आज कल फेसबुक-व्हॉट्सऐप पर ऐसी कई सारी तस्वीरे या वीडियो देखने को मिलते हैं, जिसमें बच्चे भीख मांगते या फिर सड़कों पर कुछ बेचते हुए दिखाई देते है. कुछ बच्चे किसी होटल या ऐसे ही किन्हीं स्थानों पर मजदूरी करते हुए दिखाई देते है. इन तस्वीरों या इन वीडियो को देख कर हमारे मन में करुणा जाग उठती है. सबसे पहला वाक्य जो हमारे मुख से निकलता है या जो भावना हमारे मन में जागृत होती है, वह है, इन बच्चों का बचपन. हम कहते है कि खेलने-कूदने और पढ़ने की उम्र में इन बच्चों पर जिम्मेदारियों का बोझ लाद दिया गया. लेकिन विचारणीय बात यह है कि जिस सोच को हम जगजाहिर कर के स्वयं को महान मानवीय दिखाने या बताने का प्रयास करते है, तो हम अपने बच्चों के साथ क्या करते हैं? फर्क सिर्फ तस्वीर का है. गरीबों के बच्चों पर उनके माता-पिता या परिस्थितियां जिम्मेदारियों का बोझ लाद देते है और हम अपने बच्चों पर अपनी महत्वाकांक्षाओं का बोझ लाद देते है. महत्वपूर्ण बात है कि इसमें सबसे बड़ी भूमिका बच्चे के मां-बाप की ही होती है और विशेष बात यह है कि दोनों को इस बात का एहसास तक नहीं होता है कि हमारी महत्वाकांक्षाओं के बोझ के नीचे हमने अपने ही बच्चे का बचपन छीन लिया है.
वास्तव में इन सबसे के लिए आज की परिस्थितियां जिम्मेदार है. दौर प्रतियोगिता का है. हमारी पीढ़ी ज्यादा से ज्यादा पाने और अपना जीवन स्तर उच्च बनाने की जद्दोजहद में प्रतियोगिता का हिस्सा बन गए है और अपने बच्चे के पैदा होते ही उसे भी उस प्रतियोगिता में शामिल कर लिया है.
– बच्चे के जन्मते ही थोपी जाती है इच्छाएं
बच्चा पैदा होते ही हम डिसाइड कर लेते है कि वह बड़ा हो कर क्या बनेगा. बस यहीं से शुरू होती है बच्चों की मानसिक प्रताड़ना, जिसका एहसास न बच्चे को होता है और न माता-पिता को. यहां तक कि बच्चा जब नवजात होता है, उसके लिए अपनी परिस्थितियों अनुसार नहीं बल्कि दूसरों की तुलना में हम वस्तुएं खरीदते है. थोड़ा बड़ा हो जाए, तो उसके खिलौने भी हम दूसरों की तुलना करके ही महंगे खरीदते है. इसके बाद जब वह स्कूल जाने लगाता है, तो उस पर अच्छे अंक लाने का बोझ लाद देते है. लेकिन हमारी इन महत्वाकांक्षाओं के साथ हम यह विचार कभी नहीं करते है कि हम अपने बच्चों को कितना समय देते है. क्योंकि माता-पिता दोनों अपना करियर बनाने के लिए सुबह से शाम तक दौड़ते रहते हैं. शाम तक बच्चा अपने माता-पिता से दूर किसी और ही दुनिया में जीता है. इन लंबे घंटों में उसकी मानसिकता में लगातार नए-नए परिवर्तन होते रहते है. शाम को जब बच्चे के माता-पिता घर लौटते है, तो उनमें इतनी क्षमता नहीं होती कि वे बच्चे की खुशियों में शामिल हो सके. माताएं तो शाम को घर लौटने पर पहला सवाल करती है कि होमवर्क किया या नहीं? टीचर ने आज क्या कहा? तुम्हारी हेंडराइटिंग बिगड़ गई है, वगैरा-वगैरा.
गौर करनेवाली बात यह है कि सभी बच्चे एक जैसी मानसिकता वाले नहीं होते. हर बच्चे की सोच, हर बच्चे को पूरे दिन मिलनेवाला माहौल बिल्कुल अलग होता है. यहां तक कि दो जुड़वा बच्चों की मानसिकता भी एक ही घर में एक ही माहौल में रहने के बाद भी जुदा होती है.
