श्लोक -१७
भावार्थ –जिसके द्वारा यह समस्त (संसार ) व्याप्त है ,उसी को तू अविनाशी जान इस अव्यव (आत्मा )का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं हैं।
साधारण रूप में हम यदि इस श्लोक का अर्थ देखें तो जानेंगे की श्री कृष्ण अर्जुन से कह रहें हैं जो इस समस्त संसार में व्याप्त है, इसका जो रचयिता है ,हे अर्जुन वही एक मात्र अविनाशी है, उस अव्यव अर्थात आत्मा ,अर्थात ईश्वर का अंश है जिसका विनाश कोई नहीं कर सकता।
इस विषय को साधारण भाषा में समझने का प्रयास करें तो अधिक सरलता से समझ पाएंगे। ऊपर लिखा तर्क श्री कृष्ण ने अर्जुन को सत्य और असत्य के बीच का अंतर समझाने के लिए दिया। सत्य और झूठ दो अलग अलग संज्ञाएँ हैं अपने अपने विशेषण के साथ। सत्य का झूठ से कोई नाता नहीं और असत्य तब तक सिद्ध नहीं होता जब तक सत्य आस्तित्व में नहीं आता।
भाष्याकार श्री शंकरचार्य जी ने सत्य को ईश्वर स्वरुप माना है ,उसे विष्णु कहा। सत्य के रूप को बदल कर कही गई बात असत्य मानी जाएगी। जो है जो हम देख पा रहे हैं ,सुन पा रहे हैं ,छू पा रहे हैं ,अनुभूति कर पा रहे हैं ,जो संवेदनशील है सौम्य है उसकी व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं ,वह है -वही सत्य है वही विष्णु है और जिसकी व्याख्या की आवश्यकता है वह सच नहीं सच से जोड़ी जा रही कोई व्याख्या है या किसी का निजी विचार है। आज के युग की अर्थात
वर्तमान की ही बात करें श्री रामकृष्ण परम हंस जी को सत्य की अनुभूति हो गई थी ,नरेंद्र के पूछने पर उनहोंने कहा था “हाँ मैने उसे देखा है “जो अमूर्त है उसे देख नहीं सकते पर जो आत्मा का एक अंश है उसे देखने की आवश्यकता नहीं ,शब्दों में ब्यान करने की भी आवश्यकता नहीं , बस अनुभव अर्थात अनुभूति ही पर्याप्त है। इसके बाद ही परम हंस जी ने वाह्य जगत की ओर से अपनी दृष्टि हटा ली। नेत्र मूँद कर उस निराकार शक्ति के स्वरूप में (बोध में ) लीन हो गए ,फिर जो व्याख्या उनके मुख से निकली वो उस अनुभति को शब्दों में कहने का प्रयास मात्र था। यही बोध महात्मा बुध को भी हुआ ,सत्य को जाना और अनुभव किया ,उस स्तिथि तक पहुँचने के लिए लोगों का पथ प्रदर्शन किया ,शब्दों का सहारा दिया ,प्रयत्न करने की प्रेरणा दी पर सत्य की अनुभूति जो महात्मा बुध को हुई, ये उसे प्राप्त करने के प्रयत्न मात्र थे।
बात विषय से जरा हट रही है उपरोक्त महान व्यक्तियों द्वारा कही गई बात असत्य नहीं है ,पर इन बातों का आधार सत्य है। जिस वास्तु की व्याख्या हम करते या सुनते हैं यह आवश्यक तो नहीं की वह वस्तु या भाव हमारे समक्ष या विचारों में आकार ले ही लेंगे -क्योंकि व्याख्या
करने वाला तो मात्र व्याख्या ही कर रहा है उस अनुभूति की जो उसके अंतर्मन में है। अतः जो स्वरुप व्याख्या करने वाले के मन में है और जो स्वरुप व्याख्या सुनाने वाले के मन में आकार ले रहा है -दोनों एक जैसे या एक ही हैं यह प्रमाणित करना असंभव है।
श्री कृष्ण ने भी अर्जुन से यही कहा -जो सत्य है मिटाया नहीं जा सकता। संसार में जो भी है या बनाया गया है उसके स्वरुप को हम विचारों के आधार पर ,अपने ज्ञान के आधार पर समझने का प्रयत्न करते हैं। मिटटी के घड़े या बर्तन आवश्यकतानुसार भिन्न भिन्न आकार के बनाये और बेचे जाते हैं। बनाने से पूर्व भी ये मिटटी ही थे और बन कर भी ये मिट्टी ही हैं और टूटने पर भी मिट्टी ही हैं –तो यह सिद्ध हो गया की इन पात्रों का आधार अर्थात सच ‘मिट्टी ‘
ही है जिसको हम सच मानते हैं जो पात्र बनने के पहले भी थी ,पात्र बन कर भी और नष्ट हो जाने पर भी है तो नाश किसका हुआ उस असत्य का जिसको जिसे हमने आकार दिया नाम दिया आदि आदि।
