मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के विरूद्ध अरूण यादव को कांग्रेस का प्रत्याशी बनाना, चौंकाने वाली बात है। इस फैसले पर अनेक प्रतिक्रियाएं आईं हैं। सोशल मीडिया में इसे लेकर काफी मटेरियल मिला। कांग्रेसी दावा कर रहे हैं कि अरूण यादव को बुधनी से प्रत्याशी बना कर चौहान के सामने कड़ी चुनौती खड़ी कर दी गई है। कांग्रेसियों का कहना है कि अब चौहान बुधनी में ही फंस गए हैं, वह बाहर नहीं निकल सकेंगे। दूसरी ओर काफी बड़ी संख्या में तटस्थ लोगों की भी प्रतिक्रियाएं मिलीं। कहा जा रहा है कि भले ही अरूण यादव प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके हैं लेकिन वह इस स्थिति में नहीं हैं कि चौहान और भारतीय जनता पार्टी को चिंतित होना पड़े। मुख्यमंत्री चौहान की अपनी मजबूत पहचान है। यह पहचान अपनी गली में शेर वाली कतई नहीं है। चौहान की लोकप्रियता और मजबूत पहचान का अनुमान इसी तथ्य से लगा लेना चाहिए कि किसी आमने-सामने के मुकाबले के लिए प्रदेश कांग्रेस में ऐसा एक भी नेता नजर आता जो उन्हें पराजित कर सके। वह अकेले सब पर भारी हैं। बुधनी में लोग कहते हैं कि यदि कमलनाथ, दिग्विजय और ज्योतिरादित्य ये सभी अरूण यादव के पक्ष में बुधनी में डेरा डाल दें तब भी वे चौहान की पकड़ ढीली नहीं कर पाएंगे। चौहान ने बुधनी से एक परिवार की तरह संबंध बना लिया है। मीडिया का एक वर्ग प्रचारित कर रहा है कि चौहान से बुधनी में लोग नाराज हैं। यह एक झूठा प्रचार है। कुछ लोग भले किन्हीं कारणों से नाराज हों पर वे वोट चौहान यानी भाजपा को ही देंगे। यह सवाल गलत नहीं हैं कि चौहान की लोकप्रियता की गहराई कांगे्रेस कहां नाप पाई?
पिछले दिनों ट्वीटर पर तरह-तरह के कमेंट्स पढ़ने को मिले। इनका निचोड़ यह रहा कि बुधनी में यादव को प्रत्याशी बनाने का फैसला कांगे्रस की अंदरूनी राजनीति का परिणाम है। कई लोग मान रहे हैं कि यादव को बलि का बकरा बनाया गया है। उनकी पराजय टालना लगभग असंभव है। मीडिया में यादव की प्रतिक्रिया भी पढ़ने को मिली। यादव खुद को बलि का बकरा नहीं मान रहे। ऐसे विश्वास पर हैरानी हो रही। बात हैरानी की है भी। बुधनी का गणित स्पष्ट रूप से चौहान के पक्ष में है। इस बात में संदेह नहीं कि बुधनी में यह धारणा पैदा करने में विपक्षी और चौहान विरोधी आंशिक सफल हुए हैं कि मुख्यमंत्री ने सिर्फ अपनी जाति वालों और करीबियों को भला किया है। दूसरी ओर बुधनी में लोगों से वोट संबंधी सवाल किया जाता है तो जवाब कुछ और मिलता है। बुधनीवासी संकेत देते हैं कि थोड़ी-बहुत नाराजगी के बाद भी वे शिवराज सिंह चौहान को विजयी देखना चाहेंगे। मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद सन 2003 में चौहान ने बुधनी से पहली बार चुनाव जीता था। इसके बाद क्षेत्र में पकड़ मजबूत होती चली गई। बुधनी में चौहान की करार जाति की आबादी 25 हजार के आसपास है। अब तक चौहान को समर्थन देती रही धाकड़ जाति की आबादी 10000 बताई जाती है। भाजपा को समर्थन देने वाले ब्राह्मणों की आबादी 22000 हजार है। इनके अलावा ठाकुर 18000 