– 7 लाख से ज्यादा पटाखा मजदूरों की जिन्दगी दांव पर
– 90% लोग अस्थमा और टीबी से पीड़ित
शिवकाशी (तेज समाचार डेस्क). दक्षित भारत का तीर्थक्षेत्र रामेश्वरम और शिवकाशी. एक का नाम राम से तो दूसरे का शिव से जुड़ा है. दोनों ही बेहद अलग हैं लेकिन पूरे देश को जोड़ते हैं. रामेश्वरम देश को श्रद्धा और धर्म से जोड़ता है और शिवकाशी लोगों को पटाखे जलाने से मिली खुशियों से. खुशियां यानी पटाखे, खासतौर पर बच्चों के लिए. चीन के बाद पटाखों के निर्माण में भारत दुनिया में दूसरे पायदान पर है. इसमें 90 फीसदी योगदान चेन्नई से 500 किमी दूर छोटे से शहर शिवकाशी का है.
करीब 20 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की पटाखा इंडस्ट्री और इस काम में लगे 7 लाख कामगारों पर 2018 का साल भारी है. हाल ही में आए सुप्रीम कोर्ट के सिर्फ दो घंटे पटाखे चलाने और सिर्फ ग्रीन पटाखे बनाने आदेश ने शिवकाशी पटाखा इंडस्ट्री को संकट में डाल दिया है. देशभर में जहां इस फैसले पर मिली-जुली प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, वहीं शिवकाशी सहम गई है क्योंकि 100 साल से इस शहर में सिर्फ पटाखों की बात होती है. शहर की बसाहट से कम से कम 3-4 किमी दूर फैले मैदानों में पटाखा फैक्ट्रियां फैली हुई हैं. आज यहां 800 पटाखा यूनिट्स हैं. 40 साल से इस इंडस्ट्री में काम कर रहे राममूर्ति कहते हैं पटाखे उनका धर्म हैं. यहां पटाखों के खिलाफ न कोई कुछ बोलता है और न सुनता है. इसीलिए जब देशभर में लोग दिवाली पर पटाखे जलाते हैं तो शिवाकाशी के लाखों परिवारों के चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है. शिवकाशी को मिनी जापान भी कहा जाता है. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस शहर को यह नाम दिया था.
– कोई विशेष फर्क नहीं पड़ेगा
माना जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का यहां के कारोबार पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ेगा. पटाखें आवाज वाले हो, या बिना आवाज वाले. यहां के लोग हर प्रकार के पटाखें बनाने में माहिर है. पटाखों के प्रकार में फर्क के अलावा यहां के कारोबार पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ेगा. जो लोग यह मान रहे हैं कि पटाखों का आकर्षण भविष्य में कम हो जाएगा, तो इस पर भी अभी कई भ्रांतियां है. क्योंकि वक्त कितना भी बदल गया हो, पटाखों के साथ खुशियां मनाने की परंपरा अभी भी वैसी ही है, बल्कि इसमें इजाफा हुआ है. इसलिए कोर्ट के आदेश के बाद यहां के वातावरण में कोई विशेष परिवर्तन फिलहाल नहीं दिखाई दे रहा है.
– नडार बंधुओं ने बसाया पटाखों का शहर
एक छोटे से शहर को आतिशबाजी की राजधानी बनाने का श्रेय शिवाकाशी के नडार बन्धुओं को जाता है. नडार बन्धुओं ने माचिस की छोटी सी डिबिया में बड़े सपने देखे. 1922 में एक बड़ा संकल्प लेकर दोनों भाई माचिस बनाने की कला सीखने कोलकाता पहुंच गए. दोनों ने करीब 8 महीने तक बिना शर्म मजदूरों की तरह काम करके तमाम बारीकियां सीखीं. शिवाकाशी लौटने पर दोनों ने कई जगह से पैसा इकट्ठा करके माचिस की एक छोटी से फैक्ट्री लगाई. जर्मनी से आधुनिक मशीनें मंगाने का पहला बड़ा जोखिम उठाया. 1926 में माचिस उद्योग की नींव जमने के बाद नडार भाइयों ने सहमति से अलग होकर कारोबार विस्तार किया. षणमुगम नडार ने अपने उत्पादों को काका (स्टैंडर्ड ब्रांड) का नाम दिया तो अय्या नडार ने गिलहरी व अनिल ब्रांड पटाखे बनाना शुरू किया.
