शलोक ९ और १० —-भावार्थ
९ -संजय बोला ————- हे शत्रुतापन (धृतराष्ट्र );हृषिकेश गोविन्द से ऐसा कहने के अनन्तर गुडाकेश ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा ‘ऐसा कह कर मौन हो गया।
१० –हे भरतवंशी (धृतराष्ट्र ):(तब )दोनों सेनाओं के बीच में विषादमग्न हुए उस (अर्जुन )से हृषिकेश ने मानों हँसते हुए यह वचन कहा। संजय ने धृतराष्ट्र को बताया कि भयभीत अर्जुन ने अपने हथियार डालते हुए कृष्ण से कहा की वह युद्ध नहीं कर सकता और दोनों सेनाओं के बीच अर्जुन कृष्ण के समक्ष नतमस्तक हो कर रथ पर शास्त्र त्याग कर बैठ गया है. युद्ध भूमि में हो रही सारी घटनाएं दूर महलों में बैठे अंधे धृतराष्ट्र को संजय एक सच्चे सेवक की तरह सूचित करता है।
यह एक जीवात्मा का अंतर्द्वंद है -धर्म और अधर्म के बीच। धर्म वो नियम है जो सब को एक मर्यादा में बाँध कर रखते हैं। जिसके अनुसार चल के सब शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं। आदर और अनुराग संयमित रूप से लोगों के विचारों को एक परिपक्क्व बंधन देते हैं। इसमें समय समय पर परिवर्तन होते रहते हैं पर वे मनुष्यों के दैहिक ,दैविक और भौतिक विकास के लिए किये जाते हैं और उनका वितरण क्षमता और बुद्धि के हिसाब से विभिन्न वर्णों के बीच किया जाता है। दूसरी ओर अधर्म है जो स्वार्थ की भावना से प्रेरित है ,अहंकार से ग्रसित
है ,शरीरिक रूप से सबल होने पर भी मानसिक रूप से दूषित है। धृतराष्ट्र को जन्म से अँधा कहा गया है —कभी कभी लगता है यह अंधापन ही उसकी लालसा का कारण बना। अपनी इच्छाएँ पूरी करना के लिए उसने धर्म के निहित हर सीमा का उलंघन किया। महत्वाकांक्षी होना कोई बुरी बात नहीं पर उसके लिए स्वार्थी हो जाना –यह अराजकता का कारण बन सकता है।
वही धर्म उचित धर्म माना जायेगा जो देश काल ,समय ,और परिस्तिथि के हेतु लाभकारी हो और अधरम तो पूर्ण रूप से स्वार्थी है जिसे उपरोक्त किसी भी परिस्तिथि का ध्यान नहीं होता। यहाँ तक की अधर्म में अँधा मनुष्य केवल अपने को ही पहचान सकता है और अपनी ही परिधि में घूमता है। धृतराष्ट्र जन्म से तो आँखों से अँधा था पर यह तो स्वार्थ का अंधापन था ,संतान से मोह का अंधापन था ,राज्य की भूख का अंधापन था ,साम दाम दंड भेद सहित व्यवहार कर जीतने का अंधापन था। अर्जुन ने शस्त्र त्याग कृष्ण की शरण ली और उचित मार्ग दर्शन की प्रार्थना की क्योंकि उसे मालूम था की धर्म के लिए ही सही पर अपने पूज्य परिजनों का वध अधर्म ही कहलायेगा ,धर्म के स्थापित आदर्शों का हनन ही होगा ,यह केवल अधर्म ही नहीं माहापाप भी होगा। अर्जुन की व्यथा का एक कारण यह भी था की वो एक धर्म कर्म करने वाला व्यक्ति था। यदि दुर्योधन भी धर्म का महत्त्व जानता और उसकी महत्वकांक्षायें उसके स्वार्थ से भरी न होती शायद वह युद्ध की विभीतस्ता को समझता ,यदि वह इतना स्वार्थी न होता तो
पांडवों को द्रोपदी को और कुंती को बार बार अपमानित कर वनवास न देता। घर के गुरुजनों को उनके ही प्रियजनों से युद्ध करने के लिए प्रेरित न करता ,मजबूर न करता। हस्तिनापुर के राज सिहासन की की रक्षा की आड़ में अपनी इच्छाओं और अहंकार की प्यास बुझाने के लिए एक के बाद एक अनुचित व्यवहार और अधर्म न करता। यदि उसके मन में जरा सा भी अनुराग आदर और धर्म के प्रति श्रद्धा होती तो वह कुरुक्षेत्र तक न पहुँचता। तब वह भी अपने को कृष्ण के चरणों में समर्पित कर मार्ग दर्शन की प्रार्थना करता। और यदि ऐसा होता तो कृष्ण भी उसे इंकार नहीं कर सकते थे। कयोंकि वे एक महान विवेकी और ज्ञानी पुरुष थे उनके मन में भेद भाव थे ही नहीं यह तो एक सर्व विदित सच है। कृष्ण ने तो स्वयं युद्ध को टालने का भरकस प्रयास किया था। उचित समय पर उचित मार्ग दर्शन केवल कृष्ण ही दे सकते हैं ,इसीलिए हथियार फेंक कर ,करबद्ध अर्जुन ने बड़े ही विनीत भाव से ,मार्ग दर्शन की प्रार्थना की। पूर्णसमर्पण का अर्थ है सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति या फिर उचित मार्ग दर्शन जिससे सबका कल्याण हो। कृष्ण की दृष्टि में अर्जुन उनकी शरण में रूप से समर्पित था अर्थात वह पूर्ण ज्ञान व मार्ग दर्शन के लिए सज्ज था और अब कृष्ण
उसे धर्म और अधर्म का ज्ञान दे सकते थे।
‘Knowledge is something that can not be personal. Although it has to be gained by a person, knowledge, any knowledge, is always true to the nature of the object of knowledge. It is not something that is centered on your personal will but on the object of knowledge. For example, if the objective is a flower, it is a flower, there is no choice in flower, then you can know it -its botanical name which includes it’s family and so on. Whatever you come to know about the flower is always knowledge. ( Gyan)Because knowledge is always as true as the object, it is not determined by one’s will. Therefore the knowledge of a thing is not going to differ from person to person .”
