जिन्दगी : ” अन्धकार “
कृष्ण ने अर्जुन से कहा जब ‘आत्मा ‘ जीव का मूल तत्व अमर है तो शरीर की मृत्यु से शोकाकुल हो कर हथियार दाल देना या कर्तव्य पालन से विमुख हो जाना उचित नहीं है। वे जानते थे की मनुष्य के स्वाभाव का एक विशेष गुण है –भविष्य को ले कर लोग सदा चिंतित रहते हैं ,अनघटित घटनाओं की सम्भावना मात्र से ही व्यतिथ और चिंतित हो जाते हैं ,अपने आप को हींन दुखी और पापी समझने लगते हैं। समय काल और परिस्तिथियों के बारे में ध्यान ही नहीं रहता और यदि एक बार कोई धारणा मन में आ गई तो वो एक जंगली पौधे का रूप धारण कर लेती है ऐसे कार्य का फल तो अंत में दुःख ही देगा,विनाशकारी भी होगा और अधर्म भी होगा -आदि आदि विचारों की आंधी दिमाग में चलने लगती है। कहीं से भी किसी प्रकार की कोई प्रकाश की किरण दिखाई नहीं देती।तब चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा दिखाई देता है। और ऐसी परिस्तिथि में किसी के भी हाथ पैर ढीले पड़ जाते हैं, ज्ञान इन्द्रियां सज्ञा हींन प्रतीत होती हैं। अर्जुन की इस अवस्था को कृष्ण ने पूरी तरह से भांप लिया था। कृष्ण ने कहा हम सभी का आदि भी है और अंत भी। इस लिए हमें उनके बारे में सोच सोच कर व्यतिथ होने की आवश्यकता नहीं है. जो आज है और कल नहीं या कल होंगे और आज नहीं हैं। जीवन में कुछ भी स्थाई नहीं है ,न तो जीवन और न ही दुःख या सुख ,सफलता या असफलता। यहाँ तक की समय के साथ वायु मंडल में भी परिवर्तन होते रहते हैं। इस लिए हम सब को “जहाँ तक बन पड़े इन पल पल हो रहे परिवर्तनों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। इसे प्राकृतिक मान कर स्वीकार कर लेना चाहिए। ये संसार और संसार में हो रहे परिवर्तन शाश्वत नहीं क्षण भंगुर हैं ,इस लिए हे भारत के वंशज तुम प्रस्तुत परिस्तिथियों का सामना धैर्य पूर्वक करो। “
श्लोक –१५ ,अर्थात
” हे पुरुषश्रेष्ठ ; सुख और दुःख को समान मानने वाले जिस धीर पुरुष को ये (इन्द्रियों के विषय ) व्याकुल नहीं कर पाते वह अमृतत्व (अर्थात मोक्ष ) का अधिकारी होता है। ‘मोक्ष ‘यह शब्द अपने आप में बहुत छोटा सा है पर यह शब्द विश्व के विराट रूप का सूक्ष्मति सूक्ष्म प्रतीक है –पूरा ब्रह्माण्ड इसमें समाया है या यह भी कह सकते हैं की न यह ब्रह्मांड होता न ही मोक्ष की आवश्यकता होती। परन्तु सच्चाई कुछ और है -यह ब्रह्माण्ड है और हम भी हैं और हम से जुडी दुःख सुख की कड़ियाँ हैं ,भाव हैं और आभाव भी हैं ,संसारिक बंधन और धार्मिक नियम एवं संहिताएं भी ,भौतिक सम्पदा और और दैविक बाधाएं भी ,जन्म के बंधन भी हैं और व्यवहार की सीमायें भी। ब्रह्माण्ड का उल्लेख करने के लिए हमारी बुद्धि बहुत ही छोटी है पर इतना तो हम जानते ही हैं की हम प्रकृति द्वारा हो रहे परिवर्तनों से प्रभावित होते हैं और तदनुसार जीवन जीते और दुःख सुख भोगते हैं। भौतिक उपलब्धियों को जीवन का आधार मान उनसे प्रभावित होते रहते हैं। यही कारण है की हम जीवन सार की गहराइयों में नहीं झांक सकते या कहें की झांकना ही नहीं चाहते। हम सदा वो ही करना या पाना चाहते हैं जिसमें हमें सुख प्राप्त होता है। कभी कभी इससे हट कर मन में कुछ संवेदनायें भी उठती हैं ,हमें अच्छे और बुरे का भेद बताती हैं पर सच्चाई तो यह है हम तब भी वही सोच रखते हैं जो हमें हमारी विचार धारा के अनुरूप लगती है — उसी के आधार पर सुख या दुःख का अनुभव करते हैं ,ऐसे में अधिकतर परिस्तिथियाँ और विचार गौण हो कर रह जाते हैं। इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए कृष्ण ने अर्जुन को
बताया ऐसे लोग जो जीवन के उतार चढ़ाव और सुख दुःख का सामना करते हैं उन्हें जीवन में लाभ प्राप्त होता है। जो दुःख और सुख में सम रहते हैं वे किसी तरह मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। जीवन जीना और कैसे जीना -इस विषय पर शोध कार्य तब से चल रहें जब से मानव ने अपनी बुद्धि का प्रयोग करना आरम्भ किया। भारतीय सभ्यता या हिन्दू संस्कृति, हम इसे जिस किसी नाम से जाने उसमे सबसे मुख्य चर्चा का विषय है मोक्ष प्राप्त करना और उसके लिए तदनुसार व्यवहार करना।मोक्ष मृत्यु के पश्चात प्राप्त होता है पर उसे प्राप्त करने के सारे जतन
मनुष्य जीवित रह कर करता है। इस सत्य को भी नहीं नकार सकते की जीवन की राह पर जहाँ हमें एक तरफ सुखों की तलाश होती है तो वहीँ दूसरी ओर जीवन पथ में दुखों की भी कमी नहीं है। इसमें एक बात और बहुत महत्वपूर्ण है की किसी भी कार्य को बुरा हम तभी कह सकते हैं जब हम उस कार्य के अच्छे रूप को पहचानते लेते हैं। उजाला उजाला ही है यह बात हम तभी सिद्ध कर सकेंगे जब हम अंधकार के स्वरुप को पहचान लेंगे। जब कर्मों द्वारा हम सुख को प्राप्त करते हैं तो सुख जो हमें प्राप्त हो रहा है वह सुख ही है -हम यह तभी दावे के साथ कह सकते हैं जब हमें दुःख या दुःख की परिभाषा का ज्ञान होगा। ये सब प्रक्रियाएं हमारी सोच का परिणाम हैं , हमारे ज्ञान का परिणाम है। जो बातें हमारे मन को भा जाती हैं हमें प्रसन्नता देती हैं हम वही करने को तत्पर हो जाते हैं। किसी भी कार्य से घटना से या विचारों से सुखी या दुखी होना यह व्यक्ति की अपनी सोच है। सबका अपना अपना दृष्टिकोण है। चोर चोरी कर प्रस्सन्न होता है तो साधु ज्ञान पा कर ,समाज सेवी दुखियों की सहायता कर -ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं और यदि हम किसी व्यक्ति से चर्चा कर उसका दृष्टिकोण जानने का प्रयत्न करेंगे तो वह अपने विचारों को सही सिद्ध करने का भरकस प्रयास करेगा परन्तु ये सब अपने निजी स्वार्थ के लिए निजी प्रयत्न हैं। हमें अज्ञान के अन्धकार से बाहर निकलने की आवश्यकता है।