16 दिसंबर 2012 की सर्द-स्याह रात को दिल्ली में निर्भया-गैंगरेप मर्डर कांड हुआ था. इसके ठीक 7 साल बाद 16 दिसंबर 2019 को इस प्रकरण के दोषी नरपिशाचों को फांसी पर लटकाया जा सकता है. पीड़िता की आत्मा और उसके बिलखते परिजनों को न्याय दिलाने का यह कानूनी तरीका हुआ. दूसरा सामाजिक तरीका हुआ हैदराबाद की डॉक्टर प्रियंका के मामले में. यहां चारों दरिंदों को पुलिस ने एन्काउंटर में ढेर कर दिया. वीभत्स घटना के ठीक 9 दिन बाद ही आक्रोशित देशवासियों के मन को ठंडक और पीड़िता के परिवार को जरा-सी राहत मिली. क्योंकि, उनकी डॉक्टर बेटी तो अब वापस आने से रही. तीसरी घटना यूपी के उन्नाव की है. यहां रेप-पीड़िता को जमानत पर छूटे आरोपियों ने जिंदा जला दिया. न्याय की मांग करते-करते आखिरकार वह मर गई. ऐसी सैकड़ों घटनाएं देश भर में रोज हो रही हैं. लेकिन हम सिर्फ ‘बेटी बचाओ’ की बातें करते हैं. मैं पूछना चाहता हूं कि जब हर गली-चौराहे पर हैं बेटियां लाचार…. तो अब वो कहां मर गए, जो कहते थे- ‘मैं भी चौकीदार!’
अर्थात… कोई ‘वाली’ नहीं है हमारी बहन-बेटियों का! देश भर में लड़कियों के साथ हो रही पैशाचिक दरिंदगी ने मानवीय संवेदनाओं की पराकाष्ठा पार कर दी है. हर क्षेत्र में हो रहीं दुष्कर्म की ऐसी क्रूर घटनाओं से देश दहल उठा है. सच तो यही है कि भारत भर हवस के भूखे भेड़िये घूम रहे हैं और हमारा सिस्टम लाचार है, बेबस है. इसीलिए हैदराबाद पुलिस को ‘जैसा पाप, वैसा इन्साफ’ करना पड़ा. यहां दुष्कर्मियों से बदला तो पूरा हुआ लेकिन न्याय हुआ क्या? यह एन्काउंटर क्या वाकई अंतिम समाधान है? गैंगरेप के हर क्रूर-प्रकरणों में क्या हर थाने (स्टेट) की पुलिस ऐसा दुस्साहस कर पाएगी? क्या कानूनी तौर पर यह जायज होगा? क्या यह एक प्रकार से भारतीय न्याय-प्रणाली और संवैधानिक संस्थाओं पर प्रश्नचिह्न नहीं है? भले ही आज देश खुशी मना रहा है, हैदराबाद पुलिस पर फूल बरसा रहा है, लेकिन यह सिर्फ तात्कालिक न्याय है, दरिंदों का स्थायी इलाज नहीं है. क्या आपको लगता नहीं कि अब अपने देश की न्याय-व्यवस्था बदलने की जरूरत है. ‘तारीख-पर-तारीख’ का सिस्टम ही खत्म करने की जरूरत है.
एन्काउंटर की यह घटना तेलंगाना की है, तालिबान की नहीं है. भारत में लोकतंत्र है, ठोकतंत्र नहीं! यहां संविधान के मुताबिक ही सब होना चाहिए, अन्यथा तानाशाही थोपने में जरा भी देर नहीं लगेगी. हर दुष्कर्मी-पापी-दरिंदे को उसके किए की कठोर सजा जरूर मिलनी चाहिए, लेकिन उसके लिए संवैधानिक प्रक्रिया का पालन होना भी जरूरी है. लेकिन दूसरा पक्ष यह भी है कि अगर पुलिस को चकमा देकर अपराधी भागने लगेंगे, तो पुलिस क्या उनकी पूजा करेगी? हैदराबाद पुलिस को इसीलिए देश सलाम कर रहा है, सैल्यूट कर रहा है. अब मानवाधिकारवादी हैदराबाद के मृत दरिंदों के पक्ष में खड़े हो गए हैं. मानवाधिकार के नाम पर कभी आतंकवादियों, तो कभी देशद्रोहियों को बचाना गलत है. हैदराबाद में नरपिशाचों को उनके पाप की सजा मिली है. दुष्टों के साथ यही व्यवहार होना चाहिए.
दरअसल, हर रोज होने वाली अमानवीय और जघन्य वारदातों से देश हिला रहता है. असुरक्षा की भावना हमारी बहन-बेटियों के मन में गहराई से बैठ चुकी है. इस बीच ऐसी कोई सुकून देने वाली खबर आती है, तो हैदराबाद पुलिस को बधाई जरूर मिलनी चाहिए. यहां सवाल उठता है कि क्या अपने देश की कानून और न्याय-व्यवस्था से लोगों का भरोसा उठ गया है? अपने देश में कानून तो बहुत सारे हैं, मगर उसमें भी ‘छप्पन छेद’ हैं. न्याय प्रक्रिया में देरी भी जनता के रोष का एक बड़ा कारण है, लेकिन ऐसे में क्या यह मान लेना चाहिए कि अब पुलिस, बगैर किसी नियम-कानून के ऐसे गंभीर अपराधियों को अपने-अपने तरीके से मौत के घाट उतार सकती है?
दिल्ली, हैदराबाद, उन्नाव, अलीगढ़ और बक्सर जैसा कोई भी मामला हो, शोर-शराबा, हंगामा तो खूब होता है. लंबी चौड़ी अदालती कार्रवाई भी होती है, लेकिन उनका क्या …जो इंसाफ की आस में बैठे पीड़ित और परिजन वर्षों तक घुट-घुट कर जीते हैं! फिर नेताओं-अफसरों और अदालतों के चक्कर काटते हैं. सियासत के घिनौने खेल देखते हैं ….और निर्भया जैसे चर्चित मामले में भी इन्साफ की लड़ाई में सात साल गुजार देते हैं. रेप के दोषियों को फांसी देने का कानून तो है, मगर उन्हें दोषी साबित करने और सूली पर लटकाने में जिंदगी गुजर जाती है. ऐसे हालात में, देश की घिनौनी सियासत और दबंगई के बेशर्म खेल में क्या तेलंगाना पुलिस की तारीफ नहीं की जानी चाहिए? अच्छा हुआ, ‘नो सुनवाई, नो टॉक… फैसला ऑन दि स्पॉट!’
(संपर्क : 96899 26102)