जब जब इस संसार सागर से पार उतरने के विचार हमारे मन मे आते है तो शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते है पेट मे बल पड़ने लगते है ,माथे पर पसीने के कण उभरने लगते है ,हाथ अनायास ही बेजान लगने लगते है ,और हम जहाँ कहीं भी हों धप से अपनी जगह पर बैठ जाते है क्न्योकी हमारी टांगे शरीर का भार उठाने मे अचानक असमर्थ हो जाती है . ये विचार पल भर को ही सही कभी न कभी सब के जीवन मे आते रहते हैं , विचार जो क्षणिक हैं ,विचार जो मात्र कल्पना है ,विचार जो परिस्थितिन्यो वश उभरे ,विचार जो अपने बुरे कर्मों के कारण आये या विचार जो क्रोध के कारण उभरा था —पर था तो एक सत्य
एक क्रम से इस बात पर विचार करते है
धरती पर प्रकृति ने अपने रूप का जाल फेला दिया और मानव जाति फलने फूलने लगी .श्रम कर कमाना और मिल बाँट कर खाना –नदी किनारे आश्रय बना कर जीवन जीना .कितना सुन्दर दृश्य जान पड़ता है अपना जीवन जीने के लिए हमने प्रकृति को नित नए संसाधनों से संवारा ,फल फूल प्राकृतिक आहार –क्रमबद्ध रितुन्यो ससे संवरता जीवन हमने नित नए रूप मे पाया .यहाँ एक बात धयान देने योग्य है की जब तक हमने धरती ,जल और वायु का बंटवारा नहीं किया था तब तक मन मे शायद अहंकार की भावना ने जनम भी नहीं लिया था .
तेरी और मेरी इस अधिपत्य की भावना से ही मन मे अहिंसा जाग उठी .एक ऐसी अहिंसा जिसे किसी प्रकार के अस्त्र शास्त्र की आवश्यकता नहीं थी .जब लोग छोटे छोटे घरों मै रहते थे जिसकी दीवारें मिटटी की और छत पत्तो से बनी होती थी — तो उनमे सद भावना की कमी न थी –छत से किसी भी घर मे पानी टपके, उसे सुधारने सारा कबीला जुट जाता था .धीरे धीरे दीवारें मजबूत और छतें पक्की हो गईं .अब जेसे हवा भी दरवाजे खिड्किन्यों के खुलने पर ही घर के अन्दर प्रवेश पा सकती थी और वेसे ही काबिले वाले हों या पडोसी निमंत्रण पा कर ही प्रवेश कर सकते थे .ये दूरियां हिंसात्मक विचारों से प्रेरित थी ,जिसमे उंच नीच का भेद था ,अमीर -गरीब का भेद था ,रेशम और सूती वस्त्रों का भेद था ,पकवानो और रूखे सूखे भोजन का भेद था .एक बार जब ऐसे विचारों का जन्म हुआ तो बड़ी तीव्र गति से सबके मानो मस्तिष्क पर इनका प्रभाव छागया .विकास की गति मे लोग अपने अपने घरों मे एक दूसरे के करीब तो रहने लगे पर मन से और भावनायों से वे एक दूसरे से टूटने लगे .शब्दों के नश्तर ने अपनत्व का हनन कर दिया घरों की श्रृंखलाएं गगन चुम्बी इमारतों का समूह बन गई .पर अब सभी सुनी आँखों से भव्यता को निहारते रहते है ,कहीं कोई अपनत्व नहीं कहीं कोई ऐसी मुस्कुराहट नहीं जिसे अपना मान कर जी लिया जाये .हम सभी कहीं न कहीं किसी अपने को धुन्दते रहते है, किसी सहारे को खोजते रहते है पर मन मे बड़ते अहम् ने हमारे विचारों मे हिंसा कूट कूट कर भर दी है बात समाज तक होती तो कुछ और होता या व्यक्ति विशेष की होती तो कुछ और होता पर ये तो प्रादेशिक असमानता है,यह खान पान की असमानता है ,यह धर्म की असमानता है यह भाषा की असमानता है जिसके रहते वैचारिक अहिंसा घर घर के अन्दर अपनी जड़ें जमा चुकी है .
