जिन्दगी: “भीष्मपितामह” वे चुप रहे ….!
महाभारत काल में जो धर्म पालन के नियम थे या जो सूत्र थे उनको समझना जरा कठिन है। लगता है सबका अपना अपना अलग से एक धर्म था और उसका पालन करने का भी अपना ही एक तरीका था। अब ये भीष्मपितामह का ही उदाहरण लेते हैं ,उन्होंने अपने पिता की कामुकता की इच्छा पूरी करना अपना धर्म समझा और उस राह की सब बाधाएं दूर की और तो और अपनी नई माता की इच्छा पूरी करने के लिए स्वयं एक आजन्म अविवाहित और निःसंतान रहने की प्रतिज्ञा भी कर डाली। माना ये उनका पितृ प्रेम था ,पर एक वीर सक्षम और हर तरह से योग्य राजकुमार को कोई राजा मात्र अपनी कामुकता के लिए कैसे सब कुछ निछावर करते देख सकता है। देवव्रत अर्थात भीष्म को इतना तो ज्ञान अवश्यक रहा होगा की वे पुरे देशको तराजू के एक पलड़े में रख रहे हैं और पिता की इच्छा को दूसरे पलड़े में।
क्या कर्त्तव्य था एक राजकुमार का —-क्या वृद्ध पिता की विलासिता के समक्ष देश का कोई मोल नहीं था। देव व्रत ने प्रतिज्ञा कर राजसिंहासन खो दिया था पर पिता ने उससे आजीवन राजसिंहासन की रक्षा का वचन ले लिया और बंध गए , एक और वचन में।भीष्म एक योग्य योद्धा थे ,इनकी अपनी बुद्धि का क्या हुआ ,क्या वे उसे माँ गंगा के साथ विदा कर चुके थे। इतना ही नहीं जो जो उनके जीवनकाल में राजसिंहासन पर बैठा उसकी हर बात उचित हो या अनुचित आँख मूंद कर बुद्धि पर ताला लगा कर मानते रहे दूसरे लोग तो
राज कर्मचारी थे पर ये तो परिवार के प्रधान वा वयोवृद्ध सदस्य थे. धर्म की चर्म सीमा तो वहां देखने वाली है की परिवार के बीच जब राज्य के बटवारे के लिए युद्ध की घोषणा हो गई तब भी ये अधर्म के पक्ष में सेनापति बन युद्ध के लिए सज्ज हो गए. अर्जुन का ह्रदय यदि अपने ही गुरुजनो प्रियजनों और पूजनीय परिजनों पर शस्त्र उठाने के लिए हाहाकार कर रहा था तो भीष्म का ह्रदय शांत कयो था। परिवार के वे सदस्य जो उनको सबसे अधिक प्रिय थे उन्ही को मारने के लिए वे उद्धत हो गए। क्या उनके मन में जरा सी भी संवेदना का संचार नहीं हुआ।
युद्ध के मैदान में विपक्ष में अपने ही परिवार को देख अर्जुन के हाथों से गाण्डीवधनुष गिर गया ,पर क्या भीष्म के हाथोँ में जरा सा कंम्पन भी न हुआ। भीष्म को सिंहासन की रक्षा का भार सौंपा गया था उस पर उचित शासक को स्थापित करना उनका कर्तव्य होना चाहिए था —-पर वे चुप रहे ,जब लाक्षा गृह में पाँडवों को मारने का षड्यंत्र रचा जा रहा था, वे जानते थे —–पर वे चुप रहे ,पांडवों को निष्कासित किया गया पर वे चुप रहे ,पांडवों ने जुए में अपनी पत्नी द्रोपदी को दांव पर लगा दिया —-पर वे चुप रहे ,भरी सभा में द्रोपदी को निर्वस्त्र किया जा रहा था ——पर वे चुप रहे और अब युद्ध में जो अनर्थ होने जा रहा था वो देख कर भी वे चुप रहे।
मात्र एक वचन के लिए जिसके कारण सबका अहित हो रहा हो उसके लिए चुप रह जाना और अपनी आँखों के सामने तमाशा देखते रहना क्या ये उचित था। मैं क्षमा मांगते हुए कहना चाहती हूँ की मुझे इस विशाल भारत भूमि के उस स्वर्णिम काल के सबसे कमजोर व्यक्ति भीष्म ही लगते है जिनके एक निरर्थक वचन से धरती पर अधर्म का प्रारम्भ हुआ और धीरे धीरे पूरी तरह फैल गया। जब कौरव कदम कदम पर अधर्म कर रहे थे तो भीष्म को महाभारत के युद्ध की नहीं धर्म की यलगार करनी चाहिए थी।
तब होती सिंहासन की रक्षा और हो सकता था की स्वार्थ और भ्र्ष्टाचार समाज को इतना दूषित न कर पता। परिणाम— सतयुग का अंत और कलयुग का प्रारम्भ हो गया।
– नीरा भसीन- ( 9866716006 )