चक्रव्यूह- रावण के सामने … सस्ती इन्सानी जान!

लोकतंत्र में जब ‘तंत्र’ ही ‘लोक’ को कुचलने-रौंदने लगता है, तब मानव अंगों के क्षत-विक्षत लोथड़े भी बगावत कर देते हैं! व्यवस्था जब चरमराती है, तब जनाक्रोश के शोले भड़कते हैं… और सियासत के जुमले चलने लगते हैं. रावण दहन के दौरान अमृतसर में जब एक तेज रफ्तार डेमू (डीएमयू) ट्रेन ने ट्रैक पर खड़े सैकड़ों सिर-धड़ों को कुचल डाला, तो देशभर में हाहाकार मच गया. एक ‘कागजी रावण’ के सामने हाड़-मांस के जीवित इंसानों का समूह कितना बेबस और लाचार हो गया. इसके दर्शन अमृतसर में रावण बनी रेल ने करवा दिए. अब स्थानीय प्रशासन और रेल विभाग एक-दूसरे पर दोषारोपण कर रहे हैं… और उधर राख में तब्दील हो चुका रावण, फिर भी अट्टहास कर रहा है. सचमुच ‘सिस्टम के रावण’ के सामने इन्सानी जान कितनी सस्ती हो चुकी है!
महंगाई इस कदर बढ़ गई है कि उसकी तपिश में रावण बनाना-जलाना भी महंगा हो गया है. नागपुर के कस्तूरचंद पार्क में रावण दहनोत्सव के लिए 15 लाख रुपए खर्च किए गए. दिल्ली के रामलीला मैदान में दशहरा उत्सव के लिए एक करोड़ से अधिक का खर्च हुआ. अमृतसर के उस रावण दहन में 7 लाख स्वाहा किए गए, जहां यह भीषण रेल हादसा हुआ. और जो 70-75 आम आदमी मारे गए, उन्हें मुआवजे के तौर पर दो-दो, पांच-पांच लाख रुपए देने की घोषणा की गई. पता नहीं यह मुआवजा पीड़ित परिवारों को मिलेगा भी या नहीं? इसलिए कहना पड़ रहा है कि आम आदमी की जान इन ‘रावणों’ के सामने कितनी सस्ती हो गई है! क्योंकि खास आदमी (वीवीआईपी) तो ‘रावण’ के सामने स्टेज पर बैठते हैं, अथवा दर्शक-दीर्घा में गद्देदार सोफों पर! वे रेल पटरियों पर तमाशा देखने भीड़ का हिस्सा कभी नहीं बनते. क्योंकि उनकी जान बेशकीमती होती है.
मेरा तो मानना है कि क्या मिलता है ऐसे ‘कागजी रावण’ को जलाने में? ये आतिशबाजी का शो, ये पुतला दहन और कानफाडू ढोल-नगाड़ों का शोर,…. सब कुछ किसी आडंबर से कम नहीं है. कोई तो पहल करे, ताकि ऐसी परंपरा पर रोक लगे. लेकिन सवाल आस्था का है. मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के विजयोत्सव का है. फिर भी ऐसी हृदयविदारक त्रासदी का समर्थन कोई नहीं करना चाहेगा. यह भीषणतम त्रासदी हमारे समाज में पनप चुकी राजनीतिक लीपापोती, पाखंड और अराजकता की ही देन है. पंजाब के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू कहते हैं कि यह कुदरत का प्रकोप है. तो अब सिद्धू ने ही इसका जवाब देना चाहिए कि इस प्रकोप का आमंत्रक कौन है? कौन है वो ‘जनरल डायर’ जिसने अमृतसर में एक और काला इतिहास रच डाला? इस समारोह के आयोजक स्थानीय कांग्रेसी पार्षद ने रावण दहन के लिए प्रशासन से तो अनुमति ली थी, लेकिन रेल विभाग से नहीं ली थी. चूंकि मंत्री सिद्धू की पत्नी पूर्व विधायक नवजोत कौर इस दशहरा समारोह की मुख्य अतिथि थीं, इसलिए प्रशासन ने भी इसे होने दिया. मगर लोग कट मरे, तो अब जिम्मेदारी किसकी?
दरअसल, अमृतसर ने अंधी आस्था का ऐसा दर्द झेला है, जिसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है. सिस्टम के ‘रावण रूपी राक्षस’ ने ही रेल बनकर ट्रैक पर खड़े तमाशबीनों को रौंद डाला, कुचल डाला,…. तो असली दोषी की पहचान कैसे होगी? रावण के प्रतीक तो अगले बरस फिर जिंदा हो कर जलने-मरने आ जाएंगे, लेकिन इस हादसे में मरे आम आदमी के प्राण कौन लौटाएगा? यह भी कैसी विडंबना है कि विजयादशमी के दिन ‘मृत रावण’ का वध और दहन ‘जीवित रावण’ करवाते हैं, इससे बड़ा क्रूर उपहास और क्या होगा? अगर दशहरा ही मनाना है, तो हमारे-अपने भीतर की बुराइयां जलाइए. समाज में मौजूद अत्याचारी, बलात्कारी, जेहादी, आतंकी, झूठे-फरेबी और जुमलेबाज-भ्रष्टाचारी रावण को जलाइए. देश को सबल, सफल और मजबूत बनाइए. यही शुभकामनाएं.
जरूरी है अपने जेहन में ‘राम’ को जिंदा रखना,
पुतला जलाने से कभी ‘रावण’ नहीं मरते।
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