‘मौसी’ की याद आते ही अपने सर को ढकने के लिए साडी को ठीक करती प्रौढ महिला ही नजरों के सामने आती है। सही पहचाना बात आज चरित्र अभिनेत्री लीला मिश्रा की । उनके बोलने का अंदाज खालिस बनारसी था।
आज भी याद है नूतन और सुनिल दत्त की ‘मिलन’ में जब वे जमुना को अंतिम द्दश्यों में कहतीं हैं, “कल मुही तुने जो आग लगाई है उस में तु तो जलेगी ही, मगर वो दोनों भी भसम हो जायेंगे।” ये ‘भस्म’ की जगह ‘भसम’ बोलना ही “मौसी यानी लीला मिश्रा की विशिष्ट अदा थी ।
उनका यह अनोखा देहाती अंदाज था, जो उन्हें फ़िल्म प्रेमियों का चहेता बनाता था। शायद इस लिए ही भारतीय पृष्ठभूमि की फ़िल्में बनाने वाले ‘राजश्री प्रोडक्शन’ की तो लीला मिश्रा जैसे स्थायी सदस्या थीं।
‘शोले’ में धर्मेन्द्र पानी की टंकी पर चढकर जिन को “जेल में चक्की पीसींग एन्ड पीसींग एन्ड पीसींग” कराने की धमकी देते हैं, उन ‘मौसी’ लीला मिश्रा को कौन भूल सकता है? लीला जी को फ़िल्मों में कितने सारे रोल में हमने देखा था। कभी वे ‘राम और श्याम’ में दिलीपकुमार (राम) की मां बनीं थीं तो कभी वे ‘दासी’ में मौसमी चेटर्जी की ‘मामी’ थी। मगर ‘शोले’ की ‘मौसी’ ने उन्हें जो सफलता और लोकप्रियता दी, उसका कोई सानी नहीं।
हालांकि लीला मिश्रा को पर्दे पर अपना काम देखने के लिए सिनेमाघर जाना भी पसंद नहीं था। उन्होंने अपने ‘पवित्र बनारस’ वाले अभिगम को मुंबई में भी बरकरार रखा था और फ़िल्में नहीं देखतीं थीं । यहाँ तक की ‘शोले’ और सत्यजीत राय की ‘शतरंज के खिलाडी’ भी उन्होंने नहीं देखी ! है न आश्चर्य की बात।
लीला मिश्र कितनी सरल और भोली स्वभाव की थी कि इतनी सारी फ़िल्मों में काम करने के बावजुद वह काफी हीरो-हीरोइन को पहचान नहीं सकती थी। उन्होंने खुद १९७८ के एक साक्षात्कार में पत्रकार देवेन्द्र मोहन को बताया था कि ‘दुश्मन’ की शूटींग के पहले दिन राजेश खन्ना को वे पहचान नहीं पाई थी। राजेश खन्ना जो उस समय किवदंती बन चुके थे । हिंदी फिल्मों के सुपर स्टार थे ।
फ़िल्मी दुनिया का हिस्सा होते हुए भी उस से अलिप्त रहीं इस चरित्र अभिनेत्री ने 1988 की 17 जनवरी के दिन अंतिम सांस ली। आज लीला मिश्रा की पुण्य तिथि है मगर उनकी अनेक भूमिकाओं से ‘मौसी’ आज भी ज़िन्दा ही हैं। उनकी पुनीत आत्मा को शत शत नमन, विनम्र श्रद्धांजलि ।
सादर/साभार
सुधांशु