Swamy Dyanand Sarswati
यहाँ अर्जुन का श्री कृष्ण को समर्पित हो जाना आत्मा का परमात्मा में लींन हो जाना है। अर्जुन की प्रार्थना उस ज्ञान के लिए है जो उसे उचित और अनुचित में अंतर बता सके। ऐसा ही प्रश्न कठोपनिषद में नचिकेता ने ‘ यम ‘ से पूछा था। किसी ज्ञानी का आश्रय प्राप्त करना और उसके समक्ष पूर्णरूप से समर्पित हो जाना
इसका अर्थ है की जिसके समक्ष आपने समर्पण किया है वह पूर्णरूप से ज्ञानी है। और आपको उससे जो ज्ञान प्राप्त होगा वह धर्म से भी ऊपर होगा। अर्जुन का भी यही विशवास है। अर्जुन को जन्म से ही जो संस्कार मिले थे वह धर्म पर ही आधारित थे। एक प्रश्न यहाँ यह भी उठता है की अर्जुन का निःशस्त्र हो जाना अनुराग का प्रमाद था या संस्कारों में धर्म का पालन या फिर पाप का भागिदार बनने का भय। कुछ भी हो उसके हृदय का आर्तनाद इस बात का प्रमाण है की वो राज्य के लिए लालायित नहीं था। वह धर्म का पक्ष ले कर सत्ता नाम पर फैल रही अराजकता को रोक कर धर्म की संस्थापना करना चाहता था।
नचिकेता की कथा भी कुछ ऐसी ही है ,जब यमराज ने उसे तीन वर मांगने को कहा तो नचिकेता ने पहला वर अपने पिता के लिए माँगा जो उससे बहुत क्रोधित थे और दूसरे वर में उसने स्वर्ग की प्राप्ति की प्राप्ति के लिए मार्ग दर्शन की प्रार्थना की जो अपने के हित लिए नहीं दूसरों के हित के लिए थी। ये दोनों वरदान यमराज ने नचिकेता को दे दिए। तीसरा वरदान उसने अपने स्वयं के लिए माँगा। उसने
जानना चाहा —-शरीर और आत्मा का भेद। कुछ लोगों का कहना था की ये एक ही हैं और कुछ लोग मानते थे की ये भिन्न भिन्न हैं। नचिकेता ने यमराज से कहा की यदि उसे आत्मा और शरीर के सम्बन्ध में कोई कुछ ज्ञान दे सकता है तो वो यमराज ही हैं। इस रहस्य को उन से बड़ कर और कौन समझा सकता है। उचित समय पर उचित गुरु का चयन करना यह योग्य शिष्य के लक्षण हैं। गुरु भी योग्य तभी बनता है जब उसे शिष्य की पात्रता पर विशवास हो। पहले तो यमराज ने नचिकेता की बातों पर ध्यान नहीं दिया पर बाद में उसकी बातें सुन कर उसे शिष्य स्वीकार कर लिया और उसे ज्ञान भी दिया।
यहाँ कुरुक्षेत्र में कृष्ण ने भी अर्जुन की बातें ध्यानपूर्वक सुन कर ही उसे शिष्य स्वीकार किया न की मित्र या संबंधी मान कर। जब कृष्ण निश्चित हो गए की अर्जुन को मार्ग दर्शन की आवश्यकता है तभी उन्होंने गुरु बन कर उसकी प्रार्थना स्वीकार की।