क्रिकेट और राजनीति में कुछ भी संभव..
कहते हैं समय बड़ा बलवान होता है, समय किसी के लिए नहीं ठहरता ! फिलहाल महाराष्ट्र राजनीती में आये रोचक घटनाक्रम को देखते हुए तो ऐसा कहा जा सकता है. वैसे भी कुछ दिन पूर्व ही भाजपा के वरिष्ठ नेता व केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कहा था क्रिकेट और राजनीति में कुछ भी संभव है. शनिवार को भोर की पहली किरण के साथ राजनैतिक भूकंप के झटके महसूस किये गए. इन आकस्मिक झटकों से राजनीती रिएक्टर पर भूकंप की तीव्रता नापने वाले सभी यन्त्र निष्क्रिय हो गए. नितिन गडकरी के ब्यान का भले ही विरोधियों ने उस समय उपहास उड़ाया हो लेकिन विरोधियों को अब समझ आ गया होगा कि गडकरी मज़ाक नहीं कर रहे थे.
शुक्रवार देर रात 11 बजे से शनिवार सुबह आठ बजे के बीच देश की राजनीती ख़ास तौर पर महाराष्ट्र में ऐसा खेल हुआ, जिसकी कल्पना भाजपा के कई बड़े नेताओं को भी नहीं थी. राज्य में लोग सुबह की “ मोर्निंग वाक् ” के बाद चाय की चुस्कियों के बीच जब अखबार के पन्नो पर शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के नाम पर सहमती की खबर पढ़ रहे थे , उसी समय सुबह आठ बजे तक देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके थे.
ये क्या हुआ ? कैसे हुआ ? कब हुआ ?? आदि यक्ष प्रश्नों के साथ छत्रपति शिवाजी महाराज, खंज़र, गद्दारी जैसे शब्दों का फैलाना दिन भर ज़ारी रहा. आनन् फानन में राष्ट्रवादी सुप्रीमों , चाणक्य कहे जाने वाले शरद पवार व शिवसेना के कद्दावर ( अब बौने हो चुके ) प्रमुख उद्धव ठाकरे की सयुंक्त पत्रकार परिषद् भी संपन्न हुई. बौखलाए हुए नेताजी ने अपने दामन को पाक साफ़ दिखाने के लिए विधायकों की मीडिया परेड भी करा दी. उद्धव ने भी सरकार के शपथ ग्रहण पर टिपण्णी करते हुए “रात को पाप होते हैं व फर्जिकल स्ट्राइक” कह कर अपनी खीज़ जाहिर कर दी. लेकिन कुछ देर बाद ही कांग्रेस नेता अहमद पटेल ने अपनी प्रेस वार्ता में सत्ता स्थापना के लिए विगत पंदह दिनों से चले मीटिंगों के दौर व विलम्ब से पल्ला झाड़ते हुए गेंद राष्ट्रवादी – शिवसेना के पाले में फेंक दी. अब फिर से मंथन के दौर , विधायकों पर नज़र, हम साथ साथ हैं की कसमें खाना प्रारंभ हो गया.
महाराष्ट्र राजनीती के इस भूचाल को इसलिए अधिक तवज्जो दी जा रही है क्योंकि यह सब भाजपा के लिए यां केंद्र की भाजपा सरकार के समय हुई घटना है. इतिहास में झांके तो ऐसी बहुत सी घटनाएं हैं जिन्हें इस मौके पर याद करना जरुरी होगा. शिवसेना हमेशा से अपने लाभ की राजनीति करती आई है. बाला साहब ठाकरे ने शिवसेना पार्टी की स्थापना वर्ष 1966 में की थी. महाराष्ट्र राज्य के गठन के साथ भविष्य में निर्णायक भूमिका निभाने की बारीक नज़र रखते हुए बाला साहब ने वर्ष 1971 में इंदिरा गांधी से विरोध कर निर्मित हुए नए गुट ‘कांग्रेस ओ’ के साथ गठबंधन किया. उस समय शिवसेना ने लोकसभा चुनावों में 5 प्रत्याशियों को उतारा था इन में से कोई भी उम्मीदवार विजयी नहीं हुआ था. वहीँ जब वर्ष 1975 में इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल घोषित किया था तब बाला साहब ठाकरे ने आपातकाल को सही ठहराया था. अवसरवादिता के और उदहारण देखें तो वर्ष 1977 व 1980 के चुनावों में शिवसेना ने कांग्रेस को समर्थन दिया. यह सब इसलिए संभव हुआ था कि उस समय बाला साहब ठाकरे और महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री एआर अंतुले में घनिष्ठ संबंध थे.
