देश में 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों के लिए बनने वाले विपक्षी गठबंधन के प्रयासों में हर बार कोई न कोई राजनीतिक दल दरार पैदा कर रहा है. विशेषकर छोटे राजनीतिक दलों की महत्वाकांक्षाओं ने प्रस्तावित गठबंधन की राह में बहुत बड़ा पेच खड़ा कर दिया है. एक प्रकार से देखा जाए तो इस राजनीतिक गठबंधन की दिशा में कांग्रेस पर कोई भी दल विश्वास नहीं कर रहा. जब क्षेत्रीय दल कांग्रेस को अविश्वसनीयता की श्रेणी में रखकर व्यवहार कर रहे हैं, तब कांग्रेस को भी अपनी राजनीतिक हैसियत का अंदाजा लगा लेना चाहिए. कांग्रेस के बारे में इस प्रकार की राजनीतिक धारणा बनती जा रही है कि कांग्रेस को अपनी स्थिति सुधारने के लिए छोटे दलों का मुंह ताकना पड़ रहा है और यह सही भी है, लेकिन कांग्रेस के नेताओं के समक्ष विसंगति यही है कि वह छोटे होना नहीं चाहते. यह भी सर्वथा सच ही है कि कोई कितना भी बड़ा क्यों न हो, अगर उसके अंदर बड़े होने का अहंकार आ जाए तो फिर उसे बड़ा नहीं कहा जा सकता. आज की राजनीतिक स्थिति यह है कि कांग्रेस किसी को अपना समकक्ष मानती नहीं है और छोटे दल कांग्रेस को अपने लायक नहीं मानते. ऐसे में यह स्वाभाविक ही है कि कर्नाटक में जो विपक्षी एकता का दृश्य उपस्थित हुआ, उसका रंग बहुत फीका हो चुका है.
विपक्षी एकता के प्रयासों को हर बार झटका लगा है, अब बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने भी कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को झटका दिया है. इससे यही स्पष्ट होता है कि आगामी लोकसभा के चुनावों में विपक्ष का गठबंधन उस स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाएगा, जैसी आशा की जा रही थी. बसपा नेता मायावती ने कांग्रेस को दर्पण दिखाने का प्रयास किया है. मायावती ने पहले छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और अब राजस्थान में कांग्रेस को झटका दे दिया है और अन्य पार्टियों को साथ लेने की कोशिश कर रही हैं. बसपा का कहना है कि कांग्रेस गठबंधन में शामिल होने वाले संभावित दलों पर अपनी शर्तों को थोप रही है. इससे यह साफ है कि कांग्रेस की शर्तों पर गठबंधन नहीं बनाया जा सकता. वैसे भी देश का राजनीतिक दृश्य पहले भी इस प्रकार का संकेत दे चुका है कि क्षेत्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस के अनुसार कतई चलने वाले नहीं हैं. वास्तव आज कांग्रेस को छोटे दलों ने पूरी तरह से नकार दिया है, लेकिन कांग्रेस इस सत्य को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं है. वह अपने आपको आज भी पहले जैसा ही मानकर चल रही है और यही कांग्रेस की दुर्गति का सबसे बड़ा कारण भी है.
कांग्रेस से गठबंधन करने में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और मायावती को कई आपत्तियां हो सकती हैं, लेकिन एक आपत्ति खास तौर पर यह हो सकती है कि दोनों राहुल गांधी को अपना नेता कैसे स्वीकार करें? सच तो यह है कि व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के चलते महागठबंधन बनने से पूर्व ही बिखरता नजर आ रहा है. कर्नाटक में कांग्रेस ने राजनीतिक पांसा फेंकते हुए भले ही जनता दल सेक्युलर को सत्ता के शिखर पर पहुंचा दिया हो, लेकिन कांग्रेस की यह भूल ही आज उसकी राह का रोड़ा बन गई है. हर राज्य की विपक्षी राजनीतिक पार्टियां आज कांग्रेस को पूरी तरह से हासिए पर रखती दिखाई दे रही हैं. सभी क्षेत्रीय दल आज कांगे्रस से दूर रहकर अपना अस्तित्व बनाए रखने में ही अपना भला मान रही हैं.
