हमने पहले ही कहा था कि ‘पूत के पांव पालने में’ दिख जाते हैं. महाराष्ट्र में जैसे ही तीन दलों की ‘त्रिशंकु’ सरकार बनी, सबको लगा कि यह रेंगते हुए ही चलेगी. लेकिन यहां तो उसकी ‘खिचड़ी’ अभी तक पक ही रही है. मलाईदार मंत्रालय उनको लेकर इस ‘त्रिशंकु’ सरकार के ‘शकुनि’ अड़े रहे. इनके अड़ियल रवैये, लालच और आपसी खींचतान से जनता का कोई भला नहीं हो रहा है. उन्होंने पहला एक महीना तो सरकार गठन में ही लगा दिया. फिर जैसे-तैसे सरकार बनी, तो मंत्रिमंडल विस्तार में ही एक महीने का विलंब कर दिया. फिर विभागों के वितरण में हफ्ता भर लगा दिया. हमें तो यह समझ नहीं आता कि यह सरकार है …या ‘तीन पंक्चर टायरों की कार है?’ जिसे राज्य की जनता को मजबूरन ढोना होना पड़ेगा!
सब जानते हैं कि राज्य के हालात खराब हैं. बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से किसानों सहित व्यापारियों का भी बहुत नुकसान हो चुका है. नवंबर माह में ही राज्य में 300 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. लेकिन ‘कुर्सी के खेल’ में उलझे हमारे मंत्रियों को इसकी बिल्कुल भी चिंता नहीं है. किसानों और जनता के हितों की चिंता छोड़ कर ये सभी ‘सरकारी दामाद’ अपने-अपने हित की ही सोच रहे हैं. मलाईदार मंत्रालयों के लिए इनका आपस में लड़ना आखिर क्या दर्शाता है? सिर्फ पैसे खाने, ट्रांसफर-पोस्टिंग में धन उगाही करने और बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स में कमीशन पाने के लिए ही इनको महत्वपूर्ण मंत्रालय चाहिए. काश! अपनी ‘मलाई’ छोड़कर ये लोग जनता की भलाई के लिए लड़ते, तो जनता ही इन्हें सिर आंखों पर बिठाती!
सवाल है कि इनको जनता के और राज्य के विकास-कार्य करने के लिए मंत्री बनाया गया है, या माल कमाने के लिए? फिर बिना काम और बिना विभाग के इन मंत्रियों को मंत्रालय में केबिन और मुंबई में बंगले भी अलॉट कर दिए गए. राज्य का हित भाड़ में जाए, तो भी चलेगा! लेकिन बंगले-केबिन के साथ ही इनका टीए-डीए का मीटर भी शुरू हो चुका है. शर्मनाक है इनका जनता के पैसों पर ऐश करना! अगर इनमें जरा भी नैतिकता होती तो पहले ये विभागों का बंटवारा करते, फिर बंगले और केबिन हासिल करते. धिक्कार है इनके मलाईदार खातों के लिए अड़े रहने पर.
इस बीच एक मजेदार दृश्य यह भी देखने मिला कि शिवसेना कोटे से राज्यमंत्री बनाए गए अब्दुल सत्तार ने अपने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. यानि ‘दूल्हा घोड़ी पर चढ़ा नहीं कि लग्न-मंडप से दुल्हन ही भाग गई!’ सत्तार को कैबिनेट मंत्री पद चाहिए था. मिला नहीं, तो पलायन कर गए. यह स्थिति उद्धव सरकार के लिए ‘सिर मुंडाते ही ओले पड़े’ जैसी हो गयी. भाजपा के चिढ़े हुए नेताओं का दावा है कि ऐसे दृश्य अभी आगे भी देखने को मिलेंगे. कांग्रेस कृषि मंत्रालय के लिए अड़ी रही. बालासाहेब थोरात और अशोक चौहान में राजस्व मंत्रालय पाने के लिए खींचतान चलती रही. राकांपा में ‘गृह कलह’ मची रही. यानि गृह मंत्रालय के लिए खूब झगड़ा हुआ. अर्थात पूरा मामला ही गड्डमगड्ड है.
बहरहाल, उद्धव सरकार की राह में आगे भी बहुत रोड़े आने वाले हैं. उनकी हालत भी कर्नाटक के ‘कुमारस्वामी’ की तरह होनी तय है. शिवसेना के शेर के गले में कांग्रेस, रस्सी डालकर घुमा रही है ….और राकांपा उसकी पूंछ से खेल रही है. आखिर कब तक नहीं जागेगा उद्धव ठाकरे का स्वाभिमान? क्या ऐसे फजीहत भरे दिन देखने के लिए उन्होंने बाल ठाकरे को ‘शिवसैनिक को मुख्यमंत्री’ बनाने का वचन दिया था? सत्ता के लिए इतनी निर्दयता और हाराकिरी पहली बार देखी जा रही है. बेहतर है कि इस त्रिशंकु सरकार के ‘शकुनि’ मलाई के लिए लड़ाई करना बंद कर जनहित के काम करें, वरना सत्ता छोड़ दें!