आज हम देखते हैं की हिन्दू धर्म में (या किसी अन्य धर्म )
ऐसी कई बातें हैं या ऐसे कई कर्म कांड हैं जिनका अर्थ सही ढंग से नहीं समझा गया और सदियों तक उसे विकृत रूप से जाना और माना जा रहा है ,तो हो सकता है महाभारत काल में भी आम आदमी “धर्म “की परिभाषा सही सही न पहचानता हो,यह भी हो सकता है की आमआदमी एक साधारण जीवन जीता हो और आदर्शों का उसके जीवन में उतना मूल्य न रहा हो। लेकिन यह सब हमारे विचारों को सही दिशा नहीं दे सकते ,कारन की ऐसी बातों को हम चर्चा का विषय तो बना सकते हैं पर उससे समाज की सोच नहीं बदल सकते। कोई भी व्यवस्था ,नियम धर्म आदि तब तक सुचारु रूप से नहीं चल सकते जब तक की उसे चलाने वाली संस्था के हाथ में कड़ी से कड़ी दंड वयवस्था का भय न हो या फिर धर्म और सामाजिक वयवस्था
में आपसी ताल मेल न हो। धर्म की परिभाषा हर युग में बदल.. . ही है और आगे भी बदलेगी –कारण की हम मानव जाति के जीव चंचल बुद्धि वाले होते हैं ,स्वभाव से स्वार्थी भी होते है और संग्रह कर
जीवन जीते हैं ,आपने देखा होगा की अन्य कोई प्रजाति अपनी सात सात पुश्तों के लिए भौतिकता का संग्रह नहीं करती। फलस्वरूप स्वार्थ सिद्धि के लिए भ्रांतियों का प्रचार किया जायेगा और आम लोगों को उल्लू बना कर मुट्ठी भर लोग अपना उल्लू सीधा करते रहेंगे। किसी भी राज्य को सुचारु रूप से चलने के लिए न्याय और धर्म दोनों को साथ ले कर चलना होगा। ऐसे वचन जिनकी आड़ में स्वार्थ सिद्धि हो उनको तोडना ही उचित है नहीं तो अंततः महाभारत
ही इसका प्रयाय है। वो कैसे वचन थे वो कैसी लालसा थी जो द्रोपदी के साथ भरी सभा में हो रहे अन्याय को देख कर भी सब चुप थे। जब हम न्याय की आशा करते हैं तो अन्याय को अनदेखा करना उचित नहीं ,ऐसा करने से तो अराजकता को बढ़ावा ही मिलता है। यदि महाभारत की कथा के अनुसार हम सोचें तो उस सभा में छोटे बड़े ,बुजुर्ग मंत्री गुरु आदि सभी उपस्तिथ थे ———ये परिस्तिथियाँ
तब भी थीं और आज भी हैं ,तब भी लोग तमाशा देख रहे थे और आज भी देख रहे हैं। तब द्रोपदी को बचाने कृष्ण आये थे ,आज या तो किसी में सामर्थ्य नहीं या फिर आज भी धर्म पर वैसा संकट छा रहा है जैसा की महाभारत काल में हुआ था —हाँ आज लोग विडिओ
जरूर बना लेते हैं। तब एक ही कृष्ण थे और धर्म की रक्षा के लिए कुरुक्षेत्र में उतर पड़े। पर आज के हालात तो तभी सुधर सकते है जब रोज एक कृष्ण इस धरती पर अवतार ले। महाभारत केकुछ काल बाद अराजकता ने फिर अपना दामन फैलाया । शांति चिर स्थाई नहीं रहती —फिर वही अराजकता फिर वही अशांति फिर वही राजमद और फिर वही गुलामी। क्या इसे नियति कहा जाये।
“गीता”का उपदेश देते समय कृष्ण बार बार अर्जुन से कहते हैं “उठ युद्ध कर “अर्थात बुराई को हारने के लिए हमें निरंतर प्रयत्नशील रहना होगा। निरंतर प्रयत्नों से ही बुराई का नाश होगा
और एक पवित्र वातावरण बनेगा। इसीलिए कृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया वो ही गीता है कर्म और धर्म की राह ,हर युग के लिए हर देश के लिए ,हर काल के लिए हर समाज के लिए हर वयवस्था के लिए ,हर ज्ञान के लिए और हर परिवर्तन आदि के लिए। “गीता एक सम्पूर्ण शिक्षा है सम्पूर्ण ज्ञान है।
गीता के प्रथम श्लोक में धृतराष्ट्र की भावनाओं में एक बेचैन उत्सुकता दिखाई देती है –वो जानना चाहता है की क्या उसके पुत्र युद्ध के लिए सज्ज (तैयार )हैं ,भौतिकता के प्रति लालसा की यह एक पराकाष्ठा है। मेरे मन में कई बार यह प्रश्न उठता है की क्या धृतराष्ट्र सचमें आँखों से अँधा था या फिर बुद्धि से या फिर वैभव की भूख ने उसकी सोचने समझने की क्षमता हर ली थी —