और इसके लिए हमें पात्रों को तोड़ने की आवश्यकता नहीं क्योंकि प्रत्यक्ष है। सत्य का कोई पर्याय नहीं और न ही उसे दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। यह जैसा भी है जो भी है उसी रूप में रहता है। सत्य को मान लेने में भी कोई संकोच ,संदेह या दुविधा नहीं आ सकती ,ऐसा भी कह सकते हैं की यह अविभाज्य तत्व मतभेद से परे है ,दूसरी ओर यह भी सच है की लोग अधिकतर सत्य को आधार बना कर असत्य को सिद्ध करने में लगे रहते हैं पर कर नहीं सकते ,
वे जानते हैं की उनके प्रयत्न सर्वथा असत्य हैं और जो उनकी बातों पर विशवास करते हैं वे या कर रहे हैं वे सत्य से अनभिज्ञ हैं ,वक्ता पर श्रद्धा ही उनका आधार है। पर जिस दिन यह भ्रम टूटता है उस दिन अंतर्मन में बहुत कुछ टूट जाता है सारा जग झूठा लगने लगता है। धर्म पर से श्रद्धा हट जाती है और इंसान भटकने लगता है -विचारों में उठे तूफ़ान उसको भ्रमित कर देते हैं। दूसरी ओर सत्य अपनी तरह ही मनुष्य को अटल ,दृढ़ ,सयंमी और सौम्य बना देता है। संदेह का दुविधा का संकोच का कोई स्थान ही नहीं रहता। यह सत्य हम नकार नहीं सकते की प्रत्येक वस्तु में या जीवों में ईश्वर का वास होता है।
किसी भी वस्तु के नष्ट होने से उसका नाम या आकर नष्ट होता है जैसे की घड़े का नष्ट होना -मिटटी का आस्तित्व तो नहीं मिटता ,ऐसे ही अन्य खनिज पदार्थों से बनी वस्तुओं का भी हाल होता है ,ज इसी मिट्टी से निर्मित हैं और एक दिन मिट्टी में ही विलय हो जाती हैं। मिट्टी का आस्तित्व तो नहीं मिटता ऐसे ही जीव हैं जिनमें ईश्वर का वास है जिसे हम आत्मा कहते हैं जीव का आकार ,स्वरुप नाम आदि नष्ट होता है उससे जुड़ा ईश्वर का अंश नहीं आत्मा के स्वरुप में या आत्मा के अंश में कोई चाह कर भी परिवर्तन नहीं ला सकता और न ही टुकड़ों में विभाजित कर सकता है ,जीव का स्वरुप भग होते ही आत्मा का आत्मा में या कहें की ईश्वरीय स्वरुप में उसका विलय हो जाता है। हमारे समक्ष छोटे छोटे अनेकों उदाहरण हैं प्रकृति के इस नियम को समझने के लिए —–यहाँ हम जल के बारे में कुछ चर्चा कर सकते हैं , जल धरती पर अनेकों स्थानों पर अनेकों रूप में मिलता है। नदी नाले तालाब झील मानवीय निर्मित बाँध या जलाशय और सबसे बड़ी जल राशि महा समुद्र आदि। जल को हम जीवन आधार कह सकते हैं ,प्रत्येक जीव को जीवित कहें तो उसमे जितना आत्मा का योगदान है उतना जल ,वायु आदि का है यह हमारे हाथों से ले कर सागर तक की यात्रा निरंतर करता रहता है। किसी न किसी तरह यह सागर में जा मिलता है ,चाहे वह धरती के अंदर समाकर जाये या नदी द्वारा बह कर या उष्णता से (गर्मी से )भाप बन कर। भिन्न भिन्न कार्यों को संपन्न करता यह अपने ही स्वरुप में जा समाता है। और उसी स्वरुप द्वारा फिर से उत्पन्न हो भिन्न भिन्न रूप धारण कर अपनी नई यात्रा पूरी करता है। पर यह रहता तो जल ही है वह अपने करम से बंधा बिना किसी भेद भाव के समय के साथ आगे बढ़ता हुआ अपना आस्तित्व बनाये रखता है। यह एक सत्य है और इसका कोई पर्याय नहीं हम चाहें भी तो इसे दो भागों में नहीं बाँट सकते न ही इस पर कोई लकीर खींच सकते हैं। तातपर्य यह है की जो ‘सत्य ‘है वह परिवर्तन शील नहीं है और इस लिए वह शास्वत है। आदि शंकरचर्य जी ने भी इस श्लोक की व्याख्या करते हुए लिखा है की ‘आत्मा’का कोई विनाश नहीं कर सकता इस लिए की वह ईश्वर का अंश है। मगर हम सब ये जानते हैं की ‘आत्मा ‘रूपी सत्य की अर्थात उस उस दिव्य अमूर्त ‘सत्य ‘को कोई मिटा सके यह संभव ही नहीं। शंकराचार्य के विचारों का भी यही निष्कर्ष निकलता है की “आत्मा कभी मरती नहीं “.उपरोक्त श्लोक में भी इसी सत्य की चर्चा श्री कृष्ण अर्जुन से कर रहे हैं “जो असत्य है वह शास्वत नहीं”.