भाग दो –
वो बाकी दिनों जैसा ही सामान्य दिन था. शायद गुरूवार था. चार पांच दिनों में ही मेरी शाला प्रारंभ होने वाली थी. छुट्टियां समाप्त होने का दिन पास आने की असलियत, मन को खट्टा कर रही थी. ऐसी मानसिकता में, मैं रोज की भांति शाखा के समय से लगभग पन्द्रह मिनट पहले ‘केशव कुटी’ पंहुचा. अपने ही धुन में सायकल चलाते हुए केशव कुटी में प्रवेश कर ही रहा था, की जोरदार आवाज आयी, “कहां जा रहे हो.? रुको..!”
मैंने चौक कर देखा. एक पुलिसवाला मुझे रोक रहा था. केशव कुटी के अहाते में बस, पुलिस ही पुलिस नजर आ रही थी. मैंने घबराहट भरे स्वर में कहा, “शाखा जाना हैं..”
उसने ठेठ पुलिसिया अंदाज में कहां, “अबे भाग.. शाखा – वाखा सब बंद हैं अभी..”
मैं सायकल उलटी मोड़ के सरपटियां भागा. बाहर गेट पर मुझे रवि बडगे जी मिले. “उन्होंने कहा, “दादा (भैय्याजी बडगे) ने कहा हैं, कुछ गडबड हैं. ज़रा केशव कुटी देख के आना.” मैंने तुरंत कहा, “मत जाइए… पुलिस लगी हैं.”
“इसका मतलब गड़बड़ ही हैं. चलो, देखते हैं, मालवीय चौक में क्या माहौल हैं..? रवि जी मेरे से छह / सात साल तो बड़े होंगे ही. हम दोनों मालवीय चौक में गए. वहां पर, श्याम टॉकीज के सामने ‘युगधर्म’ बिक रहा था. सौभाग्य से मेरे पास अठन्नी थी, और अठन्नी का ही पेपर था. मात्र दो पृष्ठ का. आगे / पीछे. सामने के पृष्ठ पर जयप्रकाश जी, अटल जी, अडवानी जी वगैरे के बड़े से फोटो, और ‘देश में आपातकाल’ इस आशय का कुछ शीर्षक. मैं पेपर लेकर सीधे घर पर भागा…
इकहत्तर वर्षों के लोकतंत्र का सबसे भयंकर और काला अध्याय, जबलपुर में इस प्रकार से प्रारंभ हुआ. सुबह मनोहरराव सहस्त्रबुध्दे, बाबुराव परांजपे, संघ के शहर संघचालक जैसे कुछ लोग तो गिरफ्तार हो चुके थे. लेकिन जबलपुर को इसकी खबर नहीं थी. प्रेस सेंसरशिप को जबलपुर में आते आते शायद २६ जून की रात हो गयी थी. इसलिए ‘युगधर्म’ का वह विशेष संस्करण दोपहर को छप सका था.
फिर धीरे धीरे समाचार मिलने लगे. मेरे पिताजी सन १९४८ में संघ के प्रथम प्रतिबंध के समय सत्याग्रह कर के जेल गए थे. उनको इस परिस्थिति की गंभीरता समझ रही. थी. वे शासकीय कर्मचारी थे. किन्तु फिर भी, आपातकाल के २१ महीनों में उन्होंने एक बार भी हममें से किसी को भी नहीं रोका. उलटे, जितनी हो सके, मदद ही की.
हमारे घर में भूमिगत पत्रक, बड़ी संख्या में हमेशा रहते थे. प्रति शनिवार को राष्ट्र सेविका समिति की शाखा भी घर के हॉल में ही लगती थी. प्रख्यात मराठी साहित्यकार गो. नि. दांडेकर जी का एक कार्यक्रम भी घर में ही हुआ था. इसमे उन्होंने कऱ्हाड के मराठी साहित्य सम्मेलन में अध्यक्षा दुर्गा भागवत जी ने भरे मंच से यशवंत राव चव्हाण के सामने आपातकाल की कैसी बखियां उधेडी, इसका वर्णन किया था.
आपातकाल लगने के कुछ की हफ़्तों बाद, स्थिति की गंभीरता को देखते हुए संघ ने अपनी रचना बना ली थी. महानगर प्रचारक सुरेश जी भूमिगत थे. मिठाईलाल जी, फुलपेंट-शर्ट में मायकल बन गए थे. रमेश नागर जी ने सराफ के बाड़े में एक अस्थायी कार्यालय बना लिया था. प्रान्त प्रचारक, उस समय कालकर जी हुआ करते थे. वे भी उस अस्थायी कार्यालय में कई बार पहुच जाते थे. जिनको हमेशा धोती-कुर्ते में या हाफ पेंट में ही देखते थे, ऐसे रामभाऊ साठे जी भी पेंट शर्ट पहन कर घूमते थे. आशुतोष सहस्त्रबुध्दे जी के घर पर साठे जी, सुरेश जी, साइक्लोस्टाइल मशीन से बुलेटिन्स बनाते थे. शाखा बंद जरुर थी. लेकिन मिलना थोड़े ही मना था.. बापूजी गुप्ते प्रति गुरूवार को भजन का कार्यक्रम करते थे, जो किसी न किसी स्वयंसेवक के घर होता था. कभी कभार तो हम लोग श्रीनाथ की तलैय्या में शाखा जैसे ही कार्यक्रम भी कर लेते थे. बस ध्वज नहीं लगता था.
