
एनआरसी के विरोध में पादुकाएं घिस रहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को दो बड़े झटके लगे हैं। असम में तृणमूल कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष दीपेन कुमार पाठक ने पद से इस्तीफा दे दिया। पाठक को शिकायत है कि एनआरसी पर ममता बनर्जी का रुख सही नहीं है। पाठक ने साफ शब्दों में कहा कि ममता बनर्जी जिस तरह की बातें कर रहीं हैं उससे असम में माहौल खराब हो सकता है। याद करें, असम के पूर्व मुख्यमंत्री तरूण गोगोई ने भी ममता बनर्जी को फटकार लगाई है। उन्होंने सलाह दी है कि ममता असम के मामले में दखल न दें। असम के एक अन्य पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत ने ममता की बयानबाजी की निन्दा की थी। महंत का मानना है कि इससे असम में माहौल खराब होगा। असम के राजनेताओं केे अनुसार ममता को असम के मामले में बोलने का अधिकार नहीं है। लगभग सभी असमी राजनेता इस बात पर एक राय दिख रहे हैं कि एनआरसी मुसलमानों के खिलाफ नहीे है। इसे बंगालियों के विरूद्ध प्रचारित करना भी गलत है। वे कहते हैं यह अवैध रूप से रह रहे विदेशियों के खिलाफ है। एनआरसी का असम मॉडल इतना अच्छा है कि कुछ अन्य राज्य इसे लागू करने की मंशा व्यक्त करने लगे हैं। ममता बनर्जी को दूसरा झटका पश्चिम बंगाल कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने दिया। चौधरी ने कहा कि राज्य के कांग्रेस कार्यकर्ता तृणमूल कांग्रेस के साथ मिलकर काम नहीं करना चाहेंगे। ममताराज में कांग्रेस के लोगों के साथ बड़ा निर्मम व्यवहार किया गया है। कई कांग्रेसियों की हत्या कर दी गई। कांग्रेस के लोगों को चुनाव में लडऩे से रोका गया। कांग्रेस कार्यकर्ताओं को प्रताडि़त किया जाता है। चौधरी मानते हैं कि ममता की प्रवृति तानाशाहों जैसी हैं।
बृहस्पतिवार, 2 अगस्त 2018 को कई अखबारों में सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ ममता बनर्जी की एक तस्वीर और उससे संबंधित खबर प्रमुखता से छपी है। एक दिन पहले ली गई इस तस्वीर में तीनों मुस्करा रहे हैं। तस्वीर में कांग्रेस अध्यक्ष अध्यक्ष राहुल गांधी की स्माइलिंग मुद्रा-भावभंगिमा देख कोई नहीं कह सकता कि पश्चिम बंगाल में उनकी पार्टी को दस दिन पूर्व ही लगे एक बड़े झटके से वह परेशान या नाराज हैं। 21 जुलाई को कोलकाता में तृणमूल कांग्रेस की एक रैली में कांग्रेस के चार विधायकों ने पाला बदल कर ममता का पल्लू थाम लिया। अंग्रेजी में एक शब्द है पोचिंग, इसका हिन्दी में अर्थ है अवैध शिकार। तृणमूल कांग्रेस के संदर्भ में इंग्लिश मीडिया 2011 से इस शब्द का प्रयोग कर रहा है। 2011 से 2016 के बीच कांग्रेस के 11 विधायक पार्टी से विश्वासघात कर ममता के पास चले गए थे। ममता विरोधी कहते हैं कि 2016 के विधानसभा चुनावों में स्पष्ट बहुमत मिलने के बाद भी तृणमूल कांग्रेस अघाई नहीं। उसकी पोचिंग जारी रही। नतीजा यह रहा निर्वाचित होने के तीन-चार माह के अंदर कांग्रेस के 3 विधायक ममता से जा मिले। तृणमूल के कथित पोचिंग कैम्पेन ने वामदलों तक की नींद उड़ा रखी है। राजनीतिक गलियारों में कहा जा रहा कि ममता के झांसे में आकर यदि कांग्रेस नेतृत्व उनसे हाथ मिला लेता है तो यह एक आत्मघाती कदम होगा। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस का नामलेवा तक मिलना मुश्किल हो जाएगा।
