– एक गाड़ी में भरे जाते है 50-60 मजदूर
– तहसील में अवैध यात्री यातायात का बोलबाला
– बोराडी में सुबह-शाम लगता है मजदूरों का ‘मेला’
शिरपुर (तेज समाचार प्रतिनिधि). सरकारी आंकड़े कागजों पर कुछ की कहानी बयां करते हो, लेकिन विकास की राह पर आगे बढ़ रहे भारत के ग्रामीण इलाकों में मजदूरों की हालत अभी भी काफी बदतर है. दो जून की रोटी की जुगत में ये मजदूर अपनी जान जोखिम में डाल कर अवैध यात्री वाहनों से मीलों का सफर तय करते है और 12 घंटों की कड़ी मेहनत के बाद सिर्फ 100 रुपए पाते है.
उल्लेखनीय है कि जामनेत तहसील का एक तिहाई हिस्सा आदिवासी बहुल है. इन आदिवासियों के विकास के लिए पिछले 70 सालों में करोड़ों रुपयों का निधि आज तक मिल चुका है. लेकिन न जाने आदिवासियों के विकास के नाम पर आया निधि कहा लुप्त हो जाता है, क्योंकि इन आदिवासियों की हालत समय के साथ बद से बदतर होती जा रही है. आज भी इन आदिवासी बहुल इलाकों में आधारभूत सुविधाओं का गहरा अभाव है. इन लोगों को एक इंसान को मिलनेवाली मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं है.
– मनरेगा के बावजूद बाहर मजदूरी को मजबूर है मजदूर
केंद्र सरकार की महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी जैसी महत्त्वाकांक्षी योजना होने के बावजूद तहसील के लगभग सभी आदिवासी गांवों से बाहर मजदूरी के लिए बाहर जाने के लिए मजबूर है. ऐसे में सवाल उठता है कि मनरेगा के तहत मिलनेवाली 200 दिन की मजदूरी की गारंटी कहां है? विशेष बात यह है कि, मजदूरों में नाबालिग लड़के – लड़कियों की संख्या ज्यादा है. ये नाबालिग अपने स्वास्थ्य की चिंता किए बिना अपने परिवार का पेट भरने के लिए अपना बचपन, अपनी किशोरावस्था खोते जा रहे है. मजदूरी के लिये दूसरे स्थान पर जाने के लिए इन लोगों के लिए यातायात की सुविधा न होने के कारण इन लोगों को अवैध यातायात करनेवाली जीप में जाना पड़ता है. इस जीप में करीब 50-60 लोग लदकर जाते है, लेकिन तहसील प्रशासन और यातायात पुलिस आंख बंद किए चुप्पी साधे हुए है.
– सुबह 4 बजे शुरू होती है जिन्दगी
अपने परिवार का पेट भरने के लिए, मात्र 100 रुपए की मजदूरी के लिए ये मजदूर सबेरे 4 बजे उठते है और करीब 40-50 किलोमीटर की दूरी तय कर रात को करीब 8-9 बजे अपने घरों को थके-हारे लौटते है.
– विकास की बातें बेमानी
जब हम विकास की बात करते है, तो दो वक्त की बमुश्किल मिलनेवाली रोटी के लिए अपनी जिन्दगी के 12 घंटों से ज्यादा समय व्यतीत करनेवाले इन आदिवासी मजदूरों का जिक्र होना भी जरूरी है. विशेष बात यह है कि इन मजदूरों को ढोनेवाले वाहन चालकों, मालिकों को मोटा कमिशन मिलता है. यह सब किसकी शह पर हो रहा है, इसके बारे में जांच जरूरी है. आजादी के इतने सालों बाद भी और आदिवासियों के विकास के लिए करोड़ों का निधि मिलने के बाद भी आज भी इन आदिवासियों के हालात सोचने पर मजबूर करते है कि वह कौन है, जो इन मजदूरों के अधिकारों पर डाका डाल रहा है.