आगरा में रहने वाले कबीर कोहली एक मोटिवेशनल स्पीकर व ब्लोगर हैं. वह शौकिया तौर पर सामजिक विषयों पर लेखन करते हुए अपनी लेखनी से अनछुए बिन्दुओं को समाज के सामने लाने का प्रयास भी करते हैं. कबीर एक उम्दा गायक के साथ – साथ माउथऑर्गन बजाने का हुनर भी रखते हैं. तेज समाचार के पाठकों के लिए उनका लेखन.
स्कूल जाने का समय हो या डांस क्लास का या फिर परिवार के साथ घूमते हुए हो, मुझे हमेशा एक ही बात सुनाई देती थी “पापा मुझे जंगल हाउस देखना है, कब लेकर चलोगे, मुझे जाना है” ( जंगल हाउस बच्चों के खेलने का स्थान है जहां चूना, गेरू, पेंट की मदद से एक हॉल को जंगल का रूप दिया गया है जिसमें चूने से ही अलग अलग जानवर बनाये गए हैं). दिन, महीने बीतते गए पर इस मासूम सी ख्वाहिश को पूरा करने का समय ही नहीं मिला क्योंकि कभी पापा का ऑफिस था, कभी मीटिंग, कभी पेट में दर्द तो कभी थक जाते थे. न पापा के पास समय था औऱ न ही 24 घंटे पूरे पड़ रहे थे बस 25 वें घंटे की तलाश में रहते थे.
अचानक एक दिन भगवान ने मुझे 25 वां घंटा दे दिया जिसकी मैं काफी समय से तलाश में था औऱ इसी के साथ मुझे ज्ञान का प्रकाश हुआ औऱ अपने बेटे को जंगल हाउस ले जाने का फैसला किया. ऑफिस से ही जब अपनी पत्नी को इस कुदरत के करिश्में की खबर सुनाई तो पहले वो झटका खा गयीं, फिर थोड़ा संभलते हुए पूछा “क्या आप मज़ाक तो नहीं कर रहे”? मैंने थोड़ा चिढ़ते हुए कहाँ “अरे, मज़ाक किस बात की, आप लोग तैयार रहो”. घर पहुंचा तो अपने बेटे की चेहरे की हंसी और उसकी प्रिय जगह जाने की खुशी मेरी समझ और सोच से बिल्कुल परे थी . पूरे रास्ते वो खुशी, वो आकर्षण उसके चेहरे पर, उसकी आँखों में मैं महसूस कर पा रहा था. जब हम नियुक्त स्थान (जंगल हाउस) पहुंचे तो उसकी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा और मुझे चूमते हुए ही नहीं थक रहा था. इतना कुछ देखते हुए मुझे जिज्ञासा हुई और हिचकते हुए अपने बेटे से पूछा तो मुझे पता चला कि इसके बारे उसने टीवी पर देखा जिसको वो खुद महसूस करना चाहता था कि असल में वो क्या है और कैसा दिखता है.
ऐसा ही है बचपन जहां हर छोटी बड़ी चीज़ को जानने की, देखने की जिज्ञासा रहती है, जहां ऊर्जा की कोई कमी ही नहीं है लेकिन समय के साथ और जीवन के दौड़ में हम इतना आगे निकल जाते हैं कि छोटी बड़ी उलझनों में ही उलझे रह जाते हैं और जिस बचपन से हम खुद गुज़रे हैं उसी को अपने बच्चों के रूप में समझने में हिचकिचाते हैं और उसके विपरीत काम करने लगते हैं.
बचपन, जिसको फिर से जीने की मासूम सी ख्वाहिश है और आज भी अकेला बैठता हूँ तो बस यही सोचता हूँ.
ऐसा था ‘बचपन’ मेरा भोला भाला,कितना सरल औऱ ऊर्जा से भरपूर,ईर्ष्या से कोसों दूर,
न बीते कल का स्मरण, ना आने वाले कल पर पहुंच,
बस इस पल को, ‘आज’ को जीने की सोच,
क्या कभी लौट कर आएगा ऐसा ‘बचपन’ मेरा भोला भाला ?
वो सुबह स्कूल के लिए तैयार होना,और छुट्टी की घंटी बजते ही दौड़ते घर आ जाना,
मित्रों के साथ खेलना, झगड़ना और फ़िर खेलना,
शाम को किताबों के साथ दो और दो चार करना,
कभी पेंसिल का टूटना, कभी रबड़ का खोना,बस इसी उड़ेधबुन में लगे रहना.
माँ का प्यार, माँ का दुलार,
उसका रात-रात भर जागकर पढ़ाने का त्याग,
कभी आँखें चुराना, कभी मुँह दबाना,मौका मिलते ही पतंगबाज़ी के दो-दो हाथ कर आना,
बिना बात के चीखना, चिल्लाना, शोर मचाना और माँ के डांटने पर बिस्तर में घिस कर सो जाना .
हर दिन होली-दीवाली लगती थीं,नानी-दादी की गोद में सुनी कहानी भी नई सी लगती थी,
चूर्ण की गोली, पानी के बताशों पर लट्टू रहते थे,बिना सोचे समझे भाई-बहनों के हिस्से का भी खा जाया करते थे,
पल-पल में सपने बदलते थे, आज डॉक्टर कल इंजीनियर अपने आप को समझा करते थे.
जैसे – जैसे ‘बचपन’ बीतता गया,दुनिया के मायावी चक्कर में उलझता गया,
लोभ, क्रोध से परिचय हुआ, सरलता और भोलेपन से कोसों दूर हुआ,
जीवन की दौड़ में इतना निकल गया आगे, बस रह गए सपने और हसीन यादें,
आज भी थक कर, रुक कर यही सवाल करता हूँ,
क्या कभी लौटकर आएगा ‘ बचपन’ मेरा भोला भाला?