
जिस तरह किसी सत्ता का आधार संगठन होता है। उसी प्रकार बौद्धिक समाज का आधार शिक्षा होती है। लेकिन जब ये समस्त कारक एक दूसरे के क्षेत्र में दखल देने लगते हैं तो सामाजिक,सांस्कृतिक, बौद्धिक और शैक्षणिक व्यवस्थाएं धीरे-धीरे दम तोड़ने लगती है। देश के हृदय प्रदेश माने जाने वाले मध्यप्रदेश में संगठन की मेहनत रंग लाई और एक राजनैतिक पार्टी सत्ता पर आसीन हुई। सरकार बनने के बाद महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों में राजनैतिक दखल बढ़ने लगा। जिसके कारण शिक्षा के मंदिर राजनीति के अखाड़ों में तब्दील होते गये। आज आलम यह है कि किसी विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद का सदस्य कौन होगा या कुलपति जैसे जिम्मेवार पद पर कौन विराजेगा यह राजनैतिक रसूख वाले व्यक्ति तय कर रहे हैं। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि राजनेता प्रमुख पदों पर अपने व्यक्ति बिठा कर कार्यकर्ताओं का कल्याण कर कृपा बरसाने की इच्छा रखते हैं। हालांकि प्रदेश के अधिकांश विश्वविद्यालयों में पद खाली होने के बावजूद भर्तियां अधर में हैं। चहेतों की भर्तियों को लेकर कुछ विश्वविद्यालय इस कदर बदनाम हुये कि सत्ता, संगठन और बौद्धिक तक इनकी दिशा, दशा और गिरती साख को नहीं बचा सके। केन्द्र में सरकार होने के बाद भी प्रदेश के विश्वविद्यालयों की न रैकिंग सुधरी और न ही बजट के आंकड़ों में कोई परिवर्तन हुआ।
विद्यार्थियों के लिये प्रयोगशाला, उपकरण, पठन सामग्री और प्रोत्साहन सुसज्जित कार्यों के लिये हमेशा धन की कमी का रोना रोने वाले विश्वविद्यालयों के पास आयोजनों के लिये इतना बजट है जो उनकी झोली में नहीं समा रहा है। राज्य के कुछ विश्वविद्यालयों में तो प्रवेश लेने का तात्पर्य ही अपना भविष्य खराब करने जैसा हो गया है। क्योंकि इन कतिपय उच्च शिक्षा संस्थाओं का परीक्षा परिणाम भारतीय रेल के माफिक ज्यादातर देर सबेर आता है। जिसके कारण विद्यार्थी कई प्रतियोगी परीक्षाओं में शामिल होने से वंचित रह जाते हैं। महाविद्यालयों में शिक्षण कार्य करने वाले या तो लोक सेवा आयोग से चयनित हैं या फिर अतिथि विद्वान के रूप में योग्य शिक्षक। लेकिन कुछ विश्वविद्यालयों में तो राजनैतिक गलियारों में पले बढ़े और चाटुकारिता की योग्यता हासिल कर विद्वान के रूप में विद्यार्थियों को शिक्षित करने का काम पिछले कई वर्षों से बदस्तूर कर रहे हैं।
कुछ वर्ष पहले तक महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों की समस्याएं सरकार तक पहुंचाने के लिये छात्र संगठन और उनके प्रतिनिधि हक की लड़ाई लड़कर न्याय के लिए जद्दोजहद करते थे, लेकिन वर्तमान में शैक्षणिक संस्थाओं में पक्ष विपक्ष कहीं नजर ही नहीं आ रहे हैं। मध्यप्रदेश के शिक्षा जगत में विद्यार्थी परिषद और एनएसयूआई जैसे संगठनों से जुड़कर अपने हितों के लिए सरकार को झुका देने वाली छात्र शक्ति आज अपने भविष्य की चिंता में कहीं गुम होती जा रही है। उच्च शिक्षा के लिये स्थापित विश्वविद्यालय आज सर्टिफिकेट, डिप्लोमा और स्नातक स्तर के पाठ्यक्रमों को संचालित करने में इतने व्यस्त हो गये हैं कि यथार्थ उच्च शिक्षा अर्थात् शोध के लिए छात्रों को मूलभूत सुविधाएं ही उपलब्ध नहीं करवा पा रहे हैं।
राजधानी स्थित पत्रकारिता विश्वविद्यालय के प्रबंधन के सामने तो प्रदेश सरकार ही बौनी नजर आने लगी। छात्र पंचायत में उठी विद्यार्थियों की मांग पर सरकार ने फीस कम करने का आश्वासन दिया था। लेकिन विश्वविद्यालय ने छात्रहित और सरकार की मंशा को दरकिनार कर पीएचडी की फीस मनमाफिक वसूली। शुल्क के मामले में निजी और शासकीय विश्वविद्यालयों में जैसे एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ लगी हुई है। प्रदेश के कुछ विश्वविद्यालयों ने तो नियुक्ति के विज्ञापन निकालना अपना पेशा बना लिया है। उच्च शिक्षा में राजनैतिक दखल से उपजी इस चिंतनीय स्थिति पर सम्मानीय राजनेताओं, राजनैतिक पार्टियों और प्रबुद्ध वर्ग को मंथन कर समाधान ढूंढ़ने होंगे। इस दिशा में जल्द ही कठोर, ठोस और निष्पक्ष निर्णय नहीं लिए गए तो देश में उच्च शिक्षा संस्थान को रहेंगे लेकिन शिक्षा का स्तर और विद्यार्थियों का भविष्य संकट में आ जाएगा। इस स्थिति में भारत विश्वगुरु कैसे बनेगा?

