चुनावी मैदान में चित हुए राजनीति के ‘स्वयंभू चाणक्य’ से हमने उनकी शर्मनाक पराजय का कारण पूछा, तो वे बगले झांकने लगे. फिर गहरी सांस लेकर बोले, ‘वे मुंगेरीलाल… मुफ्त का माल बांटने के कारण ही जीते हैं. अगर मुफ्त बिजली-पानी का मुद्दा वे नहीं उठाते, तो हम उन्हें सत्ता से जरूर हटाते!’ उनके चेहरे पर हार का गम था… लेकिन उनकी बात में दम था. फिर भी हमने उन्हें छेड़ा, ‘लोगों ने तुम्हारी ध्रुवीकरण की राजनीति को नकार दिया है. इसलिए व्यर्थ के बहाने मत बनाइए. सिर्फ ‘सबका साथ सबका विकास’ की बात कीजिए. जनता को और अधिक मत बरगलाइए!’
कथित ‘चाणक्य’ ने हमारे सामने हाथ जोड़े… और शब्दों के तीर छोड़े. कहने लगे, ‘आज के बाद हम भी देश की जनता को ‘मुफ्तखोरी’ के जाल में फंसाएंगे, …तब देखना अगला चुनाव हम ही जीत जाएंगे.’ हमें लगा कि अब इस देश को धीरे-धीरे मुफ्तखोरी की लत लगाई जाएगी, ताकि आने वाली नस्लें वोट देने के काम आएंगी. ओह! गजब है इस मुफ्तखोरी का संदेश… जय हो भारत देश!
जरा सोचिए… आज अपने देश में बचपन से ही किस तरह मुफ्तखोरी की आदत लगाई जा रही है. बच्चा आंगनवाड़ी या बालवाड़ी में जाता है, तो उसे वहां दूध-भात, खिचड़ी या अंडा दिया जाता है. बच्चों को मिड-डे मील खिलाया जाता है. लगभग सभी राज्यों में छात्राओं को मैट्रिक या हायर मैट्रिक तक की शिक्षा मुफ्त दी जा रही है. अब तो लड़कियों को मुफ्त साइकिल या स्कूटी देने की योजना भी चलाई जाने वाली है. युवा बेरोजगारों को 600 रुपए भत्ता हर महीने दिया जा रहा है. राशन दुकानों से 2 रुपए किलो गेहूं-चावल बांटा जा रहा है. लाखों किसानों के बैंक खातों में 6000 रुपए सालाना डाले जा रहे हैं. कई राज्यों में मुफ्त भोजन की योजनाएं चल रही हैं. तमिलनाडु में 5 रुपए में ‘अम्मा थाली’ तो महाराष्ट्र में 10 रुपए में ‘शिव भोजन’ की योजना शुरू है. निकम्मे लोगों को और क्या चाहिए? वे क्यों करेंगे काम? क्यों करेंगे मेहनत? क्यों बहाएंगे पसीना? मुफ्त में तो सब मिल ही रहा है!
देश में लगभग 67 प्रतिशत आबादी युवा है. अगर ये युवा पीढ़ी मुफ्तखोरी के चक्कर में कड़ी मेहनत करना छोड़ देगी, तो अपना भविष्य उज्जवल कैसे बनाएगी? आज हर युवा के हाथ में स्मार्टफोन है. कई राज्यों में राजदलों ने चुनाव के दौरान या बाद में मुफ्त में मोबाइल या लैपटॉप भी बांटे हैं. क्या ऐसी मुफ्तखोरी के चलते हमारी युवा पीढ़ी बर्बाद नहीं हो रही है? क्या इससे उसकी कार्यक्षमता खत्म नहीं हो रही है? अगर हमारे युवाओं को अपने पैरों पर खड़ा होना है, तो उन्हें ऐसे मुफ्त के माल को लात मारनी चाहिए.
अगर हम वास्तव में प्रगति के रास्ते पर चलकर स्वयं को मजबूत और देश को समृद्ध बनाना चाहते हैं, तो हमें आज ही बल्कि अभी ही इस मुफ्तखोरी की मानसिकता को त्याग देना चाहिए. यह एक प्रकार से उस अफीम के नशे जैसा है, जिसकी लत लग जाए तो कभी नहीं छूटती. अतिरंजित मीडिया, धार्मिक मुद्दों व भड़काऊ नारों पर हो रहा ध्रुवीकरण और मुफ्तखोरी… न केवल हमारी युवा पीढ़ी को, बल्कि देश को बर्बादी की ओर ले जा रही है. संभालिए, बचाइए देश को. जय हिंद.