हैं। ऐसा कहा जाता है कि राजेन्द्र सिंह के कारण बुधनी के ठाकुरों में भाजपा की गहरी पकड़ रही है। राजेन्द्र सिंह ने 2003 में चौहान के लिए सीट खाली की थी। बुधनी में यह आम धारणा है कि दिग्विजय सिंह की अगुआई वाली कांग्रेसी सरकार की तुलना में चौहान सरकार के कार्यकाल में क्षेत्र के विकास में काफी काम हुआ है। वहां रोजगार के सीमित अवसर आने को लेकर अवश्य लोगों में थोड़ी नाराजगी है। क्षेत्र के किसानों में भी नाराजगी
के दावे किए जाते हैं लेकिन ऐसी बातों में दम नहीं है। करार जाति के लोगों मानते हैं कि अधिकांश उपजों का उन्हें वाजिब मूल्य मिला है। कुछ लोगों का कहना है, 13 वर्ष पूर्व किए गए वादों में से अनेक पूरे नहीं हुए लेकिन फिर भी चुनावों में चौहान को समर्थन देना क्षेत्र के हित में होगा।
अब बात अरूण यादव की करें। पूर्व केन्द्रीय राज्यमंत्री और मध्यप्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अरूण यादव की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह दबंग छवि वाले वरिष्ठ कांग्रेस नेता स्व. सुभाष यादव के पुत्र हैं। उनके आलोचक कहते हैं कि अरूण यादव के खाते में उनकी कोई व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए भी वह उस दबंगई को नहीं दिखा पाए जिसकी विपक्ष के सबसे बड़े नेता से अपेक्षा की जाती है। वह अन्य पिछड़ा वर्ग से हैं किन्तु बुधनी में उनके साथ समस्या यह होगी कि एक तो उन्हें बाहरी आदमी माना जा रहा है और दूसरी, उनका मुकाबला चौहान से है। यही तथ्य उन्हें भारी पड़¸ेगा। अरूण यादव स्वयं को बलि का बकरा मानने के लिए तैयार नहीं हैं। किसी ने कहा, यह तो वही बात हो गई कि नहला-धुला कर फूल मालाओं से लाद दिया गया बकरा समझ ही नहीं पा रहा है कि छुरी लटक रही है। एक बुजुर्ग ने सटीक टिप्पणी की। उनका कहना है कि जब बकरे को खरीदा जाता है तो उसे बढ़िया खिलाया जाता है, बलि के पहले उसे नहलाने का भी रिवाज है और कुछ लोग माला पहना कर उसे घुमाते भी हैं। उस घड़ी तक शायद बकरा अपनी तकदीर पर फूला नहीं समाता होगा। इतना सम्मान, इतना प्यार-दुलार और इतनी सेवा? इसके बाद क्या होता है? किसी कुर्बानी संस्कार के क्लाईमैक्स को याद करें। जैसे ही बकरा आसपास मौजूद इंसानों की भावभंगिमा समझता है, उसे मौत का आभास हो जाता। ऐसे मौकों पर पशुओं में बेचैनी और घबराहट नोटिस की जाती रही है। बुद्धू से बुद्धू बकरा जान जाता है कि अब खेल खत्म! अगर शिवराज को बुधनी में रोके रखना ही कांगे्रस की रणनीति है तो पार्टी के पाव दर्जन अन्य तुर्रम खां नेताओं में से किसी को मैदान में क्यों नहीं उतारा गया। यादव को बुधनी से चुनाव लड़ाने को सुझाव किसने दिया था। क्या यादव पर प्रदेश की राजनीति से हाशिये डाले जाने का खतरा नहीं मंडरा रहा है? क्या सब कुछ जानते हुए भी यादव आग में कूद पड़े हैं? सम्भवतः वह हाईकमान के प्रति वफादारी का प्रमाण पेश करने की जुगत में हों। आम लोगों को तो इंतजार सियासी कुर्बानी के क्लाईमैक्स का है।
अनिल बिहारी श्रीवास्तव,
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