प्रतिदिन खिलनेवाले मनमोहक पुष्पोंकी तुलना में हजारो वर्ष के उपरांत भूलोकपर खिलनेवाले ब्रम्ह कमलसें संपूर्ण सृष्टी प्रफुल्लीत हो जाती है. इस ब्रम्हकमलकी अलौकिकता की पूजा ब्रम्हकमल खिलने के बादही घरोघरोंमें की जाती है. साधारणसे असाधारण व्यक्तीत्व भी इसी प्रकारसें धरतीपर जन्म लेते है. म्हैसूर राज्य के बिजापूर जिलेमें बागेवाडी तहसिलके रहनेवाले मादीराज एवं मंदाबी पती पत्नी को पुत्ररत्नकी प्राप्ती हुई. वैशाख शुध्द तृतीया अर्थात साडेतीन शुभ मुहूर्त मेंसे एक अक्षय तृतीया के दिन ११०६ (शके १०२९) को नंदी देवताके आशिर्वादसे प्राप्त हुए इस अलौकिक पुत्र का नाम ‘बसव’ रखा गया.
बारहवीशताब्दीमें बागेवाडी यह प्रख्यात अग्रणीय गांव था. मादीराज इस गांवके प्रमुख थे. इसलिए बचपनसेही बालक बसवके सभी सुुखसुविधा व लाड दुलार को पुरा किया जाने लगा. सुंदर व हसमुख बालक अल्प समयमेंही सबके लाडले बन गये. बचपनसेही बालक बसव अत्याधिक संवेदनशील, बुध्दीमान थे. ईश्वर भक्तोकी कहानियॉं उन्हे अत्याधिक पसंद आती थी. समाज की विरोधाभास कृतीशीलता का वह गहन अध्ययन करते थे. उदाहरण नागपंचमी पर जो लोग नागोंकी श्रध्दा के साथ पूजा करते थे वही नाग यदि मार्ग या घरमें निकलता था तो लोग उसे मार डालते थे. जो अग्निपूजा वह घरपर पिताके साथ करते है उसी अग्नि के लगनेपर पानी एवं रेत डालकर बुझाने का काम यही लोग करते है. गरीब एवं अमीर के बीच जीवनका अंतर देखे तो इन सारे भेदभावका बालक बसव के मनपर अत्याधिक संवेदनशील प्रभाव पडा. उम्रके आठवे वर्षमें उपनयन संस्कार पूर्ण कर गुरूकुल में अध्ययन के लिए जानेकी रूढ परंपरा ब्राम्हण परिवारोमें दिखाई देती है. मादीराजाने भी अपने पुत्र बसब के उपनयन संस्कारको पूर्ण करने का निर्णय लिया. लेकीन बालक बसवने इन सभी कर्मकांडका विरोध करते हुए धमकी दी कि यदि उसका उपनयन संस्कार जबरदस्ती किया गया तो वह घरसे भाग जायेगा. क्रान्तिकारी बालक बसव के कार्यप्रणाली की यही पहली क्रांती गांवभर प्रसिध्द हुई. गांवके विव्दानोंके पास उन्होने वेद, उनके छह अंग, तत्वज्ञान, संगीत, छंदशास्त्र, वाड:म्य, शिवागम आदीका अध्ययन पूर्ण किया. कुशाग्र बुध्दीमत्ता वा अभूतपूर्व स्मरणशक्ती उन्हे प्राप्त कि. बसवेश्वर कि सोलह वर्ष कि आयु में उनके माता पिता का निधन हो गया. बागेवाडी गांवमें युवा बसव के ब्राम्हण विधी विरोध को देखते हुए समाज में स्वर मुखर होने लगे. लोगोंका विरोध असहनीय होने पर बसवेश्वर अपनी बडी बहन अक्कनागम्मा के साथ कुंडलसंगम की ओर निकल गये. मलप्रभा एवं कृष्णा इन दोनो नदी के संगमपर बसाया गया रमणिक गाव अर्थात कुंडलसंगम. वहापर संगमेश्वरके मंदिर में बसवेश्वर का निवास बन गया. यहॉंपरभी बसवेश्वरको एक निश्चित दिशा मिलने लगी. और युवा बसवने यहींपर रहनेका निर्णय लिया. कुंडलसंगम उनके लिए साधना स्थल स्थापित हुआ. ईशवर भक्ती का आदर्श लेकर बसवेश्वर शिव उपासनामें लीन हुए.
स्वयं ईश्वरने बसवेश्वरको वीरशैव धर्मकी दीक्षा दिलाकर कुंडलसंगम में शिवलिंग प्रदान किया. इसका सिर्फ इतना अर्थ है की बसवेश्वरने नये धर्म की स्थापना न करते हुए पुराने शैव धर्म में क्रांतीकारी बदलाव लाते हुए नये आयाम हुए. और मानवको सहजतासे समज आ सके ऐसा मानवतावादी आंदोलन खडा किया.