अपने चारों ओर के माहौल में कुछ ही बच्चे ऐसे होते है, जो उसे अपनी इम्यूनिटी के कारण अपना लेते है, लेकिन ज्यादातर बच्चे अपने आस-पास के माहौल के कारण तनाव में रहने लगते है. परिणाम स्वरूप में जिद्दी हो जाते है, उनका पढ़ने में मन नहीं लगता और फिर ये बच्चे अपने माता-पिता, रिश्तेदार, दोस्तों, पड़ौसियों की उपेक्षा का शिकार होने लगते है. लेकिन बच्चों के माता-पिता ऐसे में भी बच्चे में हो रहे परिवर्तन के कारणों पर गौर नहीं करते. कुछ माता-पिता समझदार होते है, जो ऐसी स्थिति में बच्चों की काउंसलिंग कराते है. लेकिन अधिकतर बच्चों को ये नसीब ही नहीं होता.
पुणे की प्रख्यात काउंसलर नीतल शिंगारे बताती है कि जब उनके पास माता-पिता अपने बच्चों की काउंसलिंग के आते है और जब वह बच्चों से बात करती है, तो पता चलता है कि काउंसलिंग की जरूरत बच्चों को नहीं, बल्कि माता-पिता को होती है. नीतल बताती है कि आज के माता-पिता की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे न तो अपने बच्चों को ठीक से समझते है और न उनकी बातों पर गौर करती है. वे सिर्फ अपने आप में व्यस्त रहते हैं.
– अपने बच्चों की तुलना न करें
नीतल शिंगारे बताती है कि माता-पिता की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे अपने बच्चों की तुलना अन्य बच्चों से करने लगते है, जो कि पूरी तरह से गलत है. तुलना सदैव बराबरी में या समान वस्तुओं की ही हो सकती है. जैसे एक ही कंपनी की एक ही मॉडल की दो बाइक है. इसमें एक बाइक कम मायलेज देती है और दूसरी ज्यादा. तब कम मायलेज वाली बाइक की तुलना ज्यादा माइलेजवाली बाइक से करके उसमें सुधार किया जा सकता है और कम माइलेजवाली बाइक का माइलेज बढ़ाया जा सकता है. लेकिन एक बाइक दूसरी कंपनी की और दूसरी बाइक दूसरी कंपनी की होने पर तुलना करना उचित नहीं है. नीतल बताती है कि मशीन, वस्तु आदि में तुलना करते समय हम इन बातों का बड़ी ही समझारी से अध्ययन करते है. लेकिन बात जब अपने बच्चों की आती है, तो हम इन बातों को भूल जाते है. वास्तविकता यह है कि जीव में कभी भी तुलना नहीं करनी चाहिए. प्रत्येक जीव की क्षमता भले ही उनकी शारीरिक बनावट एक जैसी हो, भिन्नता होती है. एक ही माता-पिता से जन्मे दो बच्चे पूरी तरह से भिन्न होते है. एक बच्चा पढ़ने में होशियार होता है, तो दूसरा क्षमतावान होता है, तो कोई बच्चा दोनों ही विधाओं में अच्छा और बुरा दोनों हो सकते है. नीतल शिंगारे उदाहरण देते हुए कहती है कि एक परिवार है, जिसमें परिवार के सभी सदस्य अच्छे तैराक है. लेकिन उनके घर में जन्म लेनेवाला बच्चा बचपन से ही पानी से डरता है. इस स्थिति में परिवार के लोग तुरंत इस बात को प्रतिष्ठा का विषय बना लेते है कि लोग क्या कहेंगे? लोग कहेंगे कि बच्चे के माता-पिता इतने अच्छे तैराक है और बच्चा पानी से डरता है. कई सारे लोग ऐसे होते है कि इस परिवार की स्थिति का मजाक उड़ाने से नहीं चूकते. ऐसे में हमें चाहिए कि इस बात को प्रतिष्ठा का विषय न बनाते हुए, हमें लोगों की बातों का उनकी मानसिकता को समझते हुए उन्हें अपने बच्चे के सामने ही सटिक जवाब देना चाहिए. जैसे आप जवाब दे सकते है कि ‘हमारा बेटा पानी से बिल्कुल नहीं डरता, बल्कि उसे तैरना नहीं आता है, इसलिए आपको लगता है कि वह डर रहा है. देखना, वह हमसे भी अच्छा तैराक बनेगा.’ आपके इस जवाब का अपने बच्चे की मानसिकता पर निश्चित ही सकारात्मक परिणाम होगा. क्योंकि सारी दुनिया भले ही उसे हतोत्साहित कर रही हो, लेकिन उसके अपने माता-पिता उसके साथ खड़े है. इसके बाद जब आप धीरे-धीरे पानी के प्रति उसका डर उसके मन से निकाल देंगे, तब आप देखेंगे कि उसके जीवन में किनता आश्चर्य जनक परिवर्तन आएगा. यदि आप ऐसा नहीं करेंगे, तब वह न तो कभी तैराक बन पाएगा और न पढ़ाई में अच्छा कर पाएगा.
