हम जो कोई भी कार्य करते हैं अपने स्वार्थ के लिए करते हैं और खुश भी होते हैं और कभी कभी तो कोई काम ऐसा भी कर जाते हैं जिससे सामने वाले को कष्ट होता है दुःख होता है पर हम उससे दुखी या विचलित नहीं होते ,मन के किसी कोने में यह भाव उठता है की वो इसी दंड का अधिकारी था। अधिकतर लोग इतने स्वार्थी हो गए हैं की अपने लिए सुख बटोरने के चक्क्रर में वे दूसरों को बड़ी से बड़ी हानि पहुंचने में भी नहीं झिझकते पर कुछ ज्ञानी और संवेदनशील लोग ऐसा साहस नहीं जुटा पाते हैं। कुरुक्षेत्र में भी कुछ ऐसा ही दृश्य था यहाँ संवेदना और कर्तव्य के बीच तूफ़ान उठ खड़ा हुआ था। जन साधारण के लिए समाज के लिए और एक शासक के लिए क्या उचित है और क्या अनुचित है —यह प्रश्न धर्म के अंतर्गत आ खड़ा हुआ था।