंने अपनी पोस्ट में अपनी मन की पीड़ा के साथ लिखा कि, मुझे लगता है कि एक बार हम सभी को अपने गिरेबान झांकना चाहिए, सच्चाई खुद ब खुद सामने आ जाएगी. घटना में दोनों तरफ मरने वाले अपने देशवासी हैं…, भारतीय हैं. इसलिए कोई भी मरे तकलीफ हम सबको होती है. लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था को आदिवासी क्षेत्रों में ज़बरदस्ती लागू करवाना… उनको जल, जंगल, ज़मीन से बेदखल करने के लिए गांव का गांव जलवा देना, आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार, आदिवासी महिलाएं नक्सली हैं या नहीं, इसका प्रमाण पत्र देने के लिए उनका स्तन निचोड़कर दूध निकालकर देखा जाता है. टाइगर प्रोजेक्ट के नाम पर आदिवासियों को जल, जंगल, ज़मीन से बेदखल करने की रणनीति बनती है, जबकि संविधान के अनुसार 5वीं अनुसूची में शामिल होने के कारण सैनिक व सरकार का कोई हक नहीं बनता आदिवासियों के जल, जंगल और ज़मीन को हड़पने का….आखिर ये सबकुछ क्यों हो रहा है? नक्सलवाद खत्म करने के लिए… लगता नहीं.
वर्षा के अनुसार- सच तो यह है कि सारे प्राकृतिक खनिज संसाधन इन्हीं जंगलों में हैं, जिसे उद्योगपतियों और पूंजीपतियों को बेचने के लिए खाली करवाना है. आदिवासी जल, जंगल, ज़मीन खाली नहीं करेंगे क्योंकि यह उनकी मातृभूमि है. वो नक्सलवाद का अंत तो चाहते हैं लेकिन जिस तरह से देश के रक्षक ही उनकी बहू बेटियों की इज्ज़त उतार रहे हैं, उनके घर जला रहे हैं, उन्हे फ़र्जी केशों में चारदीवारी में सड़ने भेजा जा रहा है… ऐसे में आख़िर वो न्याय प्राप्ति के लिए कहां जायें. ये सब मैं नहीं कह रही सीबीआई रिपोर्ट कहती है, सुप्रीम कोर्ट कहता है, ज़मीनी हक़ीकत कहती है. जो भी आदिवासियों की समस्याओं का समाधान करने का प्रयत्न करते हैं, चाहे वे मानवाधिकार कार्यकर्ता हों, चाहे पत्रकार… उन्हें फर्जी नक्सली केसों में जेल में ठूंस दिया जाता है. अगर आदिवासी क्षेत्रों में सबकुछ ठीक हो रहा है तो सरकार इतना डरती क्यों है. ऐसा क्या कारण है कि वहां किसी को भी सच्चाई जानने के लिए जाने नहीं दिया जाता.
मैंने स्वयं बस्तर में 14 से 16 वर्ष की मुड़िया माड़िया आदिवासी बच्चियों को देखा था, जिनको थाने में महिला पुलिस को बाहर कर पूरा नग्न कर प्रताड़ित किया गया था. उनके दोनों हाथों की कलाईयों और स्तनों पर करेंट लगाया गया था, जिसके निशान मैंने स्वयं देखे. मैं भीतर तक सिहर उठी थी कि इन छोटी-छोटी आदिवासी बच्चियों पर थर्ड डिग्री टार्चर किस लिए? मैंने डाक्टर से उचित उपचार व आवश्यक कार्रवाई के लिए कहा.
वर्षा डोंगरे ने लिखा- हमारे देश का संविधान और क़ानून यह कतई हक़ नहीं देता कि किसी के साथ अत्याचार करें. इसलिए सभी को जागना होगा. राज्य में 5 वीं अनुसूची लागू होनी चाहिए. आदिवासियों का विकास आदिवासियों के हिसाब से होना चाहिए. उन पर ज़बरदस्ती विकास ना थोपा जाये. आदिवासी प्रकृति के संरक्षक हैं. हमें भी प्रकृति का संरक्षक बनना चाहिए ना कि संहारक. पूंजीपतियों के दलालों की दोगली नीति को समझें …किसान जवान सब भाई-भाई हैं. अतः एक दूसरे को मारकर न ही शांति स्थापित होगी और ना ही विकास होगा. संविधान में न्याय सबके लिए है, इसलिए न्याय सबके साथ हो.
अपने अनुभवों को साझा करते हुये वर्षा डोंगरे ने लिखा कि हम भी इसी सिस्टम के शिकार हुए लेकिन अन्याय के खिलाफ जंग लड़ी, षड्यंत्र रचकर तोड़ने की कोशिश की गई, प्रलोभन रिश्वत का ऑफर भी दिया गया, वह भी माननीय मुख्य न्यायाधीश बिलासपुर छत्तीसगढ़ के समक्ष निर्णय दिनांक 26/08/2016 का पैरा 69 स्वयं देख सकते हैं लेकिन हमने इनके सारे इरादे नाकाम कर दिए और सत्य की विजय हुई… आगे भी होगी.
वर्षा ने लिखा है- अब भी समय है, सच्चाई को समझे नहीं तो शतरंज के मोहरों की भांति इस्तेमाल कर पूंजीपतियों के दलाल इस देश से इन्सानियत ही खत्म कर देंगे. ना हम अन्याय करेंगे और ना सहेंगे. जय संविधान, जय भारत.
वर्षा डोंगरे को एक ईमानदार अधिकारी के तौर पर जाना जाता है. अंग्रेज़ी वेबसाइट हफिंगटन पोस्ट की ख़बर के अनुसार, वर्षा राज्य सरकार के लिये पहले से ही मुश्किल का कारण बनी हुई हैं. छत्तीसगढ़ की बदनाम पीएससी के परीक्षाफल को लेकर 2007 में उनकी याचिका पर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को पहले ही फटकार लगाई थी और वर्षा डोंगरे के पक्ष में ऐतिहासिक फैसला दिया है. हालांकि वर्षा इस मामले को फिर से सुप्रीम कोर्ट में ले कर जा चुकी हैं. इस बारे में जब वर्षा से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वह सिर्फ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करती हैं और उसके लिए खड़े रहना चाहती हैं.
हंफिगटन पोस्ट की ख़बर के मुताबिक़, जेल अधिकारी ने वर्षा डोंगरे की फेसबुक पोस्ट के मामले में जांच के आदेश दिए हैं. ख़बर के अनुसार, ऐसा भी कहा जा रहा है कि डीआईजी रैंक का एक अधिकारी जेल में हुए इस मामले की जांच करेगा.