शनिवार को महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री पद पर फिर से देवेंद्र फडणवीस के शपथ लेते ही जिस शिवसेना को नैतिकता की बातें याद आने लगीं हैं, उनके नेता शायद यह भूल गए हैं कि वर्ष 2007 में एनडीए का हिस्सा होते हुए भी शिवसेना ने राष्ट्रपति पद के लिए प्रतिद्वंद्वी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल को समर्थन दिया था. मराठी मानुस के नाम पर प्रतिभा पाटिल को समर्थन करते समय उन्हें नैतिकता यां अवसरवादिता स्मरित नहीं हुई तो फिर आज बौखलाहट क्यों है ? इतना ही नहीं अतीत के पन्नो में झाँक कर देखें तो जिस कट्टर हिंदुत्ववाद व इस्लाम विरोध के लिए शिवसेना की पहचान है, वहां भी उन्होंने समझोता करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.
जानकार अटपटा लगेगा लेकिन यह सत्य है कि वर्ष 1978 की है शिवसेना ने अपने दुशमन इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के साथ गठनबंधन किया था. अपना मेयर बनाए जाने के लिए मुस्लिम लीग से गठबंधन कर शिवसेना ने क्रोस वोटिंग कर मनोहर जोशी को मेयर बनवाया था. इसी दौरान बाला साहब ठाकरे ने मुस्लिम लीग के नेता गुलाम मोहम्मद बनातवाला के साथ मंच भी साझा किया था.
इतिहास से निकल कर अब आते हैं भाजपा शिवसेना गठबंधन के रिश्तों पर, जहां यह समझना जरुरी है कि पूर्व में भाजपा राज्य में छोटे भाई की भूमिका में थी. गठबंधन में जिसको कम जगह मिलती है उसे छोटा भाई कहते हैं. यही कारण था कि वर्ष लेकिन 1995 में मनोहर जोशी व वर्ष 1999 में नारायण राने शिवसेना के मुख्यमंत्री रहे. बाला साहब ठाकरे ने गठबंधन के समय ही स्पष्ट किया था कि जिस पार्टी की ज्यादा सीटें होंगी उसे ही प्रमुख पद मिलेगा. परिणामस्वरूप वर्ष 2009 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना के 45 सीटों के मुकाबले भाजपा को 46 सीट के रूप में एक सीट अधिक मिली और भाजपा को नेता प्रतिपक्ष का पद दिया गया. एकनाथ राव खडसे नेता प्रतिपक्ष चुने गए. गठबंधन के पुराने फार्मूले से पलटकर शिवसेना ने खुद ही अपनी अति महत्वाकांक्षा का परिचय दिया है.
विगत वर्ष 2014 से लेकर इन विधानसभा चुनाव तक शिवसेना राज्य में कथित ‘छोटे भाई’ की भूमिका में आ गई है. अब गठबंधन धर्म का पालन न करते हुए अभी नहीं तो कभी नहीं का भ्रम पालते हुए मुख्यमंत्री पद का मोह पाल बैठी. समझने वाली बात यह है कि अवसरवादिता के राजनैतिक इतिहास को अपनाने वाली शिवसेना व उनके नए कांग्रेस – राष्ट्रवादी बेमेल गठबंधन को राज्य की किसान समस्या यां अन्य व्यवस्था से कोई लेना देना नहीं है. तीनो बेमेल पार्टियां अपने अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए बैठकों पर बैठकें करते हुए राज्य की जनता को मुर्ख बना रहे हैं. सुचना क्रांति के युग में तेज़ इन्टरनेट व्यवस्था होते हुए भी मुंबई से शर्त – विधायक सूची लेकर प्रतिनिधि का दिल्ली जाना हास्यपद लगता है. इस सारे धारावाहिक में शरद पवार व उद्धव ठाकरे के महराष्ट्र सत्ता में परिवार प्रमोशन के छिपे दर्द को भी नहीं नकारा जा सकता.
