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जिन्दगी : “आत्म  साक्षी “

Tez Samachar by Tez Samachar
July 19, 2020
in Featured, विविधा
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जिन्दगी :  “आत्म  साक्षी “
         Neera Bhasin साधारण रूप से एक  संसारी मनुष्य  अपने जीवन में समयानुसार परिस्तिथियों के अनुसार कार्य कर आगे बढ़ता है और अपना ,अपने परिवार का ,समाज का और देश का हित  ध्यान में रखते हुए काम करता  है। कई बार ऐसा भी देखा जाता है की परिस्तिथियों पर कोई अंकुश नहीं रहता ऐसा अधिकतर तब है जब  समस्याएं विवाद के घेरे में आ जाती हैं और आपसी विचारों में   मतभेद  उठ खड़े होते हैं। तब कभी कभी मनुष्य मोहवश ,भावुकतावश या फिर कर्तव्य के हाथों मजबूर हो कर ऐसे कार्यों को करने के लिये बाध्य हो जाता है जो न्यायसंगत नहीं होते। ऐसे में व्यक्ति पाप पुण्य और जीवन मृत्यु के विचारों द्वारा परिस्तिथियों का विश्लेषण करने लगता है और जो विचार अपनी बुद्धि या सोच  को स्वीकार नहीं होते उनसे पलायन करने को मन व्याकुल हो जाता है। यह मन की बात है जो प्रस्तुत परिस्तिथियों में सम्भव है पर कर्तव्य इसके बिलकुल विपरीत है। इसी द्व्न्द  में अर्जुन फंसा था ,इस दुविधा  को दूर करने के लिए जो पहली बात कृष्ण ने कही वो यह थी की देह के काल ग्रस्त हो जाने का तातपर्य यह बिलकुल नहीं की अमुक अमुक नाम के व्यक्तियों का आस्तित्व बिल्कुल  ही मिट जायेगा , ऐसा नहीं होता क्योंकि आत्मा कभी मरती नहीं। जिसकी मृत्यु के बारे में सोच सोच कर अर्जुन इतना व्यथित हो रहा है ऐसा नहीं है की वे पहले कभी नहीं थे या फिर आगे कभी होंगे नहीं। इस सच से परिचित करने के लिए अधिकतर एक उदाहरण दिया जाता है लगभग सभी ज्ञानी पुरुष देते हैं –घड़े का प्रयोग हम सभी करते हैं ,हम यह नहीं कहते की घड़े के अंदर जो खली स्थान है उसका प्रयोग कर रहे हैं क्योंकि वह स्थान तो तब भी वहीँ रहता है जब कभी घड़ा टूट जाता है। उस शक्ति स्वरूप रिक्तता को एक घड़े में समेट कर उसका प्रयोग किया जाता है ,घड़ा जो नाशवान है उसमें रखा पदार्थ क्षणभंगुर है पर व्योम (खालीपन )वो शास्वत है वहीँ है ,वो घड़े का रूप ले या लोटे का वो परिस्तिथियों के अंतर्गत है। प्रस्तुत इस  श्लोक में कृष्ण ने अहम् (मैं ) तवं (तुम )व्यम (हम)शब्दों का प्रयोग किया है ,जिसका तातपर्य कोई वयक्ति विशेष नहीं उसमे सभी जीव धारी आ जाते हैं। कहने का मतलब यह की शरीर कितने भी हों कोई भी हों आत्मा एक ही है —-घड़े कितने  भी हों उसमें समाया व्योम एक ही है।
   संसार में ऐसा बहुत कुछ है जिसके जीवन की या उपयोगिता  की एक सीमा रेखा निर्धारित है। उसके बाद उसका आस्तित्व मिट जाता है और यह एक प्रकृतिक परिवर्तन है , हम या आप उसे रोक नहीं सकते और यदि सच यही है तो इसे जान लेना ही उचित होगा तभी हम अपने आप को दुखी होने से बचा सकते हैं ,तभी हम
कर्तव्य मार्ग पर आगे बड़ सकते हैं ,और तभी हम तभी हम सच्चा  ज्ञान प्राप्त कर ईश्वरीय अनुभूति का साक्षत्कार कर सकते हैं। ‘आत्मा अमर’है और कर्तव्य पालन अनिवार्य -यह विशवास प्राप्त करना उतना ही आवश्यक है जितना की जन्म  लेना और धर्म का पालन करना।
“इस लिए युद्ध भूमि में जो मृत्यु को प्राप्त होंगे उनके लिए शोक करना व्यर्थ है क्योंकि ये मात्र भौतिक शरीर का क्षय है ,आत्मा तो अमर है —ऐसा श्री कृष्ण  ने कहा। “
श्लोक १३ —किन्तु जिस प्रकार देही (अर्थात आत्मा)की इस देह में कुमार ,युवा और वृद्ध अवस्था होती है ,उसी प्रकार अन्य शरीर की प्राप्ति भी (एक अवस्था ही) है। इस विषय में धीर (अर्थात ज्ञानी )मोह को प्राप्त नहीं होता। बात बहुत ही साधारण है पर है बहुत ही महत्वपूर्ण  —अपने अंतर्मन के साक्षी हम स्वयं हैं ,हमारे अनुभव हमारे अपने हैं ,