– आजादी के बाद मिली नई पहचान
नडार परिवार की 1942 में स्थापित स्टैंडर्ड फायर वर्क्स और श्री कालिश्वरी फायर वर्क्स आज देश की दो सबसे बड़ी पटाखा निर्माता कम्पनियों में से एक है. इन कम्पनियों के मुर्गा, मोर, घंटी, गिलहरी, अनिल और स्टैंडर्ड ब्रांड पटाखे दुनिया के कई देशों में निर्यात भी किए जा रहे हैं. स्टैंडर्ड फायर वर्क्स ने तो एक कदम आगे बढ़ाते हुए पटाखों के जन्मदाता देश माने जाने वाले चीन में भी फैक्टरी शुरू की है. इसके अलावा कम्पनी ने चीन के लियुंग फीनिक्स फायर वर्क्स कम्पनी के साथ साझा उद्यम भी शुरूकिया है. शिवकाशी की एक और मशहूर कम्पनी कोरोनेशन फायर वर्क्स है जिसकी स्थापना 1974 में तमिल उद्यमी पी. कंगावल ने की थी.
– साल के 300 दिन यहां होता है काम
शिवकाशी में साल के 300 दिन पटाखे बनते हैं. बच्चे और महिलाएं शिवकाशी की रीढ़ हैं. ज्यादा मजदूरी कमाने के लिए पूरा परिवार पटाखा और माचिस बनाने के कारोबार में जुटा है. न बच्चों के लिए उम्र की सीमा है न बुजुर्गों के लिए. शिवाकाशी जितना पटाखा-माचिस, प्रिंटिंग कारोबार के लिए प्रसिद्ध है उतना ही बाल मजदूरी के लिए भी जाना जाता है. नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स की एक रिपोर्ट के अनुसार यहां 5-15 साल के बच्चों को नाममात्र की मजदूर पर 12 घंटेकाम कराया जाता है. हाथों की स्पीड ऐसी कि एक घंटे में 1000 पीस तैयार कर लेते हैं. सल्फर, एल्मुमिनियम पाउडर और बारूद के बीच पटाखा बनाने बच्चों के साथ बुजुर्गों तक 90 फीसदी लोग अस्थमा, आंखों में संक्रमण और टीबी की समस्या से जूझ रहे हैं. रंगीन पटाखों के काम में लगे कन्नन के पिता केमिकल एक्सपर्ट और जगन्नाथ कैमिकल्स के मालिक थानासेकरन 70 साल के हैं. आज भी अपनी मोपेड पर सुबह 8:30 बजे फैक्ट्री पहुंच जाते हैं. फिर शहर के बीच में बने ऑफिस आते हैं. कन्नन बताते हैं कि यहां लोग खूब मेहनत करते हैं, खूब कमाते हैं और फिर खूब खर्च भी करते हैं.
– समय साथ-साथ हो रहा बदलाव
तकनीकी कुशलता और बेहतर प्रबन्धन के दम पर शिवकाशी के उद्यमी प्रदूषण रहित पटाखे भी बनाने लगे हैं और बालश्रम रोकने के लिए भी कदम भी उठाए हैं. नडार परिवार के सहयोग से शिवकाशी में कई स्कूल-कॉलेज और संस्थाएं गरीब श्रमिकों की मददगार बनी हैं. चाइल्ड लेबर न हो इसके लिए 20 मॉनिटरिंग एजेंसियां हैं. अब यहां 42 एजुकेशनल इंस्टीट्यूट हैं. जिनमें तीन इंजीनियरिंग कॉलेज, एक वुमन कॉलेज, 2 पॉलीटेक्निक, एक फॉर्मेसी और तीन आर्ट कॉलेज हैं. यहां 3 आईसीएसई और2 सीबीएसई बोर्ड के स्कूल भी हैं. सभी को पटाखा कंपनी मालिकों से मदद मिलती है. इलाके में 8 फायर स्टेशन हैं जिसमें 20 गाड़ियां और टीम में 190 लोग हैं. फायर डिपार्टमेंट की टीमें स्कूल से लेकर कॉलेज और सरकारी ऑफिसों में भी फायरअवेयरनेस ट्रेनिंग देती है. देश का सबसे आधुनिक बर्न यूनिट यहां के सरकारी अस्पताल में है. आठ साल से सीथुराजपुरम की एक फैक्ट्री में काम कर रही सेलवी कहती हैं यहां काम करके हर हफ्ते वह 1000-1500 रुपए कमा लेती हैं. पति यहां की सबसे बड़ी 250 करोड़ के टर्नओवर वाली स्टैंडर्ड फायरवर्क में इसी सीजन से काम करने लगा है. वो 3000 हर हफ्ते घर लाता है. फैक्ट्री में 350 से कम रोज की मजदूरी किसी को नहीं मिलती. अनुभवी को 600 तक मिलते हैं.