कुंडलसंगम में योगी का जीवन यापन करते हुए बसवेश्वरको वैचारीक परिपक्वता स्वस्थ नही बैठने दे रही थी. समाज में फैली रूढीओंको मंदिर में बैठकर खत्म नही किया जा सकता, मंदिरसे बाहर निकलकर निष्ठावान कार्यकर्तांओ का एक समुह खडाकर अपने सपनोंका आदर्श समाज निर्माण करा जा सकता है. ऐसा उन्हो महसूस होने लगा. इसी दौरान राजा बिज्जलका मंगलवेढे में आगमन हुआ. हरिहर की कथॉंओंमें बसवेश्वरने मंगलवेढे के बिज्जल राजा के ठाठबाठ व शाही खजानेके बारेमें सुन रखा था. बिज्जल राजाके शाही खजानेको संभालेवाले प्रमुख सिध्ददंडनाथ यह बसवेश्वर के दूरके रिश्तेदार कहे जाते थे. आदर्श कार्यकर्ता व मुनीम के रूप में बिज्जल के राज्य में कार्य करनेवाले बसवेश्वर पर राजा बिज्जल एवं सिध्द दंडनाथका प्रसन्न होना यह दर्शाता था की बसवेश्वर की कार्यप्रणाली उन्हे अत्याधिक पसंद थी. बिज्जल राजाने राज्य के प्रमुख कोषाध्यक्ष की मृत्यू हो जाने के बाद उनके स्थानपर बसवेेश्वरको नियुक्त किया. सभी लोग बसवको दंडाधिकारी के रूप में पहचाने लगे. पद, सत्ता एवं ख्यातीप्राप्त बसवने सिध्ददंडनायक की दो बेटीओ गंगादेवी एवं मायादेवी के साथ विवाह किया. बसवेश्वरका वैवाहीक जीवन अत्याधिक सुखी था. घरमें मिलने के लिए आनेवाले अतिथीओंका उत्साहपूर्वक स्वागत किया जाता था.
सत्ता व संपत्तीसे परिपूर्ण बसवेश्वरको कभी भी अहंकार नही हुआ. गरीबोंकी सेवा, शिवोपासना में वह हमेशा लीन रहते थे. बसवेश्वरने इष्टलिंग की स्थापना कर सामान्य जनता को लिंग पूजा महत्व बताना प्रारंभ कर दिया. मंदिर के भगवान अमीरोंके, सामान्य लोगों के भगवान उनके शरीरमें ही स्थापित कर गुरू, लिंग, जंगम आदी का आदर धर्म मानने वालोंने करना चाहिए. विनम्रता एवं भक्ती के इस गुणोंसे युक्त ज्ञानसे बसवेश्वरकी ख्याती चारों दिशॉंओं फैलने लग गयी. मस्तकपर भस्म लगाना, शराब एवं मांस भक्षण करना संपूर्ण शाकाहारी होना, हमेशा सत्य बोलना, चोरी हत्या नही करना ऐसी बाते उपदेश के रूप में देनेवाले बसवको लोग प्रभू जैसा मानने लग गये थे. कुंडलसंगम में बसव मात्र एक ऐसे व्यक्ती थे लेकीन मंगलवेढे में बसव एक सामाजिक कार्यकर्ता क्रांतीकारक प्रतिक बने. हजारो लोग उनके अनुयायी बन गये. इ.स. ११६२ में राज बिज्जलने अपनी राजधानीको मंगलवेढासे हटाकर कल्याण स्थलांतरीत कर दिया. और बसवेश्वर कल्याण पहुँच गये. मंगलवेढा एक छोटासा गॉंव था, जबकी कल्याण एक प्रख्यात शहर था. तहसिलोकीं राजधानीवाला कल्याण आज बसवेश्वर की स्मृतीओंके कारण बसवकल्याण रूप में पहचाना जाता है. प्रारंम्भ में बसव एवं सम्राट बिज्जल के बीच संबंध मधूर थे किंतू बसव के दरबारमें रहनेवाले अनेक विरोधक राजा बिज्जल को बसवेेश्वर के विरोध में भडकाने लगे उन्होने राजा को भडकाया कि सवेश्वर शाही खजानें की रक्कम दीन दुर्बल, गरीबोंके लिए उपयोग करते है. बसवेश्वर के सामाजिक आंदोलन गतीमान व लोकप्रिय होने लगे. अनेक लोग वीरशैव धर्म स्वीकारने लगे. वीरशैव धर्म के उपदेश वर्णव्यवस्था के विरूध्द एवं पारंपारीक धर्मव्यवस्था के खिलाफ थे. बसवेश्वर स्वयं को हीन न मानते हुए अपने व्यक्तीत्वही पहचान रखने की बात लोगोंको सिखाते थे. धोबी परिवार अस्पृश्यता को लांघकर वीरशैवी बन गये. वही दुसरी ओर बसव पर शाही खजाना लुटने का गंभीर आरोप था. जिसके कारण विवाद बढने लग गये. राजा बिज्जल परंपरागत शैववाद का अनुयायी था. किसीभी प्रकारके सामाजिक प्रतिशोध के लिए वह तय्यार नही था. उसकी जीवन यापन वा आचरण की पध्दती अर्थात धर्मशैली यह बसवेेश्वर की विचारधारा थी. सत्व आचरण एवं मनपूर्वक समर्पण यह धर्म के मूल बिंदू थे. वह मानते थे कि सत्वशील जीवन यापन अर्थात ईश्वर तक पहुचने का मार्ग है. इन उपदेशों की ओर अनेक लोग आकर्षित हुए.
