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चक्रव्यूह – आरक्षण जेब देखो, जाति नहीं !

Tez Samachar by Tez Samachar
July 28, 2018
in Featured, विविधा
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चक्रव्यूह – आरक्षण  जेब देखो, जाति नहीं !

‘आरक्षण’ इन दिनों समूचे राष्ट्र और महाराष्ट्र का ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है. महाराष्ट्र में ‘मराठा आरक्षण आंदोलन’ हिंसक होकर सरकार की चूलें हिला चुका है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले (50 प्रतिशत से ज्यादा न हो आरक्षण) के कारण फडणवीस सरकार बेबस है. मौजूदा व्यवस्था के तहत देश में अनुसूचित जाति (एससी) के लिए 15 प्रश, अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए 7.5 प्रश और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण, शिक्षा और सरकारी नौकरियों में दिया जाता है. दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों का जीवनस्तर सुधारने के लिए यह व्यवस्था 71 साल पहले लागू की गई थी. सवाल है कि क्या बीते 71 वर्षों में आरक्षण का लाभ उठाने वाले किसी भी समाज या वर्ग की आर्थिक स्थिति और सामाजिक परिस्थिति बिल्कुल नहीं सुधरी? अगर अब तक नहीं सुधरी, तो क्या गारंटी है कि अगले 71 सालों में यह सुधर जाएगी?

साल भर पहले ‘एक मराठा लाख मराठा’ के उदघोष और बेहद अनुशासित मूक मोर्चे के साथ मराठा समाज ने जो आरक्षण आंदोलन शुरु किया था, वह अब अचानक उग्र रूप धारण कर चुका है. इससे आर्थिक के साथ ही राजनीतिक कारण भी जुड़े हैं. तभी तो चुनाव सामने देख कर इतने तीव्र विरोध का बिगुल फूंका गया है. मराठा समाज का कहना है कि महाराष्ट्र में अब तक जितने भी किसानों ने आत्महत्या की है, उनमें से 90 फीसदी किसान मराठा ही थे. अर्थात आर्थिक विपन्नता के कारण कर्ज के बोझ तले दबे मराठा-किसानों ने आत्महत्या कर ली. लेकिन एक रिपोर्ट ऐसी भी है कि राज्य की सर्वाधिक संपन्न और आगे बढ़ी हुई जातियों में मराठों का शुमार है. वर्ष 2007 में हुए एक सर्वे के अनुसार मराठाओं में 40 प्रतिशत परिवार आज भी राज्य की गरीबी रेखा से नीचे निवास करते हैं. मतलब यह कि आर्थिक असमानता की खाई इस समाज में भी है. इसलिए इनकी मांग है कि इन्हें आरक्षण मिलना ही चाहिए. अर्थात आरक्षण, आर्थिक स्थिति सुधारने का सबसे बड़ा ‘हथियार’ है.

इसी ‘हथियार’ को पाने के लिए गुजरात के पाटीदार, राजस्थान के गुर्जर और हरियाणा के जाट भी उग्र आंदोलन कर चुके हैं. ऐसे में महाराष्ट्र के मराठा, धनगर, हलबा और माना-गोवारी समाज भी आरक्षण मांग रहा है, तो इसमें क्या गलत है? अब तो मुसलमानों को भी आरक्षण देने की मांग संसद में उठ चुकी है. विपन्न ब्राम्हणों का एक वर्ग भी हाल ही में आरक्षण की मांग कर चुका है. इन सभी समाज और जाति के लोगों की मांग है कि हर समाज के गरीबों को आरक्षण मिलना चाहिए. यही बात पिछले सप्ताह केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने भी कही थी. तो क्या देश में अब यह नौबत आ चुकी है कि आरक्षण को जाति व समाज के आधार पर नहीं, बल्कि जेब (आर्थिक आधार) देख कर बांट दिया जाए? यानि जाति और समाज को छोड़कर गरीबों और विपन्न वर्ग को (चाहे वे किसी भी समाज या धर्म के हों), आरक्षण दिया जाना चाहिए.

सवाल यह भी है कि जातिगत आरक्षण आखिर कब तक दिया जाना चाहिए? कई आरक्षण-प्राप्त घरों के पांच-पांच सदस्य आज सरकारी सेवा में इसका लाभ उठा रहे हैं, तो उन्हें या उनकी पीढ़ी को अब और आगे आरक्षण की क्या जरूरत है? जबकि कई समाज के गरीब लोग आज भी उच्चशिक्षा और आरक्षण के अभाव में बेरोजगारी झेल रहे हैं. क्योंकि अब 40 प्रतिशत मार्क्स लाने वाले भी डॉक्टर-इंजीनियर बन रहे हैं, जबकि 60 से ज्यादा परसेंटेज लाने वाले बेरोजगारी में पकौड़े तल रहे हैं! यह दर्द मराठा समाज सहित लगभग हर ‘ओपन कास्ट’ वालों को कील की तरह चुभ रहा है. संभवत: इसी कारण मोदी सरकार ने सभी जातियों के विपन्न लोगों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने पर गंभीरता से विचार करना शुरू कर दिया है. यही मांग 10 साल पहले महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने भी की थी. अब देश की आधे से अधिक जनता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से गुहार लगा रही है कि जिस तरह उन्होंने 10 लाख की सालाना आय वाले लोगों से रसोई गैस की सब्सिडी छोड़ने का आहवान किया था, उसी तरह वे 71 साल से आरक्षण का लाभ उठाने वाले ‘धनवानों’ से आरक्षण छोड़ने की अपील करें. इससे यह पता चल जाएगा कि आरक्षण-प्राप्त ‘सफेद हाथियों’ के दिलों में देश के गरीबों के प्रति कितना दर्द है?

– सुदर्शन चक्रधर 96899 26102

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