दिल्ली में दंगा हो गया …और लोकतंत्र नंगा हो गया. इंसानियत की चिता पर अब राजनीतिक रोटियां सेंकी जाने लगी हैं. सबको सब समझ रहा है, दिख रहा है. इसलिए खामोशी तोड़नी जरूरी है. क्योंकि दंगों के धरातल पर जब-जब राजनीति की ‘खूनी सेज’ सजाई जाती है, तब-तक दंगाइयों के ‘परस्पर मिलन’ से ‘वोट बैंक’ पैदा होता है. देश की गलिच्छ सियासत का यही सूत्र राष्ट्रीय राजधानी में आजमाया गया. उत्तर-पूर्वी दिल्ली के कई इलाके तबाह हुए. जला दिए गए. 48 बेकसूर मारे गए. 250 से अधिक घायल हो गए. अब दंगा शांत हो गया, …तो राजनीति शुरू हो गई. आखिर कौन जिम्मेदार है इसका? क्या वे 700 लोग कसूरवार हैं, जो पकड़े गए? जी नहीं, …असली दोषी वे सफेदपोश हैं, जिनकी गिरफ्तारी शायद कभी नहीं होगी!
अब तो यकीन कर लीजिए कि राजनीति की रोटियां इसी प्रकार से इंसानियत की चिता पर सेंकी जाती है. हम सब जानते हैं कि ऐसे दंगों में सिर्फ और सिर्फ आम जनता की ही बलि चढ़ती है. बड़ा सवाल है कि ऐसे दंगों में आज तक कोई बड़ा नेता क्यों नहीं मारा जाता? जबकि दंगों की आग षड्यंत्रपूर्वक ऐसे ही सफेदपोश भड़काते हैं. इनका कुछ क्यों नहीं बिगड़ता? इनकी संपत्तियों को नुकसान क्यों नहीं पहुंचता? 1984 के सिख-विरोधी दंगे हों, 1993 के देशव्यापी दंगे हों, 2002 के गुजरात दंगे हों या 2020 के दिल्ली दंगे…. हर बार आम आदमी ही पत्थर-गोलियां खाकर क्यों तबाह होता रहा है? जरा सोचिए कि ये आम आदमी कौन है? ये ‘हम’ हैं ‘हम’! … यहां ‘ह-म’ मतलब ‘ह’ से हिंदू और ‘म’ से मुसलमान! याद रखिए, जब तक हम आपस में एकजुट नहीं होंगे, ऐसे ही मरते रहेंगे!
यह भी खुलासा हो चुका है कि दिल्ली दंगों की ‘स्क्रिप्ट’ महीना भर पहले से लिखी जा रही थी. इसकी तारीख और टाइमिंग भी पहले से तय थी. यह दोनों पक्षों को पता था कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के भारत (दिल्ली) दौरे के समय पुलिस उनके सम्मान (बंदोबस्त) में लगी रहेगी. दोनों पक्षों को मौका मिला, तो तबाही का चौका मार दिया. इसके लिए एक पक्ष ने कुछ ज्यादा ही तैयारी कर रखी थीं. ऊंची-ऊंची इमारतों पर बोरियों से नुकीले पत्थर भिजवा दिए गए थे. उन्हें फेंकने के लिए लोहे के एंगल को वेल्डिंग करके बड़ी-बड़ी गुलेल बनाई गई थी. पेट्रोल बम, तेजाब के पाउच कई घरों की छतों पर पहुंचा दिए गए थे. पिस्तौल, तमंचे, देसी कट्टे बाहर से मंगवा लिए गए थे. दिल्ली के दूसरे इलाकों और पड़ोसी राज्यों से दंगाइयों की भीड़ इकट्ठी कर ली गई थी. तभी तो इतना भीषण-भयानक दंगा हुआ. यह सब अचानक या एक दिन में नहीं हुआ.
मेरी नजर में इसके लिए जिम्मेदार हैं – ‘गद्दारों को गोली मारो…’ (अनुराग ठाकुर), ‘तीन दिन बाद हम खुद देख लेंगे…’ (कपिल मिश्रा), ‘100 करोड़ विरुद्ध 15 करोड़…’ (वारिस पठान) और ’15 मिनट के लिए पुलिस हटा दो..’ (अकबरुद्दीन ओवैसी) जैसे भड़काऊ बयान देने वाले नेता! सच तो यही है कि ऐसे एक भी नेता को नहीं बख्शा जाना चाहिए. उसी प्रकार घर में दंगों की सामग्री इकट्ठा करने वाले ‘आप’ के पार्षद ताहिर हुसैन और पुलिस पर पिस्तौल तानने वाले शाहरुख खान की भी गिरफ्तारी होनी जरूरी है. लेकिन दिल्ली पुलिस हाथों में चूड़ियां पहनकर इन्हें बचाने में लगी है. क्योंकि इनके ‘बाप’ लोग अभी इनकी गिरफ्तारी नहीं चाहते! इसमें भी शर्मनाक यह कि जो जज पर इन पर उंगली उठाते हैं, आधी रात को उनका ट्रांसफर कर दिया जाता है!
ऐसी हरकतों से बड़े-बड़े सूरमाओं को भले ही फायदा हो जाए, लेकिन देश और मानवता का कितना बड़ा नुकसान हो गया है. लगता है इंसानियत मर गई है, भाईचारा और सद्भाव खत्म हो गया है. क्या यह सब लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा नहीं है? क्या निर्दोषों को मारने और उनकी गाड़ियां-दुकानें जलाने से ‘सीएए’ का हल निकल जाएगा? अब कौन समझाए इन सिरफिरे दंगाइयों को? मेरा विचलित मन बार-बार पूछ रहा है कि दिल्ली में जो कुछ हुआ, क्या वह केवल झांकी है? …अभी देश में बहुत कुछ होना बाकी है? आप भी इस यक्ष प्रश्न का जवाब तलाशिएगा. बशीर बद्र ने कहा है –