समाज की झुठी प्रथाओं पर बसवेश्वर ने जोरदार प्रहार किए. वह मानते की मंदिर अर्थात अमीरों व धार्मिक सिरफिरोके सामाजिक व्यवहार के केंद्र. बसवने उनके अनुयायी को किसीभी प्रकारके मंदिर ना बांधने कि सख्त हिदायत दी.
कल्याणमें ही अल्लय्या एवं मधुवय्या यह दो शिवभक्त रहा करते थे. अल्लय्या यह अस्पृश्य समाजसे व मधुवय्या जन्मसे ब्राम्हण था. मधुवय्याने अपनी बेटी का विवाह अल्लय्या के बेटे के साथ करने का निर्णय लेते हुए बसवसे इजाजत मॉंगी. इजाजत मिलतेही इस बातकी भनक बिज्जल राजा को हुई. और राजाने इस विवाहको रद्द करने का आदेश दिया. किंतु विवाह रद्द ना करने के कारण बिज्जल राजाने दोनोंकी आँखे निकाल ली. वीरशैव पंथपर राजा का अत्याचार भडता जा रहा था. बसवेश्वर समर्थक जगदेवने पंथ पर अत्याचारों को देखते हुए राजा बिज्जल की हत्या कर दी. इस समय बसवेश्वर कुंडलसंगम में ही थे. यह घटना इ.स. ११६८ के आसपास की थी. घटना के उपरान्त वीरशैव धर्मकी निष्ठावान पताका, आदर्श शिष्य परंपरा निर्माण कुंडलसंगम मेंही बसवेश्वरने अंतिम सॉंस ली. बसवेश्वरकी प्रेरणासे प्रसारित हुई विचारधारा यह आधुनिक कार्यकर्ताओको मार्गदर्शन का कार्य कर रही है. वीरशैव धर्ममें दशकर्म पध्दती है. बसवेश्वरने समाजकी गरीबी. विषमता दूर कर आर्थिक समृध्दी निर्माण करने के लिये समाजको ‘कायप के कैलास’ एवं ‘दासोह’यह दो क्रांतीकारी संकल्पना दिई. मन से किया हुआ कार्यही सत्य में शिव उपासना है. यही उनका कायप के कैलास का सार है. कायप यह सिर्फ पैसे के लिए नही बताया गया बल्की कर्मसिध्दांतपर आधारीत ना होते हुए व्यक्ती को व्यवसाय स्वतंत्रता देनेवाला बताया गया है.
शुध्दएवं बहिष्कृत समझी जानेवाली स्त्री को बसवेश्वरने स्वतंत्रता का अधिकार दिया. उन्हे धार्मिक एवं अध्यात्मिक अधिकार दिये. महिलाओंको उनके मत व्यक्त करने का अधिकार बसवके मूलभूत कार्य माने गये. बारहवी शताब्दीमें बसवेश्वरने आंतरजातीय विवाह, विश्वधर्म सिहांसनके सामान्य अनुभव, विभिन्न जाती व व्यवसाय के शिवचरण लोगोंको इकठ्ठा कर चर्चा करना.इस लयबध्द चर्चाको आगे चलकर संग्रहीत किया गया है. संमेलनो की चर्चा के माध्यमसे बसवेश्वरने लोगोंमें जनजागरण निर्माण किया. पठण सामग्री कन्नड साहित्य में प्रोत्साहन विचारोंके रूप में एक उत्कृष्ट साहित्य रूपमें पहचानी गयी. बारहवी शताब्दी में भारतके धार्मिक,सांस्कृतिक,साहित्यिक, शैक्षणिक, राजनितीक, सामाजिक जीवनके वरिष्ठ समाज परिवर्तनवादी योगपुरूष, एक महान ज्ञानी, समाजचिंतक, प्रख्यात कवी के रूपमें बसवेश्वरका नाम अजरअमर हो गया है. अनेक रूढीवादी परंपराओं, अंधश्रध्दा, कर्मकांड, विषमता, भेदभाव, स्त्री दास्यता, जातीयता आदी को विरोध कर नवचैतन्य निर्माण करनेवाले बसवेश्वर सामान्य लोगोंके महात्मा स्थापित हुए. इसलिए महात्मा बसवेश्वर की मानवतावादी क्रांती लोगोंके लिए गौरवशाली स्थापित हुई. उनकी जीवनी समाजको नई दिशा देनेवाली साबित हुई है. ऐसे महान महात्मा की जयंती पर रविवार २६ एप्रिल अक्षय तृतीया के शुभ मुहुर्तपर विश्वभर में इसे मनाया जायेगा. महान क्रांतीकारी महात्मा बसवेश्वर को विनम्र अभिवादन!
प्रा. सौ. शैलजा परमेश्वर हासबे दयानंद कला महाविद्यालय, लातूर