नई दिल्ली ( तेजसमाचार संवाददाता ) – अटलजी के प्रेरक जीवन के अविस्मरणीय प्रसंगों को विभिन्न पुस्तकों और स्रोतों से अटलनामा के जरिए एक मीडिया मित्र ने सुन्दर संकलित किया है. हिन्दुस्तान को परमाणु संपन्न कर विश्व पटल पर स्थान दिलाने वाले पूर्व प्रधानमन्त्री, राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक, पत्रकार, कवि, ओजस्वी वक्ता, करोड़ों भारतवासियों के आदर्श अटल बिहारी वाजपेयी का स्मरण करते हुए तेजसमाचार.कॉम की श्रध्दा सुमनों के साथ प्रस्तुति :- भाग 05
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इंदिराजी की नृशंस हत्या के बाद नवंबर 1984 को दिल्ली मे सिखों का संहार होने लगा तो अटलजी ने रहा नहीं गया.
31 तारीख को इंदिरा गांधी जी की हत्या हुयी और 1 नवम्बर से ही पूरी दिल्ली को दरिंदों ने दंगों की चादर उढ़ा दी.समय के पहर के साथ ही लाशों की गिनती बढ़ती जा रही थी.अकेले दिल्ली में ही पौने तीन हज़ार सिखों की बर्बरतापूर्वक हत्या हुयी थी. इस दौरान राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह (जो की खुद एक सिख थे) बेबस बने रहे, वो चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे क्यूंकि राजीव गांधी के कलेजे को ठंडक मिले इसके लिए थोड़ी जमीन और हिलनी बाकी थी, भला बड़ा पेड़ जो गिरा था.
ज़ैल सिंह अपने कार्यालय से तत्कालीन दिल्ली भाजपा अध्यक्ष विजय मल्होत्रा को फोन करके दंगो में घिरे सिखों के घर के पते नोट करा रहे थे ताकि भाजपा के कार्यकर्ता उनकी मदद कर सकें.
इस दौरान अटल जी का कार्यकर्ताओं को सख्त निर्देश था की सिखों की रक्षा हर हाल में करनी है चाहे खुद की जान ही क्यों न चली जाये !
दंगों में शुरू में कांग्रेस ने जनता को गुमराह करके रखा और कहा की दिल्ली में सिर्फ कुछ सौ या सवा सौ जानें गयी हैं. अटल जी ने यह सुनते ही घोषणा की ”ये तो साफ़ झूठ है,कम से कम ढाई हज़ार सिखों का नरसंहार हुआ है.”
उनका मानना था कि जिसने भी ये किया है, जो कोई भी आदमी इसमें शामिल है वो इंसान की परिभाषा से कोसों दूर है, पाशविक है, पापी है,धर्मांध है, काफ़िर है.
अटल जी की ये घोषणा उस वक्त के राजनीतिक माहौल में बीजेपी के खिलाफ जा रही थी, लेकिन
अटलजी चुप नहीं बैठे, वह निर्दोष सिखों के नरसंहार के मामले पर हर उस शख्स को कोसते रहे जिसके सामने आगज़नी, हत्याएं हुईं और वह मोहल्ले में चुप खामोश रहा.
इसके बाद चुनाव सर पर थे…इंदिरा गांधी के मौत के बावजूद 4 साल पुरानी भाजपा की दिल्ली में अच्छी पकड़ थी. दिल्ली भाजपा को लगा की वो सारी सीटें जीत लेंगे, पर परिणाम आया तो भाजपा की दिल्ली में शर्मनाक पराजय हुयी थी, जनता ने कांग्रेस को एकमुश्त वोट दिए.
पार्टी के कई नेताओं ने और कार्यकर्ताओं ने इसके लिए इंदिरा जी के प्रति सहानुभूति से ज्यादा दोषी अटल जी के उस बयान को ठहराया जिससे दिल्ली की जनता बीजेपी से खफा हो गई थी. ये बात लेकर भाजपा की दिल्ली इकाई अटल जी के पास पहुंची.दिल्ली यूनिट ने कहा ”अटल जी आपको ऐसा बयान नहीं देना चाहिए था,हम सभी सीट जीत सकते थे पर आपके बयान के चलते हम सभी सीटें हर गए.”
ये सुनकर अटल जी ने उन सभी की तरफ देखते हुए कहा ”मैं ऐसे दसियों चुनाव हारने को तैयार हूँ…”
अटल जी से ये सुनकर सभी खामोश हो गए. एक वाक्य ने उन सभी के सवालों का जवाब दे दिया था..सभी समझ गए थे कि अटल जी उन लोगो में से हैं जो तख़्त और ताज को लात मार सकते हैं ,उसूलों और आदर्शों को नहीं..वो ऐसे ही अटल नही है..ऐसे थे हमारे श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ! जिनको राजनीति में तमगे की ख्वाहिश नहीं थी,उन्हें सिर्फ देश की फ़िक्र थी….सिर्फ देश की. ना पार्टी की ना खुद की, सिर्फ देश की और देशवासियों की .
