प्याज के निर्यात पर प्रतिबंध और प्याज आयात करने के निर्णय के पक्ष और विरोध में बहुत कहा जा सकता है लेकिन इससे साबित होता है कि सरकार प्याज की ताकत और उसके प्रताप से भली-भांति परिचित है। प्याज के दाम ऊंचे होने का मतलब सरकार जानती है। वह सतर्क है। उड़ाने भरने को बेताब प्याज के दाम कुछ हद तक नियंत्रण में हैं। लगाम लगी हुई है। समय रहते कदम उठाये जाने से ऐसा संभव हो सका। सरकार ने 50 हजार टन का राष्ट्रीय बफर स्टाक भी रिलीज किया है।
प्याज की जमाखोरी को रोकने के लिए निजी गोदामों पर नजर रखी जा रही है। कोशिश है कि दाम 18-20 रुपये प्रतिकिलो के औसत पर आ जाएं। निर्यात पर प्रतिबंध को अगली फरवरी तक जारी रखने का मन केन्द्र सरकार बना चुकी है। एक लाख टन प्याज के आयात पर काम शुरू हो चुका है। विदेश प्याज आते ही दबाव काफी हद तक कम हो जाएगा। सुनने में आया है कि प्याज के निर्यात पर प्रतिबंध से उत्पादक और निर्यातकों में नाराजगी है। किसानों को शिकायत है कि निर्यात प्रतिबंध के कारण उन्हें प्याज के दाम 75 प्रतिशत तक टूट कर मिल रहे हैं। उधर, नेपाल और बांग्लादेश में तनाव पैदा हो गया है। दोनों ही काफी हद तक भारतीय प्याज पर निर्भर रहते हैं। बांग्लादेश सरकार म्यांमार से विमानों पर लदवाकर प्याज मंगवा रही है। बांग्लादेश की शेख हसीना सरकार ने प्याज निर्यात पर प्रतिबंध शीघ्र हटाने का अनुरोध भारत किया है।
लगभग साढ़े पांच हजार सालों में भारतीय रसोई में मजबूत से पैर जमाई बैठी प्याज से किस परिवार के सदस्य परिचित नहीं होंगे? इसके औषधीय गुण जगजाहिर हंै। खास किस्म के शारीरिक कष्टों को हरने में प्याज रामवाण की तरह मानी जाती है। गर्मी के दिनों प्याज की पूछ-परख कुछ अधिक बढ़ी देखी गई। मान्यता है कि उन दिनों प्याज के सेवन से लू लगने की आशंका कम होती है। ग्रीष्म ऋतु की दोपहर के समय घर से बाहर निकलने वालों को साथ में एक प्याज रखने की सलाह से भला कौन वंचित रहा होगा। कहते हैं कि यह लू नहीं लगने देती। वैसे इस उपाय की वैज्ञानिक प्रामाणिकता सुनने में नहीं आती है।
कई देशों के खानपान में प्याज की खासी भूमिका है। 90 प्रतिशत से अधिक भारतीय रसोइयों में भी प्याज की तूती बोलती है। दाम में उतार-चढ़ाव यहां प्याज की उपलब्धता को अवश्य प्रभावित करते हंै। सैंकड़ों भारतीय व्यंजनों को प्याज के बिना बनाने की कल्पना तक नहीं की जा सकती। यही कारण है कि भारत में प्याज की खपत काफी अधिक है। कुछ बरस पूर्व प्याज के दाम बेकाबू होने पर किसी विद्वान ने सलाह दी थी कि लोगों को कुछ समय के लिए प्याज का उपयोग कम या बंद कर देना चाहिए। इस सलाह का रत्तीभर असर दिखाई नहीं दिया।
भारत दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा प्याज उत्पादक देश है। चीन पहले नंबर पर है। हमारे यहां मुश्किल यह है कि प्याज की मांग, खपत और उत्पादन के बीच समीकरण नहीं बैठ पा रहा। कई बार उत्पादन इतना अधिक हो जाता है कि उसी के वजन से दाम का दम निकल जाता है। लागत तक नहीं निकलती। कई बार किसानों के लिए ढुलाई-लदाई का खर्च निकालना तक मुश्किल हो चुका है। बार-बार ऐसी स्थिति का शिकार होते किसान करंे तो क्या करें? अनगिनत उदाहरण हैं, जब सही दाम नहीं मिलने से किसानों ने हजारों क्विंटल प्याज सड़कों के किनारे फेंक दी। हाईवेज पर कई किमी तक उड़ती सड़ती प्याज की दुर्गंध से प्याज उत्पादकों की पीड़ा का अनुमान लगाया जा सकता है। सरकारें प्याज की बंफर पैदावार जैसी स्थिति से निबटने का कोई रास्ता नहीं तलाश पाईं। इसी तरह यदि मौसम के कारण प्याज उत्पादन कम हो तब भी कमर किसान की ही टूटती है। हां, कम उत्पादन के कारण भाव बढऩे से सरकारों की नींद उड़ती रही है। भय प्याज पॉलिटिक्स के शुरू होने का होता है।
