सबसे पहले ये आवश्यक था की अर्जुन के मोह जाल को दूर किया जाये . मृत्यु मनुष्य का अंत नहीं है यह तो आत्मा के स्थानांतरण की एक प्रक्रिया है। यह विचार अपने आप में पूर्ण कहा जा सकता है पर इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता की आत्मा के अजर अमर होने पर भी अनुराग और शोक उस स्वरुप अर्थात उस शरीर से होता है जिसमे आत्मा का वास है। संसारिक बंधनों का मोह तो अमुक अमुक नाम वाले किसी दूसरे शरीर के साथ होता है जिसे हम संबंधों के रूप में अपने आस पास मकड़ी के जले की तरह बन लेते हैं। पर यह मोह का जाल है। ऐसे में कोई भी व्यक्ति अपने को सुरक्षित समझने लगता है। सामाजिक परिधि में मनुष्य अपनी कर्म भूमि बना लेता है और चिरकाल तक अपने को सुरक्षित महसूस करता है और जब कभी शरीर के बंधन टूटते हैं तो मन शोक सागर में डूब जाता है -यह परिस्तिथि ऐसी होती है जैसे किसी ने झील के शांत पानी में पत्थर उछाल दिया हो ,पानी की तरंगे दूर दूर तक फैलती हैं ,पानी में हलचल होती है और धीरे धीरे तरंगें सिमटती जाती हैं और झील का पानी शांत होने लगता है। कुछ समय के बाद झील पहले की तरह फिर से यथावत अपना रूप धारण कर लेती है। मन की भावनाओं में भी जब कोई वाह्य विचार या ऐसी क्रिया जो मन को सुख या दुःख देती हो ,प्रवेश करती है तो हृदय में तरंगे उठने लगती हैं जिन्हें हम परिस्तिथियों के हिसाब से सुख की तरंगे या दुःख की तरंगों का नाम दे देते हैं। अंतर इतना है की सुख बाँटने को सभी उद्धत रहते हैं और दुःख की धड़ी में सब की उपस्तिथि में भी मनुष्य अपने को अकेला पता है। इसलिए अर्जुन ने नेत्रों में करुणा और अनुराग भर कर कृष्ण की ओर देखा। शरीर और आत्मा ,सुख और दुःख जीवन मरण इन सब कर विषयों पर अनगिनत लोगों ने खोज भी की है ,अपने अनुभव भी लिखे हैं और इस सब के साथ मानवीय स्वाभाव का भी विश्लेषण किया है।