– हमारी प्रताड़ना का शिकार होते है बच्चे
नीतल बताती है कि अमूमन होता है कि माता-पिता बच्चों पर अच्छे परसेंटेज के लिए दबाव बनाते है. यदि अच्छे मार्क्स न आए, तो वे बच्चों को अपने तरीके से प्रताड़ित करते है. नीतल बताती है कि उनके पास एक बच्चा अपने माता-पिता के साथ आया था. वह बिल्कुल भी बोलता नहीं था. चेहरे से थोड़ा सहमा हुआ दिखाई दे रहा था. माता-पिता ने बताया कि यह काफी जिद्दी हो गया है और पढ़ाई बिल्कुल भी नहीं करता. अपने आप में खोया रहता है. किसी से बात नहीं. बात-बात पर गुस्सा करता है.
माता-पिता की पूरी बात सुनने के बाद मैं बच्चे को अपने काउंलिंग रूम में ले कर गई. वहां भी बच्चा सहमा हुआ ही दिखाई दे रहा था. मैंने सबसे पहले उसे टॉफी दी और उससे दोस्ती की. बातों-बातों में उसने बताया कि उसे पढ़ना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता बल्कि बोरिंग लगता है. इसके बाद मैंने बच्चे को इल्ली से तितली बनने की प्रक्रिया की छोटी सी क्लिप दिखाई और उसे वह पूरी प्रक्रिया लिख कर दिखाने के लिए कहा. सिर्फ 10 मिनट में ही बच्चे ने काफी सुन्दर शब्दों में वह प्रक्रिया लिख कर दिखाई. तब मैंने बच्चे की प्रशंसा करते हुए कहा कि आप तो काफी होशियार है. इससे बच्चे का आत्मविश्वास बढ़ गया और वह मुझसे खुल गया. फिर मैंने उसे उसके बारे में पूछा कि तुम्हारा मम्मी-पापा ऐसा क्यों कहते है कि तुम जिद्दी हो, गुस्सा करते हो. तब बच्चे ने बताया कि जब मुझे कुछ आता नहीं, तब मुझे कोई बताता ही नहीं कि वह कैसे करना है. फिर पापा गुस्सा करते है और मुझे बाथरूम में बंद कर देते है.
नीतल बताती है कि बच्चे की इन बातों को सुन कर मुझ लगा कि यहां काउंसलिंग की जरूरत बच्चे को नहीं बल्कि उसके मम्मी पापा को है. फिर मैंने पहले तो बच्चे का आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए उसे कुछ बातें बताई, जिसे उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया, क्योंकि अब मैं उसकी दोस्त बन चुकी थी. फिर मैंने वह सारी बातें उसके मम्मी पापा को बताई और उन्हें एहसास कराया कि आपके व्यवहार की वजह से वह ऐसा हो गया है.
– अपने बच्चे के दोस्त बनिए
नीतल बताती है कि बच्चों को अच्छे कपड़े, खिलौने, खाना देना ही पर्याप्त नहीं है. महत्वपूर्ण है कि हम उन्हें पर्याप्त समय दें. उनके साथ खेले, उनसे बातें करें, उनकी सुने. फिर वह आप जैसा कहेंगे, वैसा ही करेंगे. माता-पिता यदि बच्चे के दोस्त बन कर उनके साथ दोस्तों जैसा व्यवहार करें, तो उस घर के बच्चों को कभी भी इस प्रकार की कोई शिकायत नहीं होती है. इसलिए बच्चों पर अपनी महत्वाकांक्षाएं थोपने की बजाय उनके दोस्त बन कर उनकी क्षमताओं के अनुरूप ही उन्हें वह सब करने दें, जो वे करना चाहते है. आपका काम सिर्फ उनकी गतिविधियों पर ध्यान देना है. उन्हें सब कुछ करने दें और फिर उनके द्वारा किए गए कामों पर अच्छा-बुरा क्या है, इसकी समझ दें. विश्वास मानिए, आपके बच्चे दुनिया के सबसे अच्छे बच्चे साबित होंगे.