दरअसल उन नेताओं का गुस्सा इस बात पर था की वो लोकसभा पहुँचते पहुँचते रह गए,उन नेताओं को मारे गए लोगों की कोई फ़िक्र नहीं थी…उनके पांव तो संसद की चौखट पर कदम रखने को आतुर थे बजाये पीड़ितों के चौखट के. पर अटल जी के उस एक वाक्य ने न सिर्फ उन सबको आत्ममंथन पर मजबूर किया वरन उन सबके सामने ये बात भी पुख़्ता कर दी की अटल जी के आदर्श हिमालय से भी ऊंचे है और उनके उसूल अटल हैं,इसलिए भाजपा इस बार भले ही 2 सीटें पायी हो पर हम इस अंधरे की छटा से निकल कर कमल खिलाएंगे….जरूर खिलाएंगे…
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जनता पार्टी के सरकार में विदेश मंत्री रहते हुए अटल जी एक बार अफगानिस्तान के दौरे पर थे तो उन्होंने वहां के राजदूत से घुमा फिरा कर पूछा की ये ग़ज़नी किधर पड़ता है अफगानिस्तान में ? वहां के अफगानिस्तानी राजदूत ने कहा की ”ये गज़नी क्या है,हम नहीं जानते” ….अटल जी ने भारत आने पर साफ़ किया की अफगानिस्तान के इतिहास में लुटेरे महमूद ग़ज़नवी का कोई स्थान नहीं है….अटल जी ने खुद जनता को ये बताया की जब से उन्होंने ग़ज़नवी के बारे में पढ़ा था तब से ये बात उनके ह्रदय में बाण की तरह चुभ रही थी की भारत माँ के खजाने को उसने कइयों बार लूटा था. पर अटल जी तो वहां के राजदूत से ऐसा सुनकर हतप्रभ रह गए की जिस ग़ज़नवी के किस्सों से यहाँ की किताबें पटी पड़ी हैं असल में उसे वहां के लोगों ने ही दुत्कार दिया था.
दूसरी बात : उसी अफगानिस्तानी दौरे पर अटल जी जिस होटल में रुके थे उस होटल का नाम था ”कनिष्क”…अटल जी ने फिर राजदूत से पुछा की आपके यहाँ होटल का नाम कनिष्क कैसे ? कनिष्क कौन लगता है आपका ? उस अफगानिस्तानी मुसलमान राजदूत का जवाब था की कनिष्क हमारा पूर्वज था…..हम लोग उसी के वंशज है (नोट : कनिष्क का साम्राज्य विस्तार आज के अफगानिस्तान तक था)…..ये सुन कर अटल जी ने पूर्वजों की परंपरा का स्मरण दिलाया. वो बोले- भाई हम आप अलग अलग नहीं है…..हम आज भी उसी साझा संस्कृति के हिस्से हैं..जो प्राचीन काल से गांधार से लेकर जावा-सुमात्रा-स्वर्णभूमि तक
भारत को जोड़े रखती थी.
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पोखरण 2 का परीक्षण उनकी चट्टानी दृढ़ता और राष्ट्र रक्षा की उद्दाम इच्छा का प्रतीक था. किस प्रकार तनिक सी भी दुनिया भर में आहट न होने देते हुए उन्होंने अमरीका की चुनौती और धमकियों को रौंद कर पोखरण में जय पताका फहराई. यह उनके जैसे हिम्मत वाले स्वयंसेवक प्रधानमंत्री के बस की ही बात थी. अमरीका ने भारत का अतिशय विरोध किया, प्रतिबंध लगाए, सुपर कम्प्यूटर देने से इनकार किया, हमारे परमाणु कार्यक्रमों के लिए गुरुजल (हेवी वाटर) की आपूर्ति रोक दी, सैन्य उपकरण और आवश्यक सामरिक सामग्री पर रोक लगा दी. अमरीका के चलते पूरा यूरोप हमारे विरुद्ध खड़ा हो गया. लेकिन अटल जी टस से मस नहीं हुए. प्रो. विजय भाटकर जैसे वैज्ञानिकों के नेतृत्व में सुपर कम्प्यूटर अमरीका की लागत से दसवें हिस्से में भारत ने खुद बना लिया. अपने स्वदेशी क्रायोजैनिक इंजन का भी विकास किया. अमरीका को खुद हमारे समक्ष दोस्ती के लिए आना पड़ा. लेकिन हम अमरीका के पास अनुनय-विनय के साथ नहीं गए.