एक परिवार मे दो से दस तक या फिर कुछ कम ज्यादा सदस्य भी हो सकते है …..सभी मानसिक हिंसा का शिकार है .कोई आयु मे बड़ा है तो वो किसी को कुछ भी कहने का अधिकार रखता है ..छोटे है तो सुन लिजीए इतना तो बड़ों का हक़ बनता है .कोई अपने काम मे दक्ष है तो समाज ताने देता है की होशियार है तो क्या कुछ भी करने का अदीकार मिल गया कुछ भी कहने का अधिकार मिल गया .या फिर अमुक स्वजन की इतनी हिम्मत की वो हम से आगे निकल जाये ——इस अहंकार के चलते दूसरों की सफलता की राह मे जीतनी हो सके उतनी अडचने पैदा करना .
और यदि कोई ऐसी परिस्थिति मे दुर्भाग्य वश असफल हो गया तो –फिर देखिये कितनी ख़ुशी मिलती है तमाशा देखने वालों को .पर ये आत्मा को तृप्त करना है या वैचारिक हिंसा .कुछ और घरेलु हिंसाएँ है जो भारतीय परिवारों मे बहुत विकराल रूप धारण कर चुकी है उदाहरन के लिए सास बहु के झगडे दहेज़ को ले कर प्रतारणा ,शराब पी कर मार पीट करना आदि .ये हिंसा के वो प्राथमिक रूप हैं जो भोतिकता का मोह बदने के साथ साथ बड़ते चले जा रहें है .ममता भरा आंचल हो या फिर पिता की विशाल छत्र छाया यह तब तक ही ठंडक पहुंचाती है जब तक भावी पीडी आंख मूंद कर उसका अनुसरण करती है —जहाँ जरा से विचार बदले नहीं की मात्रु – पित्र ऋण की दुहाई देना शुरू हो जाता है .
हमारी युवा पीड़ी की आत्मशक्ति को देख कर ही स्वामी विवेकानंद जी ने गुहार लगाई थी “उठो आगे बड़ो और तब तक न रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये ” पर बदलाव की राहें बड़ी कंटक पूरण है और अंध विश्वास की जंजीरें बहुत मजबूत .घरेलु हिंसा कहें या वय्व्हारिक हिंसा ये तो प्लेग जेसे रोग से भी अधिक भयानक है .प्लेग का शिकार व्यक्ति झट पट भौतिक क्या छोड़ देता है पर विचारों की हिंसा ,शब्दों की हिंसा ,व्यव्हार मे हिंसा ये सारी हिंसाएँ मनुष्य को तिल तिल कर मारतीहैं और इतना ही नहीं इसकी जड़ें संक्रामक रोग की तरह सदियों से गहरी होती जा रही है .और अधिकतर यह भी देखा गया है जहाँ भौतिक सुख व् ज्ञान अधिक होता है वहीँ इस तरह की हिंसा भी अधिक पाई जाती है .यदि आज दान दहेज़ का लालच इतना अधिक न बड़ गया होता शायद कन्या के पैदा होने से पहले ही उसको मार न दिया जाता .समाज का वह पहलु जिसके साये मे जीवन फलता फूलता है वो इतना श्री हीन न हो जाता .कभी कभी लगता है यदि दहेज़ प्रथा न होती तो नारि ही नारि की दुश्मन न होती -वो धन के नाम पर या ,कुल व जाति के नाम पर ,अपनी भावी पीड़ी को अपमानित न करती .कितना विभित्स्य दृश्य है .एक नव विवाहिता, एक कन्या को जनम देने जा रही है और उसकी तथाकथित सास अर्थात एक और महिला उसको जन्म से पहले ही समाप्त करने का हठ कर रही है और एक और महिला जो सदा दूसरों के जीवन की रक्षा का प्रमाण्पत्र ले चुकी है सफ़ेद कोट पहन कर कुछ धन पाने की आशा से एक आजन्मी कन्या का आस्तित्व मिटाने को तेयार खड़ी है .यहाँ किस की आंखे नाम हैं ,कोन आगे बड़ रहा है इस हिंसा को रोकने ?जननी का आंचल क्यों छोटा पड़ रहा है .