इतना ही नहीं अभी हाल ही में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने तो यहां तक कह दिया कि भाजपा को पराजित करना है तो कांग्रेस को वोट कतई नहीं दें. इसका आशय यह भी निकाला जा सकता है कि कांग्रेस आज देश में राजनीतिक शक्ति बिलकुल नहीं है. कांग्रेस के नेता भले ही कांग्रेस को शक्ति के रुप में प्रचारित करें, लेकिन जब क्षेत्रीय दल कांग्रेस को कमजोर मान रहे हैं, तब यह भी संभावना लग रही है कि देश में बिना कांग्रेस के ही एक नया गठबंधन तैयार हो. बसपा नेता मायावती ने इसके प्रयास भी प्रारंभ कर दिए हैं. मध्यप्रदेश में मायावती ने कांगे्रस को ठेंगा दिखाते हुए समाजवादी पार्टी से गठबंधन के संकेत दे दिए हैं. इसी प्रकार छत्तीसगढ़ में भी मायावती ने कांग्रेस को किनारा करते हुए अजीत जोगी की जनता कांग्रेस के साथ जाने का निर्णय किया है. मायावती की यह कवायद कांग्रेस को बहुत बड़े नुकसान की ओर ले जा सकती है.
हम जानते हैं कि कांग्रेस की ओर से पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों को लेकर बुलाए गए बंद से कई क्षेत्रीय दलों ने अपने आपको अलग रखा था. छोटे दलों में से कई का यह कहना था कि पेट्रोल-डीजल की कीमतों को सरकार के नियंत्रण से बाहर रखने की शुरूआत तो कांग्रेस ने ही की थी. कांगे्रस के बारे में इस प्रकार की भाषा बोलना निश्चित रुप से यह तो सिद्ध करता ही है कि कांग्रेस के साथ अन्य दलों की पटरी कतई नहीं बैठ सकती. वैसे भी कांग्रेस की राजनीतिक कार्य प्रणाली के बारे में यही कहा जाता है कि वह जिस दल से भी समझौता करने की कवायद करती है, उसे भी डुबा देती है. उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी और तमिलनाडु में द्रमुक का उदाहरण हमारे सामने है. छोटे दल कांग्रेस के साथ जिस प्रकार का व्यवहार कर रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि कांग्रेस एक ऐसा डूबता हुआ जहाज है, जिसकी सवारी कोई नहीं करना चाहता.
छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश व राजस्थान में अब कांग्रेस अकेले ही चुनाव मैदान में होगी. तीनों ही राज्यों में राजनीतिक सरगर्मियां तेज हो चली है और अकेले चुनाव लड़ने का नुकसान कांग्रेस को हो सकता है. वर्तमान राजनीति को देखकर यही कहा जा सकता है कि राजनीति में न तो कोई स्थायी मित्रता होती है और न ही कोई दुश्मन. इसलिए गठबंधन किसी में भी हो सकता है. हालांकि महागठबंधन की जो तस्वीर कर्नाटक में मुख्यमंत्री कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में दिख रही थी, वह धुंधली पड़ गई है. दरअसल, मायावती राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ अपना प्रभाव दिखाने के लिए कुछ ज्यादा सीटें मांग रही थी, जबकि इन तीनों राज्यों में बसपा को लेकर कोई ज्यादा उत्साह नहीं है. छोटे दलों की ऐसी ही राजनीति चलती रही तो यह भाजपा के लिए वरदान ही सिद्ध होगी. फिलहाल तो गठबंधन की राजनीति और विपक्षी दलों की रणनीति खतरे में ही है. देखना है कि आगे की राजनीति क्या करवट लेती है.