कारगिल युद्ध के समय भी उन्होंने वही जीवटता दिखाई. स्वयं मोर्चों पर सैनिकों का मनोबल बढ़ाने गये. पाकिस्तान को करारा जवाब देने में सेना के हाथ रोके नहीं और जब अमरीका की शरण में गये पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अमरीका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने व्हाइट हाउस बुलाया और संदेशा भेजा कि अटल जी भी वार्ता के लिए आएं तो भारत के प्रधानमंत्री श्री अटल जी ने साफ मना कर दिया और कहा कि यह हमारा मामला है, इसे हम खुद सुलझाएंगे.
जिस हिम्मत से वे रक्षा के संबंध में दुनिया के समक्ष चट्टानी दृढ़ता के साथ खड़े हो जाते थे उसी हिम्मत के साथ शांति के लिए भी लीक से हटकर फैसले करने की उनमें सामर्थ्य थी. परवेज मुशर्रफ के बार-बार आग्रह करने पर अंतत: उन्हें भारत बुलाया जाए, इसका परामर्श आडवाणी जी ने ही दिया था.मुशर्रफ बेहद घटिया किस्म के फौजी हैं. वाघा सीमा पर जब अटल जी लाहौर बस यात्रा लेकर गये थे तो मुशर्रफ ने उन्हें सलामी नहीं दी थी. हमारे तत्कालीन वायुसेना अध्यक्ष श्री यशवंत टिपनिस ने भी मुशर्रफ के दिल्ली आने पर सलामी नहीं दी और देशभक्तों का मनोबल बढ़ाया. काश पूर्व वायुसेनाध्यक्ष टिपनिस को उनके योग्य महत्वपूर्ण पद और अलंकरण मिला होता. आगरा में मुशर्रफ ने बेईमानी दिखाई और अटल जी ने उन्हें बैरंग वापस भेजा.
स्वर्णिम चतुर्भुज योजना के माध्यम से पूरे देश को एकता के सूत्र में बांध एक अद्भुत राजमार्ग क्रांति का अटल जी ने श्रीगणेश किया. एक ग्रांट रोड के लिए शेरशाह सूरी को इतना अधिक मान और महत्व दिया जाता है. अटल जी ने शेरशाह सूरी से सौ गुना बड़ा क्रांतिकारी काम किया. यही असाधारण और अभूतपूर्व अध्याय संचार के क्षेत्र में लिखा गया. जब अटल जी ने पूरे देश में मोबाइल टेलीफोन का नया युग रचा. आज जो हर व्यक्ति के हाथ में मोबाइल फोन तथा इंटरनेट क्रांति का वातावरण दिखता है उसके जनक अटल जी ही हैं.
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उनको गुस्सा नहीं आता था. पर जब किसी बात पर वे बहुत अधिक आहत होते थे तो चुप हो जाते थे. कुछ ऐसे प्रसंग भी हुए जब वे अपने ही विचार-परिवार के शिखर पुरुषों के प्रति कठोरता भरे आलोचना के शब्द कह सकते थे, लेकिन वे मन के दर्द को भीतर ही भीतर पी गये. लोगों ने उनसे कहा कि अटल जी, आप सच्चे महापुरुष हैं. आप चाहते तो बहुत कुछ बोल जाते और जनता आपका बोलना न्यायोचित भी मान लेती. लेकिन आपने न बोलकर एक स्वयंसेवक की मर्यादा और परिवार की गरिमा को बचा लिया.
एक बार पांचजन्य के स्वदेशी अंक में भारत माता के चीरहरण का प्रतीक चित्र छापा और लिखा कि विदेशी धन और विदेशी मन भारत की अस्मिता पर कैसे प्रहार कर रहा है. अंक बाजार में पहुंचते ही प्रधानमंत्री कार्यालय से अटल जी का फोन आया- आप लोगों ने यह ठीक नहीं किया. भारत माता का चीरहरण हो और हम जिन्दा रहें, ऐसा कैसे हो सकता है. नीतियों में मतभेद को अतिवादी भाषा में नहीं लिखना चाहिए.
कांग्रेस पर प्रहार करते समय श्रीमती सोनिया गांधी पर भी प्रहार होते थे. अटल जी ने हमें रोका और कहा, कांग्रेस को धराशायी करना है, उसके कार्यक्रमों और नीतियों पर प्रहार कीजिए.
किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप या प्रहार करना हमारी राजनीतिक भाषा का अंग नहीं होना चाहिए. नीतियों में मतभेद को अतिवादी भाषा में नहीं लिखना चाहिए.