बयालीसवें श्लोक में अर्जुन का तर्क है यदि परिवार के मुखिया
ही मारे जाते हैं तो फिर परिवार में अध्रर्म का फैलना कोई नहीं रोक सकता
महत्वकांक्षाएँ सर चढ़ कर बोलने लगती हैं। इससे तो संस्कारों का हनन
हो जायेगा और लोगों में अनिश्चितिता बढ़ जाएगी। लोग वही करेंगे जो नहीं किया जाना चाहिए और अंत में नरक के भागी बनेंगे।
कहते हैं जो पाप कर्मों का प्रायश्चित करने से पहले ही
मृत्यु को प्राप्त होते हैं –तो उनकी मृत्यु के बाद उनकी जीवित पीङिंयाँ पूजा और प्राथना द्वारा उनका उद्धार करती हैं ,पर जब समाज
में रहने वाले लोग ही उनकी अवहेलना करेंगे तो पूर्वजों का उद्धार कैसे होगा। अर्थात इस युद्ध के उपरांत जो हालात बनेगें उससे आने वाली पीड़ी तो प्रभावित होगी ही पर पूर्वजों की आत्मा को भी मुक्ति न मिलेगी। इसका अर्थ तो ये ही जान पड़ता है की अर्जुन को युध्क्षेत्र में होने वाले परिजनों के संहार का दुःख ,और उन लोगों के लिए जो पितृलोक में सिधार चुके हैं और वे लोग जो भविष्य का आधार बनने वाले थे ,वो उनके लिए भी भयभीत था।
४३ –श्लोक -धर्म एक ऐसी व्यवस्था है जिसे हर व्यक्ति
अपनी आने वाली पीड़ी को सौंप कर उसकी रक्षा की कामना करता है।
पर कभी कभी ऐसा होता है की लोग लोभ और मोह वश धर्म के विपरीत जा कर अपने निजी सुख हेतु उसका हनन करते हैं। तब बहुत विकट
परिस्तिथियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और ऐसे में वर्तमान भूत भविष्य
सब का विनाश प्रारम्भ हो जाता है।
कोयंबटूर के स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कहा है —“Universal law and order are a part of the creation and are something that we all sence commnly .In other words ,they are universal
.Whether or not you are educated in this Dharma, you do know what is right or wrong .What you want or do not want others to do to you become right or wrong ,respectively .
Being endowed with common sense ,a human being is able to appreciate right or wrong without any education whatsoever .this is what causes people to compromise .Compromise therefore are not born out of total ignorance
of universal values .”
श्लोक ४४ —अर्जुन कृष्ण से कहता है की जो अपने कुल के धर्म का नाश हैं वे नरक में जाते हैं ऐसा उसने अपने
धर्म की शिक्षा देने वाले गुरु से सीखा है। अर्जुन को इस युद्ध में न तो कोई दृश्य फल दिखाई दे रहा था और न अदृश्य और दूसरी ओर दुर्योधन को
न पाप की चिंता थी और न पुण्य की। वह तो किसी भी कीमत पर
हस्तिनापुर पर एक छत्र शासन करना चाहता था। वह इसी में प्रसन्न था और अर्जुन का सोचना था की वह यदि अपने परिजनों का संहार करके राज्य प्राप्त कर भी लेता है तो भी वह पल भर की प्रसन्नता नहीं भोग सकेगा । वह पापी कहलायेगा।
श्लोक ४५ ,४६ ,४७,—-अर्जुन के ह्रदय में हाहाकार मच रहा था करुणा और अनुराग से उसका मन भर उठा ,अर्जुन कृष्ण से कहता है –धिक्कार है हमें ,हम यहाँ राज्य का और राज्य के सुखों को भोगने के लिए तत्पर हैं और उसे प्राप्त करने के लिए अपने ही
स्वजनों को का संहार कर पाप के भागी भी बनाने जा रहे हैं।कितनी प्रबल होती है भौतिक सुखों की लालसा -इंसान को अँधा बना देती है। यह युगों से चली आ रही कहानी है। इंसान इससे बार बार सीख लेता है और बार बार भूलता है, नतीजा हमारे सामने ही है।
अर्जुन ने कातर दृष्टि से कृष्ण को देखा और कहा
,सबसे उचित तो यह होगा की मैं यहाँ निःशस्त्र उपस्तिथ रहूं और धृतराष्ट्र के पुत्र मेरा वध कर दें ,मैं उनका विरोध भी नहीं करूँगा।
अर्जुन की वेदना यह थी की यदि वो युद्ध में मारा नहीं जाता और शत्रु का संहार करता है और विजयी हो भी जाता है तो भी वह जीवन भर दुखी ही रहेगा और यदि वह इस प्रयत्न में वह मारा जाता है तो भी उसकी दुखीः आत्मा यहीं भटकती रहेगी। अर्जुन की व्यथा की कोई थाह न थी।
वह अस्त्र शस्त्र छोड़ कर रथ में बैठ जाता है।
अर्जुन दुखी हुआ ,उसने हथियार डाल दिए ,उसने अपने मन की सारी व्यथा ,दुविधा संशय सब कृष्ण को कह सुनाये
पर वह युद्ध का मैदान छोड़ कर भागा नहीं अपितु दोनों सेनाओं के
बीच अपने रथ पर निढाल हो कर बैठ गया। कृष्ण अब तक मौन थे और
अर्जुन चाहता था की अपने मन की बात कहें।
कृष्ण मौन थे कयोंकि वे अर्जुन के मन में उठ रही सारी शंकाओं से अवगत होना चाहते थे। जब कोई मनुष्य बौखला जाता है तो उसे कोई भी सलाह देने से पहले यह जान लेना आवश्यक होता है की सामने वाला दूसरे के मन की बात सुनाने को तैयार भी है की नहीं।
और यह तभी सम्भव है जब व्यथित व्यक्ति को सामने वाले पर पूरा भरोसा हो और उसकी कही बात पर वह निःसंकोच अमल कर सके.
जिससे आप सहायता की अपेक्षा करते हो उस पर विशवास होना भी आवश्यक है।