वर्ष 2014 के चुनाव में आज के सत्ताधीशों ने नारा दिया था… ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’. इसी नारे की भूलभुलैया और बहकावे में आकर जनता ने उन्हें दिल्ली-दरबार की गद्दी सौंप दी थी. यह निर्णय गलत था या सही? इसे हम सब जान-समझ चुके हैं. दूर के ढोल सुहाने दिखते हैं, मगर पास आने या उन्हें ठोंक-बजा कर देखने पर ही उनकी असलियत का एहसास होता है. अब इन्हीं सत्ताधीशों से देश कह रहा है, “माना हमने बागडोर सौंपी आपको, …पर हमें क्या पता था हमने पाला सांप को?” दुख है कि इनके भ्रमजाल में जनमानस फंस गया …और आस्तीन के सांपों ने ही हमें डंस लिया! अब खैरियत मनाओ कि 7 माह बाद फिर चुनाव आने वाले हैं, …यानी ‘अच्छे दिन जाने वाले हैं!’
आप में से ज्यादातर पाठक हम से पूछेंगे ही कि जब ‘अच्छे दिन आए ही नहीं, तो जाएंगे कैसे?’ इस पर मेरा तो कहना है कि 26 मई, 2014 से आज तक जितने भी 1595 दिन आए, वे सब अच्छे ही थे… भले ही सच्चे नहीं थे! अब आने वाले एक-एक दिन गिन कर बता रहा हूं कि अगले 7 माह के बचे हुए 231 दिन भी हंसते-खेलते-झेलते हुए बीत जाएंगे. फिर मई 2019 में तो ‘सच्चे दिन आने वाले हैं… क्योंकि ये अच्छे दिन जाने वाले हैं!’ मेरी बात को मजाक में मत लीजिए. पूरी गंभीरता से सोचिए कि कितने ‘अच्छे दिन’ हमने इन सत्ताधीशों के राज में बिताए. चाय से चर्चा शुरू हुई थी, गाय पर अटक गई थी. कश्मीर व आतंकवाद से लेकर पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक करके भटक गई थी. फिर नोटबंदी आयी. नए-नए नोट लायी. क्या वे ‘अच्छे दिन’ नहीं थे? अगर नहीं थे, तो खुशियां मनाओ कि ऐसे दिन अब जाने वाले हैं, …क्योंकि चुनाव तो आने वाले हैं!
वाकई 2014 से देश में ‘अच्छे दिन’ ही चल रहे हैं, तभी तो यहां लाखों शरणार्थी और रोहिंग्या पल रहे हैं! मजा यह भी है कि यहां दो बच्चे वाले टैक्स देते हैं और आठ-दस बच्चे वाले सब्सिडी लेते हैं! और कितने ‘अच्छे दिन’ चाहिए मित्रों…? जहां 6 करोड़ शौचालय बना दिए गए हैं, भले ही उनमें डालने के लिए छह लोटे पानी भी नहीं है! इसके अलावा तीन करोड़ गैस चूल्हे (सिगड़ी) बांट दी गई हैं, मगर उनके लिए महंगे सिलेंडर खरीदने की ताकत ही हमारी नहीं है, तो इसमें ‘अच्छे दिन’ लाने वालों का क्या कसूर है? बीते साढ़े 4 साल में विकास पैदा हुआ या नहीं, मगर एक भी ‘अफजल’ पैदा नहीं हुआ. क्या ये अच्छे दिन नहीं हैं? मस्जिद-मस्जिद घूमने वाला छोटा नेता आजकल ‘रामभक्त, शिवभक्त, नर्मदाभक्त’ बना घूम रहा है और मंदिर-मंदिर घूमने वाले मगरूर सत्ताधीश मस्जिदों में सजदा कर रहे हैं! क्या ये ‘अच्छे दिन’ नहीं हैं? एक नेता हार्दिक-कन्हैया से ‘वोट-यारी’ कर रहा है और दूसरा ट्रंप-पुतिन के साथ दोस्ती बढ़ा रहा है. देश की चिंता तो फुर्सत मिलने पर ही कर लेते हैं ये सफेदपोश! क्या ये ‘अच्छे दिन’ नहीं हैं? लेकिन अब ये जाने वाले हैं, ….क्योंकि चुनाव आने वाले हैं!
अब बात अर्थव्यवस्था की. कहते हैं कि ‘अर्थ का अनर्थ’ हो गया है. देश के खजाने का दिवाला निकल गया है. रुपया 75 पर तड़क गया है. पेट्रोल-डीजल बेभाव भड़क गया है …और शेयर बाजार भी हद से नीचे लुढ़क गया है. कर्जमाफी मांगने वाले किसान दिल्ली जाकर पुलिस की लाठियां खा रहे हैं, …और देश के अमीर-उद्योगपति सवा तीन लाख करोड़ की कर्जमाफी पा रहे हैं! ऐसे ही ‘अच्छे दिनों’ के लिए तो हमने इनको चुन कर दिया था मित्रों! ये कितने ‘अच्छे दिन’ हैं कि हमारा शासक इवेंट-दर-इवेंट कर रहा है, दिन में तीन बार कपड़े बदल रहा है …और विदेश से ‘चैंपियन्स ऑफ द अर्थ’ का अवार्ड पा रहा है! इनके ऐसे ही ‘अनर्थकारी अच्छे दिनों’ पर नाज करिए मित्रों, …भले ही देश के राष्ट्रीय सम्मान में चाहे जितनी गिरावट आ जाए! मुद्दे की बात तो यह है कि जिस व्यवस्था के खिलाफ ‘शिखंडी’ शस्त्र उठा ले, बकौल महाभारत उस सत्ता-व्यवस्था का अंत निकट होता है. राम मंदिर मुद्दे पर अब किन्नरों ने सरकार से पंगा ले लिया है, तो समझ लीजिए कि बंटाढार होना तय है. इसीलिए मैं कहने को मजबूर हूं कि “किन्नर आने वाले हैं… और अच्छे दिन जाने वाले हैं…!”
(सुदर्शन चक्रधर – संपर्क : 96899 26102)