करोड़ों मस्तिष्क इस सवाल का जवाब तलाश रहे होंगे कि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में असम में तैयार हो रहे नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजन(एनआरसी)फाइनल ड्राफ्ट के सामने आने के बाद से ममता बनर्जी इतना क्यों बौखलाईं हुईं हैं? जिन 40 लाख लोगों के नाम नागरिक सूची में नहीं हैं उनके प्रति तृणमूल नेता के दिल में इतनी सहानुभूति अचानक क्यों उमड़ पड़ी? वैसे तो बांग्लादेशी घुसपैठियों की देश में बढ़ती मौजूदगी का ममता बनर्जी विरोध करती रहीं हैं। इस मुद्दे पर वह 2005 में संसद में हंगामा कर चुकीं हैं। 13 वर्षों में ऐसा क्या हुआ जिसने ममता का हृदय परिवर्तन कर डाला? घुसपैठियों के सवाल पर ममता का यूटर्न चौंकाने वाला है। आज वह बांग्लादेशी घुसपैठियों के समर्थन में खड़ीं हंै। उनके कुतर्क असहनीय हैं। ममता घुसपैठियों के विरूद्ध कार्रवाई को बांग्लाभाषी मुसलमानों के विरूद्ध साजिश करार देकर माहौल खराब कर रहीं हैं। जबकि एनआरसी में हिन्दू और मुसलमान की कोई बात ही नहीं है। एनआरसी का मकसद उन बांग्लादेशी घुसपैठियों की पहचान करना है जो असम में अवैध रूप से रह रहे हैं। ममता इस कवायद की मनमानी व्याख्या कर रहीं हैं। उनकी यह सनक देश के घातक हो सकती है। स्वयं को दबंग राजनेता साबित करने की जुगत में वह वाणी के मामले में बेलगाम महसूस की जाने लगीं हैं। वह धमका रहीं हैं कि इन 40 लाख लोगों के विरूद्ध कार्रवाई होने पर भारी रक्तपात के साथ गृहयुद्ध छिड़ सकता है। और, एनआरसी के कारण बांग्लादेश के साथ भारत के संबंध खराब हो जाएंगे। वह सडक़ों पर आंदोलन की धमकी दे रहीं हैं। उनके ऐसे तेवरों पर एक मीडिया रिपोर्ट में बड़ा सटीक विश£ेषण किया गया। ममता बनर्जी वोट बैंक की ऐसी राजनीति पर उतारू हैं, जो राष्ट्र के लिए घातक हो सकती है। ममता स्वयं को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का सबसे मजबूत और सर्वश्रेष्ठ विकल्प के रूप में प्रोजेक्ट करने की कोशिश में हंै। दूसरी ओर अनेक विपक्षी नेता दबी जुबान से स्वीकार करते हैं कि फिलहाल उनके पास मोदी का कोई जवाब नहीं है।
एनआरसी पर वोट बैंक की राजनीति करने के लिए ममता बनर्जी अकेले को क्यों कोसा जाए? कांग्रेस, बसपा, सपा,जद-एस और वामदल क्या कर रहे हैं? उन्होंने कौन सी गंभीरता दिखाई है? असम में मायावती का क्या रोल है? मायावती घुसपैठियों के प्रति हमदर्दी दिखाने से नहीं चूकीं। सपाइयों के बयान सुनिए। एनआरसी को लेकर उनके कलेजे फटे जा रहे हैं। सपा-बसपा दोनों का लग रहा है कि एनआरसी का विरोध कर वे मुस्लिम वोटों पर अपनी पकड़ मजबूत कर सकतीं हैं। कांग्रेस की राजनीति अजब-गजब होती जा रही है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि राहुल की अगुआई वाली कांग्रेस में किसी को मालूम ही नहीं है कि स्वयं इंदिरा गांधी ने शरणार्थियों के संबंध में क्या कहा था। कांग्रेस को यह तक याद नहीं होगा कि 1985 में केन्द्र सरकार, असम सरकार, आल असम स्टूडेंट यूनियन और आल असम गण संग्राम परिषद के बीच एक समझौता हुआ था। उसी समझौते के अनुसार एनआरसी का काम चल रहा है। वामपंथियों के रवैये पर मगजमारी व्यर्थ है। उनका राग हमेशा बेसुरा रहा है। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों के तीन दशक से अधिक लंबे शासनकाल में घुसपैठिये खूब फले-फूले थे। असम और पश्चिम बंगाल में घुसपैठियों को संरक्षण मिलता रहा। उधर, असम समझौता 30 सालों तक धूल खाता रहा। किसी ने चिन्ता नहीं कि अवैध नागरिकों के कारण देश गंभीर राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों की ओर बढ़ रहा है। सुरक्षा एजेन्सियां घुसपैठियों को लेकर लगातार आगाह करती रहीं हैं क्योंकि अवैध रूप से रह रहे लोग कानून व्यवस्था के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी खतरा हैं। एनआरसी ड्राफ्ट के लिए असम में 3.29 करोड़ लोगों ने आवेदन किया था। 40 लाख लोग अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाए। अधिकांश बुजुर्ग लोग हैं। इनके परिवार के सदस्यों को जोड़े जाने पर असम में अवैध रूप से रहने वाले लोगों की संख्या एक से डेढ़ करोड़ तक पहुंच सकती है। इनमें हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग हैं। पढ़े-लिखे और बुद्धिमान लोगों की बात छोडि़ए, कोई बुद्धिहीन व्यक्ति भी समझ सकता है कि इतनी बड़ी आबादी किस तरह हमारे संसाधनों को दीमक की तरह चाट रही है। घुसपैठिये हम भारतीयों का हक छीन रहे हैं। इनके कारण आबादी का संतुलन तेजी से बिगड़ रहा है। आबादी में आ चुका असंतुलन असम के 33 में से 9 जिलों में साफ दिखाई देने लगा है। यही हाल पश्चिम बंगाल का बताया जा रहा है। अनुमान है कि पश्चिम बंगाल में बांग्लादेशी घुसपैठियों की संख्या एक करोड़ से अधिक ही होगी। इनमें अधिकांश मुसलमान हैं। एक तथ्य यह भी है कि पश्चिम बंगाल के रास्ते से ही ज्यादातर बांग्लादेशी घुसपैठिये देशभर में फैले हैं। दिल्ली में ही दस लाख से अधिक बांग्लादेशी नागरिकों की मौजूदगी का अनुमान व्यक्त किया जा चुका है। यही हाल मुम्बई का है। असम में कांग्रेसी सरकारों और पश्चिम बंगाल में पहले वाममोर्चा और अब तृणमूल कांग्रेस की सरकारों ने विदेशी नागरिकों की बढ़ती संख्या को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया। आंकढ़े बताते हैं कि 1971 तक पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से भारत आए शरणार्थियों की संख्या लगभग एक करोड़ थी। उस समय असम में तीन लाख और पश्चिम बंगाल में 74 लाख बांग्लादेशी शरणार्थी होने का अनुमान था। बांग्लादेशी शरणार्थियों को भारत रास आ गया। बांग्लादेश बनने के बाद भी वे वापस नहीं लौटे। धीरे-धीरे समूचे भारत में फैल गए। राजनीतिक संरक्षण मिलने से बांग्लादेश से घुसपैठ कभी बंद नहीं हो सकी।
घुसपैठियों को मिल रही विपक्षी दलों की सहानुभूति के पीछे एक घातक राजनीति काम कर रही है। लेकिन एक बड़ा सच भी सामने आ गया। ममता बनर्जी का असली चेहरा। इस प्रश्र पर देश भक्तों को अवश्य विचार करना चाहिए कि ऐसे किसी राजनेता को देश का बागडोर सौंपना कितना सुरक्षित होगा जो कभी म्यांमार से आने वाले रोहिंग्या शरणार्थियों (मुसलमानों) को शरण दिए जाने की वकालत करता है और कभी घुसपैठियों का पक्ष लेता हो?
अनिल बिहारी श्रीवास्तव,
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