हम जागरूक भविष्य की कल्पना करते है तो क्या यही है हमारी नीव .कहने को हमारा देश महात्मा गौतम का देश है . महावीर का देश है जिन्हें अहिंसा का जनम दाता कह सकते है .शायद वो बीते दिनों की बातें है पर ये बातें कितनी सच है कहाँ तक सच हैं यह एक एतिहासिक सच है या तथ्य है पर है विचारणीय .दूसरी ओर महात्मा गाँधी- जो आज का सच है. कुछ लोग तो आज भी जीवित हैं जिन्होंने गाँधी जी को देखा है .हम सभी गाँधी जी को उनकी अहिंसा के आदर्शों के कारण महान मानते व पूजते है एक ऐसी अहिंसा जिससे एक देश दूसरे देश को परास्त कर सकता है —
आत्म विश्वास और आत्मबल से -जिसने समाज मे जाति पांति की रीत को उंच नीच की भावना को मिटा कर सादभावना को जन जन मे जगाया -उस गाँधी के देश मे वैचारिक हिंसा के इतने विकराल रूप हैं की लोग अपने ही घरों मे पल पल मर रहे है .ऐसा क्या हुआ की अहिंसा के प्रतीक भारत देश के वासी वैचारिक हिंसा के शिकार बन बेठे .हमारे दिल से दूसरों को माफ़ कर देने की भावना मानो लोप हो चुकी है एसा कंयो हो रहा है
आज न ज्ञान की कमी है न विज्ञानं की न धन कीकमी है न संपदा की ,न योग की न पूजा की फिर क्या खोज रहे है हम .कब तक औरत ही औरत की दुश्मन बनी रहेगी और पुरुष धव्न्सक हमें अब अपने आप को सही दिशा देनी होगी और अपने कर्मों को मानवोपयोगी बनाना होगा वाणी मे सनेह नम्रता और आशीर्वादों को स्थान देना होगा
हम याद रखें कविओं की वाणी —
ऐसी वाणी न बोलिए मन का आप़ा खोय
ओउरण को सीतल करे आपहु सीतल होए .
परिस्थितियों के कारण उपजी हिंसा जिससे देश और समाज का कभी कभी उद्धार हो जाता है पर हिंसा के कारण उपजी परिस्थितियों से मनुष्य कभी कभी जीवन भर के लिए रोगी बन जाता है .बात है मात्र संयम और संस्कारों की. अपने स्वाभिमान की रक्षा हम तभी कर पाएंगे जब दूसरों के स्वाभिमान की रक्षा करने मे हम सक्षम होंगे .कुछ मुठी भर लोग समूचे समाज के विचारों मे बदलाव नहीं ला सकते इसके लिए हम सब को प्रयत्न करने होंगे .साधू संतो की कही वाणी का अनुसरण करना होगा— वे साधू संत जिन्हों ने वेद पुरानो की रचनाएँ कीं या वे समाज सुधारक जो अँधेरे मे उजाले की एक किरण बन कर चमके..
ALL POWER IS WITHIN YOU BELIEVE I N THAT .STAND UP AND EXPRESS THE DIVINITY WITHIN YOU. GIVE UP JEALOUSY AND CONCEIT .THIS LIFE IS SHORT ,THE VANITIES OF THE WORLD ARE TRANSIENT ,BUT THEY ALONE LIVE WHO LIVE FOR OTHERS ,THE REST ARE MORE DEAD THAN ALIVE .GO TO HELL YOURSELF TO BUY SALVATION FOR OTHERS .
— SWAMI VIVEKANAND JI
महावीर ,गौतम और गाँधी जी की अहिंसा भारत देश पर बस एक लेबल की तरह चिपकी है .ये शायद कानूनी हिंसा है जिसे हम सबूतों के आधार पर नापते है पर उस हिंसा को केसे रोका जाये जो हर घर के बंद दरवाजे के अन्दर पनप रही है ,जो हर व्यक्ति के विचारों मे बस रही है ,जो समाज से शांति और घरों से सुख लूट रही है .क्या यह सही न होगा की अब हम सब एक ऐसी शिक्षा का आवाहन करें जिससे हमारे विचारों की हिंसा दूर हो सके .
– नीरा भसीन- ( 9866716006 )