रात को बी बी सी सुनना, यह आदत जैसी बन गयी थी. घर में फिलिप्स का वोल्व वाला पुराना रेडियो था, जो खरखराहट के साथ ही क्यों ना हो, पर बी बी सी अच्छे से सुना देता था. फिर घर के ऊपर एरियल तन गया, और रेडियो की आवाज में कुछ सुधार भी हुआ. बी बी सी पर सुब्रमणियम स्वामी जी का साक्षात्कार मुझे अब तक याद हैं. पुरे प्राण कानों में डाल कर सुना था.
नवम्बर १९७५ को सत्याग्रह प्रारंभ हुआ. उसके समाचार बुलेटिन्स में मिलते थे. जो बुलेटिन्स जबलपुर से निकलते थे, वे हस्तलिखित और साइक्लोस्टाइल रहते थे. लेकिन बाहर से आने वाले पत्रक छपे हुए होते थे. स्वयंसेवकों और कार्यकर्ताओं के साथ पुलिस और प्रशासन ने की हुई ज्याजती के समाचार उनमे होते थे. अटलजी की वो कविता, उस समय खूब चली थी, जो सभी को प्रेरणा दे रही थी –
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते
सत्य का संघर्ष सत्ता से
न्याय लड़ता निरंकुशता से
अँधेरे ने दी चुनौती है
किरण अंतिम अस्त होती है
दीप निष्ठा का लिये निष्कम्प
वज्र टूटे या उठे भूकम्प
यह बराबर का नहीं है युद्ध
हम निहत्थे, शत्रु हे सन्नद्ध
हर तरह के शस्त्र से है सज्ज
और पशुबल हो उठा निर्लज्ज।
किन्तु फिर भी जूझने का प्रण
पुनः अंगद ने बढ़ाया चरण
प्राण–पण से करेंगे प्रतिकार
समर्पण की माँग अस्वीकार।
दांव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते II
यह कविता आज भी कंठस्थ हैं..
जनवरी, १९७७ को चुनाव की घोषणा हुई, और माहौल बदला. जनता पार्टी की पहली सभा मालवीय चौक पर हुई. अगर मुझे ठीक स्मरण हो रहा हैं, तो बद्रीनाथ गुप्ता जी उस समय जनता पार्टी के अध्यक्ष थे. जनसंघ जनता पार्टी में विलीन हो चुका था. इस सभा की सारी तैयारी चरनजीत लाल सहानी जैसे जनसंघ के कार्यकर्ता ही कर रहे थे. शरद यादव पूरे देश में जनता पार्टी के पहले सफल प्रयोग के रूप में परिचित हो चुके थे. अतः जबलपुर से वे ही प्रत्याशी थे. पहले तो लगता था, की डेढ़ दो बरस विपक्ष का नामोनिशान ही नहीं हैं, तो जीतना मुश्किल हैं. वैसे भी जबलपुर यह सेठ गोविन्ददास जी के ज़माने से कांग्रेस का गढ़ रहा हैं. लेकिन जैसे जैसे माहौल बनता गया, जनता खुलकर सामने आती गयी.. विश्वास होने लगा की शायद जीत जायेंगे..!
२१ मार्च को चुनाव की मतगणना थी. उन दिनों पूरे परिणाम आने में एक से दो दिन तो लग ही जाते थे. जबलपुर में प्रारंभ से ही जनता पार्टी आगे चल रही थी. पूरे शहर में माहौल था. लोग बी बी सी सुन रहे थे. इंदिरा गाँधी, संजय गाँधी, विद्याचरण शुक्ला.. सारे पीछे चल रहे थे.. मालवीय चौक से छोटे फुवारे तक, चोंगे ही चोंगे लगे थे.. ऐसा लग रहा था, मानो सारा जबलपुर सड़क पर उतर आया हो. लोगो में जबर्दस्त ख़ुशी थी. कांग्रेस का कही नामोनिशान नहीं दिख रहा था. सारी रात जबलपुर की जनता सड़कों पर थी.. जनता पार्टी के झंडे लहलहा रहे थे. जयप्रकाश जी, अटल जी के नारे लग रहे थे. ‘सिंहासन खली करो की जनता आती हैं…’ की घोषणा से आसमान गूंज रहा था.
लोकतंत्र पर से कांग्रेस का ग्रहण हट रहा था.. लोकतंत्र चमक रहा था…!
– प्रशांत पोळ