युद्ध के जो परिणाम होते हैं हुए ,सभी मारे गए। क्या धृतराष्ट्र को इसका अनुमान पहले नहीं होगा —–यदि वंशज ही न बचेंगे तो राज्य किसके लिए ,नर संहार क्यनो ,क्या ये सुख मात्र अपने लिए ये वैभव मात्र अपने लिए। माना की युद्ध में पांडव भी पराजित हो सकते थे -ये भी एक अनुमान ही तो था। पर मारे गए कौरव जो बुराई के पक्षधर थे। तो क्या महाभारत की कथा अधर्म के कारण विनाश की कथा है ,और इसका उद्देश्य है की लोगों में सदाचार की भावनाको बढ़ावा देना –जो लोग सक्षम हैं उनको अन्याय फैलाने से रोकना होगा — अपने स्वार्थ के लिए नहीं न्याय का साथ देने के लिए एक जुट होना होगा —नहीं तो ध्रितराष्ट्र पूछेगा ही “क्या युद्ध की तैयारी हो गई “
कौरवों की सेना बड़ी थी और पांडवों की छोटी ,फिर भी बड़ी बुराई को छोटी सी अच्छाई के सामने हारना ही पड़ा।
दूसरे और तीसरे श्लोक का भाव है की दुनिया के सामने मनुष्य कितने भी महान होने का दवा कर ले पर यदि उसके कर्म बुरे हैं तो वो मनुष्य कभी भी मानसिक रूप सी संतुलित नहीं हो सकता ,यहाँ दुर्योधन भी विचलित है और गुरु द्रोणाचार्य से कुछ अपशब्द कहता है की जिन द्रोपदी के पुत्रों को उसने युद्ध कला में निपुण बनाने की शिक्षा दी थी आज वही द्रोपदी पुत्र उस कला का प्रयोग कर अपने ही गुरु पर प्रहार कर करने जा रहे हैं। भय भीत मन की यह एक ऐसी आवाज थी जो यह जानती थी अब अंत निश्चित है। जो गलत होता है उसका विश्वास हमेशा डगमगाता है और जो सही होता है वो हमेशा दृढ़निश्चयी होता है। कुछ ऐसा जान पड़ता है की दुर्योधन ने यह बात गुरु को उत्तेजित करने के लिए कही होगी।
किसी भी क्षेत्र में सफलता पाने के लिए छह गुणों का होना आवश्यक होता है १.उद्धम २.साहस ३. धैर्य ४. बुद्धि
५. शक्ति ६. पराक्रम। हो सकता है हमारे मन में किसी भी कार्य को करने की बड़ी प्रबल इच्छा हो पर यदि वह कार्य उचित समय या स्थान पर नहीं किया गया तो प्रयत्न निष्फल हो जायेगा। मन में
विश्वास ही विजय प्राप्ति का सबसे बड़ा और सरल मार्ग है लेकिन युद्ध क्षेत्र में अर्जुन का तो विश्वास ही डोल जाता है। अपने सग्गे
सम्बन्धियों को शत्रु पक्ष में देख मन में अनुराग आ जाता है और धर्म एवं धर्म व कर्तव्य गौण हो जाते हैं।
प्रथम अध्याय के सातवें श्लोक में दर्योधन की मन स्तिथि का वर्णन है —-जब मनुष्य अपने ही दोष कर्मों द्वारा अपने ही धर्म का पालन करने में असमर्थ होने लगता है तो
भयभीत हो जाता है ,अपना ही हित चाहने वालों में उसे दोष दिखाई देने लगते हैं। जो लोग गलत उदेश्य से या छल कपट की भावना से अपने लक्ष्य की प्राप्ति करना चाहते हैं वे जानते हैं की जो वे कर रहे हैं वो न तो उनके लिए सही है न और न ही समाज के लिए और न ही यह धर्म के अंतर्गत उचित है ,ऐसे में वे मानसिक रूप से हीन भावना के शिकार हो जाते हैं ,तब वे अपने दोषों को छुपाने के लिए दूसरों के साथ अनुचित व्यवहार करने लगते हैं। दुर्योधन भी इसी हीन भावना के शिकार था। इसलिए गुरु द्रोण को दुर्योधन ने ऐसी बातें कही की उनका क्रोध भड़क जाये। आज भी लोग ऐसा ही करते हैं
इस लिए घरों में और समाज में अराजकता फैल रही है ‘धन का अहंकार, सत्ता का अंहकार, यश कीर्ति का अहंकार इतना बढ़ता जा रहा है की लोग एक दूसरे पर वार करने में पल भर की देर नहीं करते –फिर चाहे वो वार शब्दों के हों या हथियार के। अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं। महाभारत युद्ध में एक पक्ष युधिष्टर का है और दूसरा कौरवों का ,पांडव भी अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही युद्ध करने को उद्धत हैं,उनका लक्ष्य भी राज्य ,ऐशवर्य ,सम्पदा और सुख प्राप्त करना है ,क्न्योकि धर्म के अनुसार वे इसके उत्तराधिकारी हैं। दुर्योधन भी वह सब प्राप्त करना चाहता है जो पांडव चाहते हैं पर अधर्म का सहारा ले कर ,छल कपट से धोखे से। ऐसी भावना रखने वाले अधिकतर कठिन परिस्तिथिओं में फंस जाते हैं अपने अहंकार के कारन वे अधरम का सहारा लेते हैं और झूठी शान का शिकार हो जाते हैं। सत्ता का नशा इंसान को अँधा कर देता है और इंसान अधर्म की राह पर चल पड़ता है।
“गीता” ऐसे ही दो पक्षों की साक्षी है जहाँ एक धर्म पर चल कर और दूसरा अधर्म का सहारा ले कर सत्ता पाना चाहता है।