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जिन्दगी : आसमान से टपके पर ‘ नीम ‘ में अटके

Tez Samachar by Tez Samachar
February 9, 2019
in Featured, विविधा
0
zindagi
Neera Bhasinचलो जान तो बच गई ,काम तो हो गया ,अंत भला तो सब भला ———बस जिंदगी इन्ही जुमलों की मोहताज हो कर रह गई है। यदि जरा सा सोच विचार करें तो इसे कर्मठता की कमी कह सकता है सभय्ता और संस्कृति बुरी तरह से पिट रही है लेकिन सभी अपने आप को सभ्य और विद्वान् साबित करने की होड़ में लगे दिखाई देते हैं. हम ,सब की जिंदगी में न भी झांकते हों फिर भी अपने आस पास कौन है केसा है ,भला है या बुरा है इस सब का ध्यान बहुत अच्छी तरह से रखते हैं। न तो हमसे किसी की बुराई छिपी है न अच्छाई ,पर हम सब उसमे से वही चुनते है जिसमें हमारा कोई निजी लाभ होता है।  अपने लाभ के लिए हम हर पल त्यार रहते है –    जहाँ मिले जैसे मिले बस बटोर लो लेकिन जब  की बरी आती है तो या तो लोग पीछे हैट जाते हैं या फिर उसी वास्तु के लें देन में रूचि रखेंगे जिसमे अपना स्वार्थ सिद्ध होता हो। ,अपना लाभ हो_फिर वो लाभ  लौकिक है आलौकिक है ,भौतिक है या फिर अपने अगले जनम सुखी जीवन का रजिस्ट्रेशन और मरने के बाद स्वर्ग की प्राप्ति ___कभी तो लोग अपने तथागतित दुश्मन को हानि पहुँचाने के लिए स्वयं को कष्ट देने से भी नहीं चूकते। इसे स्वार्थसिद्धि की पराकाष्ठा कहा जा सकता है।
इतहास में ऐसे कई उदाहरण मिलते है की भारतीय संस्कृति विश्व में सूर्य के सामान रोशन थी ,ज्ञान के सर्वोच्च स्थान पर थी पर मानव जाति कोई वास्तु अधिक दिनों तक हजम नहीं होती सभ्यता भी नहीं हुई। कुछ ऐसे तत्व जो दीमक की तरह होते है वे समाज में बिना किसी आहट के पनपने लगते हैं और अंदर ही अंदर उसे खोखला कर देते हैं।
हम एक तरफ इसका शिकार बन रहे हैं तो दूसरी तरफ इसमें भागीदार भी हैं।
बुराई का अंत करना तो असम्भव है कयनोकी इस पौधे के हर भाग के रेशे रेशे में प्रजनन शक्ति है और दूसरी ओर “सच “सच है न प्रजनन का मोहताज न मृत्यु का पर कठिन डगर है सच की ,इसमें न प्रलोभन है न हिंसा।
पुराने ज़माने में मनोरंजन के साधन रंग मंच खेल तमाशा ,नुक्क्ड़ नाटक आदि हुआ करते थे। आज भी हैं पर रूप बदल गया है ,दूसरे साधन थे कथा बाँचना और सुनना

जिसमे महापुरषों की कथा कहानिंयों का वर्णन कर लोगों को अच्छे आचरण और संस्कारों की शिक्षा व उपदेश दिए जाते थे जिसके फलस्वरूप समाज में शांति और आपसी ताल मेल बना रहता था। आदमी को आदमी पर भरोसा था। सभी एक दूसरे की सहायता तन मन धन से करने  को प्रस्तुत रहते थे।

मिलजुल कर तीज त्योहारों को मानते थे। गांव शहर के अनुपात के अनुपात के हिसाब से सुंदर सुंदर पंडाल लगाए जाते थे सजाये जाते थे और सैंकड़ों हजारों की सख्या में आ कर लोग महापुरषों की जीवन गाथा सुनते थे और तदानुसार अपना जीवन जीते थे। कुछ कथा वाचक अपवाद का शिकार हुए हैं पर यह उनकी निजी समस्या है। यह धर्म संस्स्थाएं बड़ी संख्या में सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है। फलस्वरूप भारतीय संस्कृति पीढ़ी दर पीढ़ी अपने मूलरूप के साथ आगे बढ़ती रही और हमने विश्व में धर्म के क्षेत्र अपना स्थान बहुत ऊँचा बना लिया।

पर बहुत दुःख होता है आज के पंडाल देख कर ,सभाएँ देख कर ,हजारों लाखों की भीड़ देख कर ,घंटों तक लगे जाम को देख कर ,बंद पाठशालाओं को देख कर बच्चों की पढ़ाई का नुकसान देख कर ,सड़कों पर मैदानों में नालियों में भरे पानी के खली पैकेट देख कर और समय की बर्बादी देख कर —कारण की इन महा सभांओ में महापुरषों के गुणगान नहीं होते यहाँ तो द्वन्दी प्रतिदव्न्दी पर कीचड उछाला जाता है सच्चे झूठे दोषों को मसालेदार बना कर पेश किया जाता है। एक दूसरे को नीचे दिखाना और भविष्य की दुहाई देंना सरे आम भाषण का विषय बनता जा रहा है। लोग मजे ले ले कर सुनते हैं और उन्ही बातों को दोहराते घर लौट आते हैं और फिर शुरू हो जाती है नफरत की सौदेबाजी ,जात पात पर ताना कशी ,अमीर गरीब के बीच रस्सा कशी। अपना स्वार्थ सिद्ध करते करते हमारे देश के संरक्षकों ने देश को क्रांति के मोड़ पर कर खड़ा कर दिया है।
यह तो वही कहावत हुई की आसमान से टपके और खजूर पर अटके   —     नहीं यहाँ तो नीम पर अटके ,खजूर तो मीठे फल देती है पर जो कड़वाहट समाज में फैल रही है वो तो नीम जैसी कड़वी है। अच्छे और भले का ज्ञान आपके अंदर भरा पड़ा है ,अनुरोध है सही को पहचाने और भुलावे छलावे से बचें। हम हिन्द देश के वासी है और हमारा धर्म सच दया और करुणा से भरा है। गीता में कृष्ण ने भी तो ये कहा है -धर्म की राह पर चलो। बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य और अन्य महा पुरषों- ऋषींयों ने भी धर्म की राह पर चलने के उपदेश दिए हैं -अब समय है अपने ज्ञान चक्षु खोलें वही सुने और वही आचरण करें जो मानव हित  के लिए है। अपने को सही साबित करने के लिए दूसरों को नीचा दिखा कर समाज में नफरत के बीज बोने  की आवश्यकता नहीं इससे कोई महान नहीं बनता।
– नीरा भसीन- ( 9866716006 )
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