प्याज पॉलिटिक्स का प्रबल प्रकोप 1980 देखा गया था। कहा जाता है कि तत्कालीन केन्द्र सरकार के गिरने की एक वजह प्याज के बेकाबू दाम भी थे। 1998 में दिल्ली और राजस्थान के चुनावों में महंगी प्याज ने सत्तापक्ष को जमकर रुलाया था। 2010 में प्याज ने दामों की गर्मी दिखाई लेकिन कृषि मंत्री शरद पवार ने पाकिस्तान से प्याज आयात कर स्थिति संभाल ली। 2013 में मुद्रास्फीति दर में वृद्धि के लिए प्याज के ऊंचे दामों को काफी हद तक जिम्मेदार माना गया था। 2015 में भी प्याज के दाम कुलाचें भरने की कोशिश कर चुके हैं। इस वर्ष मौसम ने प्याज के उत्पादन को बुरी तरह प्रभावित किया है। पहले जमकर गर्मी पड़ी और फिर मानसून ने थोड़ा विलंब कर दिया। इसके साथ अधिक मानसूनी बारिश ने रही-सही कसर पूरी कर दी। फसलें चौपट हो गर्इं। सितंबर माह से प्याज के दाम बढऩे लगे थे। बहरहाल, अगले दो-चार माह तक प्याज सरकार को तनाव में रख सकती है। इसीलिए मिस्र, तुर्की और चीन से प्याज आयात करने का निर्णय लिया गया है। उधर प्याज के इंतजाम के लिए मगजमारी चल रही और यहां उस पर भी लोगों का अपना रोना है। जायका पर जोर देने वालों को शिकायत है कि विदेशी प्याज में देसी जैसा स्वाद नहीं मिलता। प्याज के इंतजाम में लगे अधिकारी ऐसी बातें सुन कर अवश्य सिर धुन लेते होंगे।
भारत में कुल कृषि उत्पाद मूल्य में प्याज का हिस्सा एक प्रतिशत भी नहीं है। लेकिन, धाक के मामले में यह किसी से कम नहीं है। आलू और टमाटर की तरह प्याज भी खासी लोकप्रिय हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि इन तीनों में प्याज ही किसान को सबसे अधिक रुलाती है, यही उपभोक्ता का गुस्सा बढ़ाती और बार-बार सरकारों का पसीना छुड़वाती है। प्याज का स्वभाव नाजुक है। न अधिक गर्मी पसंद आती ना बारिश। यही बात दामों में उछाल का संकट खड़ा करती है। अच्छी पैदावार हो जाए तो खपाने की समस्या। आलू और टमाटर की तरह इसके इतर उपयोग को बढ़ावा देने पर विचार नहीं किया गया। एक प्रसिद्ध कृषि विज्ञानी का कहना है कि अधिक उत्पादन की स्थिति में भी इसको सडऩे के लिए फेंकने की क्या जरूरत है।
प्याज पाउडर, निर्जलित टुकड़ों या परिवर्तित दानों के उपयोग को बढ़ावा देना चाहिए। इससे व्यंजन के स्वाद में कोई अंतर नहीं आएगा। प्याज को अधिक समय तक संग्रहित करना मुश्किल काम है। उसका रूप बदल देने से यह संभव है। इससे दाम में उतार-चढ़ाव के जंजाल से किसान और उपभोक्ता दोनों मुक्त रह सकेंगे। प्याज की उपलब्धता हमेशा संभव होगी। बड़ी विचित्र बात है। प्याज के बड़े निर्यातक भारत को घरेलु मांग पूरा करने के लिए इसका आयात करना पड़ रहा है। हर दो-चार सालों में यही दृश्य दिखाई देता है। और अंत में, प्याज पर अनेक मुहावरे प्रचलित हैं। इनमें कुछ अच्छे और कुछ भद्दे हैं। सार यही है कि प्याज कटे तो रुलाये और न कटे तो पसीना छुड़वाये।
अनिल बिहारी श्रीवास्तव,
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