महाराष्ट्र की राजनीति में शनिवार को जो कुछ भी हुआ वह पहले कर्नाटक व वर्ष 1995 में गेस्ट हाउस काण्ड के रूप में हो चुका है. मायावती को भाजपा का समर्थन न मिलने देने के लिए मुलायम सिंह की पार्टी कार्यकर्ताओं का मायावती पर हमला कैसे भुलाया जा सकता है. एक अन्य राजनीतिक ड्रामें में कर्नाटक में एन धरम सिंह की नेतृत्व वाली कांग्रेस-जेडीएस की सरकार को रातों-रात गिरा कर पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा के बेटे एच डी कुमारस्वामी के नेतृत्व में भाजपा का साथ लेकर मुख्यमंत्री बनाया गया था. उस समय पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा ने मौन धारण कर लिया था. उस समय मुख्यमंत्री बने एचडी कुमारस्वामी ने भी लोगों के समक्ष आंसू बहाते हुए कहा था कि उन्होंने अपने बाप को धोखा दिया. यह सब अधिक दिन तक नहीं चल पाया और सबको पता चल गया कि बेटे को मुख्यमंत्री बनाने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा ने ही विस्तृत योजना बनाई थी.
महाराष्ट्र के हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव के परिणामों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, ”देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में आने वाले पांच साल महाराष्ट्र के विकास को और अधिक ऊंचाई पर ले जाने वाले होंगे, ऐसी मुझे उम्मीद है. लेकिन पिछले कुछ दिनों से शिवसेना खासतौर पर संजय राउत ने प्रधानमंत्री की महाराष्ट्र सत्ता स्थापना उम्मीदों पर पानी फेर रखा था. फिलहाल तो शनिवार को महाराष्ट्र के गतिरोध व अनिश्चितता की सभी आशंकाओं को खारिज करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व गृहमंत्री अमित शाह की जोड़ी ने देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाकर ही दम लिया.
बरहाल कहते हैं इतिहास दोहराता है. शनिवार को इतिहास की पुनरावृत्ति होना बताई जा रही है. फिलहाल इस सारे मामले में ध्यान देने योग्य बात यह है कि शनिवार को अवसरवादिता से बाहर निकल कर शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे को एक बार फिर छत्रपति शिवाजी महाराज याद आ गए. सत्ता स्थापना के लिए हिंदुत्व का मुद्दा छोड़ने के लिए तैयार शिवसेना को फिर से नैतिक बाते याद आ गई. बौखलाहट साफ़ देखी जा सकती है. बेहतर होता की राष्ट्रवादी व कांग्रेस राज्य की जनता के जनमत का सम्मान कर सरकार बनवाने में बेहतर विपक्ष व शिवसेना विश्वसनीय छोटा भाई की भूमिका निभाते तो शायद राज्य के हित में होता. अब विधायकों पर नज़र रखने, अजित पवार को निष्काषित करने, न्यायालय का दरवाजा खटखटाने, सत्ता लोलुपता का प्रदर्शन करने जैसी बातों का क्या अर्थ ?
सबकी निगाह 30 नवम्बर तक की विश्वासमत हासिल करने की समय सीमा पर टिकी है. निश्चित ही अजित पवार ने भाजपा का साथ कुछ ठोस पत्तों को हाँथ में रख कर ही दिया होगा. सुप्रिया सुले व परिवादवाद के आगे लगातार उपेक्षा सह रहे अजित पवार भी कच्चे खिलाड़ी नहीं हैं. भाजपा नेतृत्व का यह कदम भी साधारण नहीं होगा. राजनीतिक पंडितों को दुःख तो इस बात का होगा कि वह मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के विगत इस्तीफा देने के बाद से चले आ रहे नाट्य क्रम में भाजपा की ख़ामोशी को नहीं समझ सके.
विशाल चड्ढा 7588518744
( लेखक मराठी समाचार पत्र तरुण भारत जलगाँव संस्करण के मुख्य सम्पादक हैं. )