और मजे की बात यह है की हम ये कथाएं शब्द रूप में दूसरों को सुना जरूर सकते हैं पर उसकी अनुभूति उन्हें नहीं करा सकते क्योंकि  हमारे अनुभव हमारे अपने हैं। आत्मा जहाँ निवास करती है उसे जीवित और सक्षम बना देती है। अनेक प्रकार के जीवधारी हैं और सभी नियतिनुसार काम करते हैं। इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है की यह आत्मा और देह का मामला है। अनुभूति का होना ,ज्ञान प्राप्त होना या गुणों में वर्तना यह सब इसी सीमा रेखा के अंदर निर्धारित हैं क्योंकि मनुष्य एक मात्र ऐसी प्रजाति है जिसे दिव्य स्वरुप विचारशक्ति  प्राप्त है और इसके कार्य क्षेत्र की कोई सीमा रेखा नहीं है। इसी कारण दूसरों के विचारों से या कार्यों से प्रभावित हो  उचित या अनुचित व्यवहार कर बैठना भी एक प्रकृतिक प्रक्रिया है। प्रस्तुत श्लोक में ‘देही’ शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ है वो स्थान जहाँ आत्मा निवास करती है। यहाँ पर एक और बात ध्यान देने योग्य है जिस देह में आत्मा का वास हो जाता है उसमें ज्ञान और अनुभवों का संचार होने लगता है। देह के लिए अपने कर्म का पालन अति आवश्यक है। पर जन्म के साथ जो परिवर्तन और प्रक्रियाएं शरीर में आती रहती हैं वे सब एक निर्धारित गति से और निर्धारित क्षमता का वहन कर आगे बढ़ती हैं।
शरीर का विकास बालापन ,यौवन और वृद्धावस्था की  ओर धीरे धीरे बढ़ता है फिर एक दिन  शरीर  और आत्मा अलग हो कर अपने अपने आस्तित्व –  अर्थात पंच  तत्वों से बना शरीर उन्ही  पंच तत्वों की  भेंट हो जाता है और ईश्वर की अंश रूपी आत्मा ईश्वर में विलीन हो जाती है। दूसरी ओर यह भी सत्य है की आत्मा कभी नहीं मरती ,उसको शाश्वत माना जाता है। तो फिर यदि हम इस बात को जानते हैं तो एक बुद्धिमान व्यक्ति का शोकग्रस्त होना भी उचित नहीं है। इसे एक सरल उदाहरण के साथ हम और अच्छी तरह  समझ सकते हैं। जीवन के प्रथम चरण  में जिसे हम बालावस्था कहते हैं ,उसे हम ज्ञान और संस्कारों को समझने और वरतने में व्यतीत करते हैं ,दिन प्रति दिन हम अपने मार्ग पर
अग्रसर होते रहते हैं और युवावस्था में आने के साथ  – साथ हम अपने बदलते कर्तव्यों को ज्ञान को संस्कारों को और व्यवहार  को  भी परिवर्तित करते जाते हैं :इसका कोई समय निर्धारित नहीं होता ,यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और युवावस्था के व्यवहार में तल्लीन बालयकाल  कब बीत गया पता ही नहीं चलता पर समय और परिस्तिथि के अनुसार अपने व्यवहार में परिवर्तन करते रहने  से  मनुष्य सुख ही प्राप्त करता है।  बालयवस्था के खो जाने पर वह शोक ग्रस्त नहीं होता। ठीक इसी तरह युवावस्था से वृद्धावस्था तक की अपने यात्रा वह अनेक सुखों का दुखों का सामना करते हुए तय करता है। काया की शिथिलता के साथ अनुभवों का खजाना  बढ़ता जाता है जो सदा उसके  साथ रहता है।  जीवन के शेष दिन वह अपने संचित ज्ञान को भावी पीड़ी के  मार्गदर्शन के लिए उपयोग करता है,तब यौवन कब बीत गया यह सोच कर वह दुखी नहीं होता। उसे मालूम है की अब वो बीते पल कभी नहीं आएंगे -पर फिर भी वह दुखी नहीं होता –यही ज्ञानी पुरुष के लक्ष्ण हैं। तो फिर आत्मा के शरीर को छोड़ कर जाने पर दुःख क्यों। सच्चाई तो यह है की इस परिवर्तन को हमें गहराई से समझना चाहिए और सच मानिये यह समझना कठिन नहीं है। क्योंकि जीवन यात्रा की अवस्था कोई भी हो आत्मा वही रहती है – ‘अपरिवर्तित ‘.   कहते हैं की मनुष्य के जीवन में प्रत्येक सात वर्ष के बाद कुछ खास परिवर्तन होते हैं जिसे जीवन पथ का अगला पड़ाव कह सकते हैं जो मृत्यु को प्राप्त होने तक चलते रहते हैंऔर इस निरंतर हो रहे परिवर्तनों की साक्षी आत्मा है। जब कभी कोई वृद्ध अपने जीवन के अनुभवों को बांटता है तो हो सकता है उसके वे अनुभव उसके बालयकाल या फिर किसी और अवस्था के हों पर उनका आधार आत्मा ही है ,और आत्मा है तो शरीर के व्यवहारों का स्मरण है। यदि अब उस शरीर में आत्मा का वास नहीं तो शरीर कुछ भी करने या कहने के योग्य नहीं।
नीरा भसीन

 

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